हास्य व्यंग्य | |
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रामबाबूजी का वसंत |
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मास्टर रामबाबू जी जैसा निबंध बसंत पर कोई लिखवाता, कोई लिखवा भी नहीं सकता, ऐसा सारे छात्र कहते हैं 'दीपावली', 'विज्ञान के चमत्कार', 'चाँदनी रात में नौका -विहार' आदि लिखाया बसंत वाले निबंध के क्या कहने सही-सही रटा भर हो, फिर बोर्ड की परीक्षा में काहे का डर बसंत' का नाम परचे में पढ़ते ही छात्र एक-दूसरे को आँख मारते हैं कि 'प्यारे आ गया अपना बसंत' परीक्षा हॉल में जैसे कोयल कूकने लगती है फिर मास्टर रामबाबू जी चौड़ी छाती उठाए, बुलबुल- से सारे कमरों में घूम आते हैं और एक ही बात कहते हैं कि मैंने पहले ही कहा न कि महत्वपूर्ण है शेष अध्यापक प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि रामबाबू जी आपका फिर आ गया उत्तर क्या दे सकते हैं रामबाबू जी, सिवाय इसके कि हम जानते ही थे कि आयेगा क्यों कि महत्वपूर्ण हैं वैसे कुछ अध्यापक उनसे ईर्ष्या भी करते हैं तथा बसंत और उनके बीच के इस अलौकिक संबंध का ठट्ठा भी करते है पर उसकी रामबाबू जी को परवाह नहीं वे बसंत के होकर रह गए है। रामबाबू जी कस्बे के प्राइमरी स्कूल में हिंदी के अध्यापक हैं, पिछले पच्चीस वर्ष से से पैंतीस रुपयों पर लगे थे, अब डेढ़ सौ पाते हैं उनके देखते-देखते शहर कितना आगे निकल गया, पर वे स्कूल की ढहती दीवारों के बीच डटे बसंत पर निबंध लिखाते रहे दाँत गिर गए, स्कूल की छत गिर गई, उन पर कर्ज़ बढ़ता गया, एक पुत्र मर गया, पत्नी को तपेदिक हो गया- हेड मास्टर ने उनकी दो वेतनवृद्धियाँ रुकवा दीं, घुटनों में गठिया हो गया- पर वे बसंत पर अपने निबंध के सहारे चलते रहे आठवीं कक्षा की परीक्षा बोर्ड की होती है हँसी-ठट्ठा नहीं है बोर्ड की परीक्षा। छात्र घबराते हैं, कहते फिरते हैं कि बोर्ड है क्या होगा, मास्साब! बोर्ड की परीक्षा में कैसे निकलेंगे? सभी लोग एक सलाह अवश्य देते हैं हिन्दी में पास होना है तो रामबाबू जी से बसंत पर निबंध लिखवा लो लिखवा लिया? बस, तो बेड़ा पार! रामबाबू जी सुनते रहते हैं यह बात उनके कान सुनना चाहते हैं यह बात वे कान खड़ा किए स्कूल में घूमते हैं मार्च के महीने में तो जैसे चारों तरफ़ कोलाहल-सा उठता है बसंत, बसंत, बसंत रामबाबू जी, रामबाबू जी यही सुनना भी चाहते हैं रामबाबू जी वे बसंत पर फिर लिखवाते हैं, फिर-फिर पढ़ते हैं हर वर्ष, फिर परीक्षा आती है, फिर बसंत पर निबंध पूछा जाता है, फिर रामबाबू जी की तारीफ़ होती है हेड मास्साब कहते हैं कि रामबाबू जी ने बढ़िया लिखवा दिया था, स्साले सब निकल जाएँगे। रामबाबू जी हस्बेमामूल शरमा जाते हैं... कई बार तो रामबाबू जी को स्वयं भी आश्चर्य होता है कि बसंत पर इतना बढ़िया कैसे लिखवा लेते है? उन्होंने बसंत कभी नहीं देखा वे लिखवाते रहे कि 'गलियन में बगरो बसंत है' पर उनकी गली तक बसंत को आते उन्होंने कभी नहीं देखा उनकी गली में जमादार वर्षों से नहीं आया, नालियाँ बजबजाती हैं, लोग घरों के सामने कचरा फेंकते हैं, मकान मालिक के बच्चे सामने बैठकर पाखाना करते हैं, बसंत कभी आए भी तो नाक दबाकर भाग ले! ऐसी गली में रहकर भी बसंत पर इतना सुंदर कैसे लिखवा लेते हैं वे? कैसे खिल उठते हैं चारों तरफ़ फूल? कैसे मँडराने लगते हैं गुनगुनाते भँवरे? कैसे इस बीमार घर में बैठकर वे स्वस्थ, सुडौल, पुष्ट स्तनों वाली सुंदर नायिकाओं की कल्पना कर लेते हैं? वे स्वयं चकित है ये बसंत वाली गलियाँ नहीं शहर की वे सड़कें अलग ही हैं जहाँ साल भर बसंत रहता है शहर के आला अफ़सर, व्यापारी, उनके स्कूल का मैनेजर उन सड़कों पर रहते हैं वे प्राय: सोचते हैं कि बसंत ताकि उनकी गलियों तक बसंत न पहुँच सके वे हमेशा यही सोचते हैं कि काश, वे इन सड़कों के किनारे रहते! उन गलियों में रहने वाले सभी यही सपना देखते हैं न जाने उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि बसंत का छीनकर वहाँ से अपनी गलियों तक ले आएँ बस के प्रति वर्ष बसंत पर निबंध पर निबंध लिखवाते रहें उसी में अपना बसंत तलाशते रहे रामबाबू जी। पर पिछले कुछ वर्षों से वह बात नहीं रही। पच्चीस वर्ष पूर्व कितने गौरव से बने थे वे अध्यापक देश नया-नया स्वाधीन हुआ था उन्हें लगा कि वे अध्यापक बनकर नयी पीढ़ी का निर्माण करेंगे वे बच्चों को पढ़ाते हुए प्रसन्न होते कि इनमें ही कोई होगा गांधी! वे गांधी, गौतम तैयार करने के भ्रम में पच्चीस वर्ष तक खटते रहे और इधर देश ही बदल गया आज उन्हें यह जानकर अजीब लगता है कि देश को गांधी की आवश्यकता ही नहीं रही उनके उत्पादित गांधी माँग के अभाव में मंडी तक नहीं पहुँच पाए वे रोज़गार दफ़्तरों में सड़ रहे थे और किसी मायावी झाँसे से निकल गए, कितने बसंत खपा दिए रामबाबू जी ने उस डेढ़ सौ रुपल्ली की मास्टरी में उनके दोस्तों ने चुंगी की बाबूगिरी में ही इमारतें तान डालीं और वे देश निर्माण के भ्रम में बसंत पर निबंध रटाते रहे वे उस कमबख्त बसंत के बच्चे के चक्कर में पड़कर स्वयं के परिवार को पतझड़ में झोंकते रहे अब लगता है कि काहे का सुसरा बसंत सब बेकार है बोर्ड, बसंत, परीक्षा, अंधकार, भूख, पुण्य, धाँधली, सिफ़ारिश, भँवरा, बहार, धक्के, बेकारी, बयार-सारे शब्द उन्हें पर्यायवाची लगने लगे थे और आपस में गडमड हो रहे थे 'स्साला बसंत' रामबाबू जी सोचने लगे थे। स्टाफ़ रूम में बैठे थे रामबाबू जी। इस वर्ष उन्होंने बसंत पर निबंध नहीं लिखवाया था।
उन्होंने लॉटरी का रिज़ल्ट देखना शुरू किया, करोड़ से लेकर पचास रुपये तक इनामों में उनका नम्बर कहीं नहीं था वे बेचैन हो गए उन्हें लगा कि जीवन की हर दौड़ में उनका नम्बर फिसड्डी ही रहा, उस सबके पीछे उन्हें बसंत षडयंत्र लगता बसंत के भ्रम में उन्होंने कितने वर्ष गँवा दिए वे वितृष्णा, क्रोध तथा लाचारी से बेचैन होकर कमरे में घूमने लगे उस देश में बसंत की बातें करने वालों का यही अंत होना था क्या? उन्हें चिढ़ आने लगी लगा कि कुछ और न कर सकें तो यह अखबार ही फाड़कर फेंक दें। इतने में कमरे में छात्रों की एक टोली घुस आई। वे फट पड़े बरस पड़े बिफर उठे लगा कि अभी तांडव प्रस्तुत कर देंगे, कपड़े फाड़ देंगे, आग लगा देंगे, आसमान गिरा देंगे रामबाबू जी चीख पड़े भागो स्सालो! भागो यहाँ से, बसंत, बसंत, बसंत, बसंत न हो गया, तमाशा हो गया, आगे मेरे सामने बसंत का नाम भी लिया ते एक-एक को चीरकर धर दूँगा, बच्चे पहले तो समझ नहीं पाए पर रामबाबू जी को बेंत उठाते देखकर कुछ समझने को शेष न रहा बच्चे भागे रामबाबू जी उनके पीछे भागे उन्हें लग रहा था कि हर बच्चा बसंत है और उधेड़ा जाना चाहिए बच्चे बस्ते फेंककर भागे रामबाबू जी ने दूर तक उन्हें खदेड़ा पर बच्चे निकल भागे। रामबाबू जी थके-थके से हाँफते हुए वापस लौटे और
स्टाफ रूम की कुर्सी पर आकर निढाल होकर बैठ गए कुछ देर यहीं बैठे रहे, बिना हिलेडुले
फिर वे उठे घिसटते कदमों से स्टाफ रूम के दरवाज़े तक पहुँचे दरवाज़ा बंद करके वापस
आए, जेब से टिकट निकाला और अखबार के सामने बैठ गए। ९ फरवरी २००९ |