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ऋतु वसंत फूली सरसों
– अवधेश
कुमार शुक्ल
वसंत
की ऋतु हो, फागुन का महीना हो तो सरसों नाम अनायास ही ओंठों पर आ
जाता है। सरसों प्रकृति के सौंदर्य का प्रतीक तो है ही आर्थिक
दृष्टि से भी यह भारत के सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा
है। पीली सरसों के फूलों वाली राई-सरसों समूह की आठ मुख्य फसलें
भारत में तिलहनी फसल के रूप में उगाई जाती हैं और इनके उत्पादन
में संपूर्ण विश्व में भारत का दूसरा स्थान है। इन फसलों को
मुख्यतः खाद्य तेलों के कारण उगाया जाता है, परन्तुन इनका औषधि
के रूप में भी प्रयोग होता रहा है। प्रचीन यूनानी, रूसी एवं
भारतीय चिकित्सक इसके औषधीय गुणों सेभली-भाँति परिचित थे।
आयुर्वेदीय संहिताओं में इसका वर्णन प्रचुरता से मिलता है
संस्कृत में इसे सर्षप, सिद्धार्थ, गौरसर्षप, कटुस्नेह, भूतनाशन
एवं आसुरी नामों से जाना जाता है। हिंदी में इसे सरसों, राई व
राजिका कहते हैं।
राई-सरसों बीज
सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि सरसों के बीज जलाने से वातावरण
कीटाणु रहित हो जाता है। इसलिए इसे रक्षोहन/रक्षोहन भी कहते हैं।
आर्युवेदिक ग्रंथ भावप्रकाश के अनुसार सरसों के बीज उष्ण, तीखे
और त्वचा रोगों को हरने वाले होते हैं तथा ये वात, पित्त और कफ
जनित दोषों को शांत करते हैं। होलिकोत्सव में सरसों के चूर्ण से
उबटन लगाने की परंपरा है, ताकि ग्रीष्म ऋतु में त्वचा की सुरक्षा
रहे। आदिकाल से उत्तर भारत में जहाँ तेज गर्मी होती है, गरम
हवाएँ चलती हैं वहाँ पर त्वाचा की लाली और फुन्सियों के शमन के
लिए प्राय: लोग सरसों के बीजों के उबटन का प्रयोग करते हैं।
सरसों के बीजों की पुल्टिस गठिया के दर्द और सूजन को भी दूर करती
है। इसके बीजों में विभिन्न प्रकार के खनिज व अन्य तत्व जैसे
कैल्शियम, मैग्निशियम, मैगनीज, स्फुर, पोटेशियम, गंधक, जस्ता,
फाईटिक अम्ल, सिनापिरी एवं टैनिन भी पाये जाते हैं।
राई-सरसों तेल
सरसों
के तेल में नमक मिलाकर मंजन करने से मसूड़ों के रोगों में आराम
मिलता है। चरक-संहिता के अनुसार सरसों, हाथीपाँव एवं मिरगी रोग
में प्रयोग की जानी चाहिए। सरसों का तेल पक्षाघात ग्रसित रोगियों
की मालिश में भी प्रयोग किया जाता है। यह तंत्रिका तंत्र को बल
देता है। गठिया और वात व्याधि में सरसों के तेल में लहसुन,
अजवाइन एवं मेथी के बीजों को जलाकर, छानकर मालिश करने की सलाह दी
जाती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार के अंचलों में
प्रसव उपरांत सरसों के तेल में पकी खाद्य वस्तुओं का प्रयोग व
मालिश की जाती है ताकि संक्रमण से बचाव हो सके व त्वचा मे निखार
आ जाये। आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों के ज्ञानियों ने अनेक रसायनों
की खोज सरसों, सरसों के तेल एवं सरसों की खली में करके इसके
औषधीय गुणों मे चार चाँद लगा दिये हैं। सरसों का तेल बच्चों की
पाचन क्रिया को बढ़ाकर खाद्य रसों के अवशोषण को तीव्र करता है
तथा आँतों को बल देता है। पतले दस्तों का कारण अमीबा के अतिरिक्त
कुछ जीवाणु भी होते हैं सरसों का तेल उन्हें नष्ट करने में भी
सहायक होता है। खाद्य तेलों की गुणवत्ता उनके पोषकता मान के आधार
पर की जाती है। पोषकता मान का मापन खाद्य तेलों मे पाये जाने
बहुअसंतृप्त वसा अम्ल और संतृप्त वसा अम्ल के अनुपात के रूप में
मापा जाता है। राई-सरसों के तेलों में इसका अनुपात सूरजमुखी,
तिल, सोयाबीन एवं मूंगफली के तेलों से अधिक उत्तम होता है।
संतृप्त वसा अम्ल की अधिक मात्रा मानव शरीर के लिए हानिकारक होती
है। राई-सरसों में संतृप्त वसा अम्ल की मात्रा न्यूनतम (लगभग
६
प्रतिशत) होती है।
राई-सरसों शाक (साग)
सामान्यत: सरसों, शाक के रूप में भी प्रयुक्त होती है। यह
चौपायों का हरा चारा भी है। मुँह में छाले होने पर हरे शाक को
खाने की सलाह बुजुर्ग लोग देते है। उत्तर प्रदेश एवं पंजाब
क्षेत्रों में हरा शाक पाचक, शीतल और त्वचा रोगों में लाभदायक
माना जाता है। सरसों के शाक में व्याप्त अनेक स्टरोल इसे
रक्ताल्पता का निवारक बनाते हैं। अब सिद्ध हो चुका है कि सरसों
के पत्तों में स्थित विशेष प्रकार का ग्लूकोसिनोलेट रसायन अनेक
ऐसे जीवाणुओं को मार सकता है जो हमें स्वस्थ नहीं रहने देते। एक
प्रयोग में सरसों को चूहों को खिलाया गया और परिणाम में उनके
रक्त की शर्करा में न्यूनता देखी गयी। अत: यह मधुमेह में भी
लाभकारी हो सकती है। सरसों की पत्तियों में एक रसायन
ग्लूकोपायरेनोसाइड पाया जाता है, जो छाती के दर्द और ज्वर के
प्रकोप को कम करता है। इथाइलएसीटेट में बने राई-सरसों की
पत्तियों के सत में विभिन्न जीवाणुओं की वृद्धि को रोकने की
क्षमता होती है।
राई-सरसों खली
सरसों
की खली में कुछ एण्डीऑक्सीडेंट पाये जाते हैं, जो मवेशियों के
लिए अति लाभकारी होते हैं। अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है
कि जिन पशुओं विशेषकर गायों को सरसों की खली दी जाती है उनका दूध
अधिक प्रोटीन एवं वसायुक्त हो जाता है। राई-सरसों की खल, मूँग व
अन्य फसलों के कुछ पादप परजीवों ( नीमैटोड, कीट व फफूँद ) की
वृद्धि को रोकती है। साथ ही इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट,
रेशे, नमी, राख, खनिज, विटामिन्स, ग्लूकोसिनोलेट्स, फाईटिक अम्ल,
सिनापिरी, टेनिन व अन्य पोषक तत्व भी पाये जाते हैं।
राई-सरसों जड़
सरसों
की जड़ों का शर्बत फ्लू एवं कफ जनित छाती की घबराहट एवं दमे में
लाभ देता है, जो जड़ों में व्याप्त ग्लूटेमीन सिंथेटेज रसायन के
कारण संभव है। इसकी जड़ों में पाया जाने वाला आइसोथायोसाइनेट कुछ
रोगाणुओं की वृद्धि को रोकता है जैसे गाउनोमैनोमाइसिस ग्रेमिनिस।
यह कहना उचित न होगा कि सरसों केवल शाक तेल और खली देने वाला
पौधा ही नहीं है बल्कि वास्तव में कई रसायनों से भरपूर अति
गुणकारी पौधा है, जिसके द्वारा विभिन्न रसायनों के औद्योगिक
उत्पादन के साथ-साथ अतिगुणकारी औषधि भी प्राप्त की जाती है। इसके
साथ ही पशुओं के भोजन के रूप में भी इसके भूसे का उपयोग किया
जाता है।
राई-सरसों भूसा
राई-सरसों के भूसे को सामान्यत: खाना पकाने, अनाज के भूनने, ईंट
को पकाने एवं कहीं-कहीं छप्पर आदि को बनाने में उपयोग किया जाता
है, अन्यथा खेतों में जला दिया जाता है, किंतु इसके भूसे में
पाये जाने वाले तत्वों को औद्योगिक उत्पादन के रूप में उपयोग
किया जा सकता है और देश की समृद्धि भी बढ़ाई जा सकती है। साथ ही
साथ भारत में भी कभी-कभी पशुओं के लिए चारे की कमी होती है उस
समय राई-सरसों के भूसे को गेहूँ के भूसे के विकल्प के रूप में
उपयोग करने से गेहूँ के भूसे की कीमत को बढ़ने से रोका जा सकता
है और चारे की कमी को पूरा किया जा सकता है। राई-सरसों के भूसे
में भी पशुओं के लिए घुलनशील प्रोटीन और शर्करा, फीनोल, रेशे तथा
ग्लूकोसिनोलेट आदि आवश्यक पोषक तत्व पाये जाते है।
१ मार्च
२०१० |