थकी आँखों से उसने मोटे शीशों का चश्मा ऊपर खिसकाया
था। कोट उतार कर कुर्सी पर रखा और हाथों के दस्तानें निकाल कर नीचे टोकरी में फेंके
थे। वाशबेसिन में हाथ धोए दो बार-तीन बार। आँखों पर ठंडी हथेलियों का स्पर्श सुहाया
था। अपना बैग उठाकर बाहर आया था। ड्राइवर ने उसे देखते ही उचक कर उसके हाथों से बैग
लिया। गाड़ी का दरवाज़ा खोला। उसका बैग रखा और दरवाज़ा बंद करके अपनी सीट पर बैठ गया।
स्टार्ट की थी।
'साब घर चलूँ?'
'हाँ भाई।'
उन्होंने घड़ी देखी, 'दस' बज चुके थे। अब और कहाँ जाएगा? वैसे भी कहाँ जाता है वह।
उसने सोचा था। इतना लंबा दिन, पाँच घंटे का कांप्लीकेटेड ऑपरेशन। उफ! सारा दिन
खड़े-खड़े उनकी टाँगें दुख रही थी। सिर और आँखें पथरा-सी गई थीं। जल्दी से घर पहुँच
कर सोया जाए। भूख भी अब तो मर चुकी थी। झटके से अचानक गाड़ी रुकी तो उन्होंने आँखें
खोली थीं। शायद उन्हें झपकी आ गई थी। इतना ट्रैफ़िक इस समय। कुछ समझ में नहीं आया
कि वे कहाँ हैं। क्या बजा होगा? उसने दुबारा घड़ी देखी थी। सड़कों पर भीड़ थी।
ट्रैफ़िक धीमी गति से रुक-रुक कर खिसक रहा था। दुकानें अभी खुली थीं। दुकानों पर और
सड़कों की पटरियों पर अनेकानेक वस्तुएँ सजी थीं। ख़रीदने वालों और बेचने वालों की
भीड़-भाड़ और चहल-पहल थी। दुकानों पर और सड़कों के बीचो-बीच दिल के आकार के गुब्बारों,
रंग-बिरंगे चमकीले काग़ज़ों की लतरें बड़े-बड़े पोस्टर और बैनर चिपकाए और लटकाए गए
थे। छोटे-बड़े रेस्तराँ में खूब भीड़ थी।
युवा लड़के-लड़कियाँ हाथों में हाथ डाले और
गलबहियाँ डाले चुस्त कपड़ों में सजे-सँवरे रेस्तराँ के बाहर अंदर, दुकानों पर
सड़कों पर, पटरियों पर घूम रहे थें, या रुके हुए थे एक दूसरे में खोए हुए। एक
अजीब-सा अपरिचित वातावरण था।
'जॉर्ज'
'जी सर!'
'हम कहाँ है भाई?' उसने पूछा था।
'कनॉट प्लेस में ही हैं सर। ट्रैफ़िक जाम है सर।'
'इस वक्त?' उन्होंने तीसरी बार घड़ी देखी थी।
'आज क्या है जॉर्ज?' उसने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया था। दीवाली तो कब की बीत चुकी
थी। फिर यह दीवाली का माहौल तो था भी नहीं।
'आज वेलेंटाइन डे है सर।'
'वैलेंटाइन डे? वह क्या होता है?' अपनी अनभिज्ञता पर एक पल के लिए शर्म-सी महसूस
हुई थी। सारे बाज़ार पटे थे लोग जश्न मना रहे थे और वे पूछ रहे थे वैलेंटाइन डे
क्या होता है।
'सर. . .' वह अटका था।
'हाँ भाई क्या होता है वैलेंटाइन डे?' उन्होंने उत्सुक होकर पूछा था।
'सर वो सेंट वैलेंटाइन थे न. . .।' वह झिझका था।
'अच्छा! उनकी याद में मनाया जाता है? उसने जल्दी से वाक्य पूरा किया था शायद अपने
अज्ञान को छिपाने के लिए।
'नहीं सर!' उसने ग़लती सुधारी थी। 'उनकी याद में नहीं सर। उन्होंने मानवता को याद
दिलाया था कि प्रेम करना मनुष्य का अधिकार है।'
डॉक्टर ठाकुर सोच में पड़ गए थे। अधिकार? प्रेम तो
सहज बोध है। होता ही है।
पता नहीं जॉर्ज उसका अर्थ समझा था या नहीं। उसने अपनी बात स्पष्ट की थी सर
वैलेंटाइन डे प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है।
उनींदे से डॉक्टर ठाकुर चेतन हुए थे। क्यों जॉर्ज
सैंट वैलेंटाइन का भी कोई किस्सा है शीरी-फरहाद या लैला-मजनू की तरह?
'नहीं सर। कैथॉलिक ईसाइयों में प्रेम, विवाह और गृहस्थ जीवन वर्जित था।
स्त्री-पुरुष के प्रेम को अनैतिक, विघटनकारी और पतन का कारण मानते थे।'
डॉक्टर ठाकुर अपने भीतर व्यंग्य से हँसे थे। प्रेम कहाँ वर्जित नहीं होता?
शायद वे बड़बड़ाए थे।
कैथॉलिक ईसाइयों में वर्जित था। सिर्फ़ सैंट वैलेंटाइन ही ऐसे संत थे जिन्होंने
प्रेम को नैतिकता की ऊँचाई और सामाजिक मान्यता प्रदान की थी।
'वे क्या कैथॉलिक ईसाई नहीं थे?'
'वे भी कैथॉलिक ईसाई ही थे सर। लेकिन हो सकता है ईसाई बनने से पहले उन्होंने प्रेम
किया था। प्रेम की पीड़ा को झेला था या उन्होंने प्रेम करना चाहा हो पर प्रेम नहीं
कर पाए हों। इसीलिए घर भी नहीं बसा पाएँ हों। गृहस्थ भी नहीं हुए थे लेकिन यह भी हो
सकता है उनका प्रेम परवान न चढ़ सका हो। क्यों कि प्रेम वर्जित जो था इसलिए उन्होंने
सबके लिए प्रेम करने का अधिकार माँगा। किसी के प्रेम पर पाबंदी लगाने को अनैतिक
कहा। इसीलिए आज वैलेंटाइन डे को प्रेम की अभिव्यक्ति का प्रतीक मानकर प्रेम-दिवस के
रूप में मनाते हैं। सारी दुनिया में मनाया जाता है सर. . .। पहले हम नहीं मनाते थे
यहाँ भारत में। लेकिन अब तो क्रिसमस और होली-दीवाली की तरह वैलेंटाइन डे भी मनाया
जाता है।'
प्रेम करने का अधिकार। डॉ. सिंह के भीतर एक हूक-सी
उठी थी। जॉर्ज कह रहा था, 'सर पहाड़ों पर पर्यटकों के लिए स्थल ऐसे होते हैं जो
आकर्षण का केंद्र होते हैं। जहाँ आवाज़ देने से आवाज़ लौट आती है वहाँ जाकर प्रेमी
युगल मुँह पर हथेलियों की तूती-सी बनाकर चिल्ला कर कहते हैं आई लव यू। मैं तुम्हें
प्यार करता हूँ। यह भी ऐसे ही प्रेमी युगलों के प्यार का उत्सव जैसा है। प्रेमियों
के लिए एक विशेष दिन। प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन। वर्जित प्रेम की अभिव्यक्ति का
दिन।' उनकी आँखों के सामने अंधेरा-सा छा गया था। वे जैसे मरुथल में तपते रेत पर
नंगे पैर चलने लगे थे। प्रेम की अभिव्यक्ति न हो और प्रेम की भावना दमित रह जाए तो
जीवन कैसा कुंठित हो जाता है। उन्होंने सोचा था। समय के समुद्र से एक ऊँची हिलोर
उठी थी। उनको वर्तमान से खींचकर अतीत की लहरों के थपेड़ों में ले गई थी। जुबैदा और
उन्होंने साथ-साथ एम. बी. बी. एस. किया था। इंटर्नशिप और हाउस जॉब भी साथ ही किया
एक ही अस्पताल से।
यह अनायास नहीं हुआ था। वे यही चाहते थे। उनके बीच
की घनिष्टता बढ़ती गई थी। दिनों दिन उनके बीच का संबंध घना होता गया था पर दोनों जब
आमने-सामने होते तो दिलों में उठ रहे ज्वार भाटे के बाद भी ऊपर से शांत एक-दूसरे की
ओर देखते रहते। जुबैदा उसके लिए साकार सपने की तरह थी। किसी मुस्लिम स्थापत्य में
उत्कीर्ण भारतीय देव प्रतिमा थी। वह जितनी प्रोफ़ेशनल थी उतनी ही आत्मीय भी। लेकिन
दोनों की आँखों में इस सात वर्षों के रिश्ते के भविष्य का सवाल कौंध जाता था। क्या
उन्हें अपने परिवारों में उनके सांप्रदायिक अनुशासन में लौटना होगा? बात ओठों पर
आते ही होंठ जलने लगते थे। पिता ने कहा था, 'पढ़ाई ख़त्म हुई अब तुम आगे की सोचो।
घर आओ ताकि क्या करना है उसकी योजना बनाई जाए।'
उसने एम. डी.में दाखिला लेकर दो साल का समय और ले
लिया था। जुबैदा को भी सर्जरी में सीट मिल गई थी। अजीब-सी पुलक से भरे वे दोनों
दिन-रात अस्पताल में डयूटी पर रहते। नाईट डयूटी में उन्होंने एक ही कमरे में कितनी
ही रातें साथ बिताई थीं। पर उनकी पीढ़ी कितनी अलग थी। शील और संकोच के शिकंजे में
कसी सामाजिक वर्जनाओं से ग्रस्त थी। इन सात वर्षों में उसने कभी जुबैदा को नहीं छुआ
था। ट्रैफ़िक लाइट पर रुकी साथ की गाड़ी में प्रेमी युगल एक-दूसरे के आलिंगन में
बँधे दूसरी दुनिया में थे। सोच रहे होंगे यह बत्ती कभी हरी ना हो तो कितना अच्छा
हो। वे देख रहे थे प्रेम अब एकांतिक कभी नहीं रहा था। साथ ही युवतियाँ भी उसी सहज
और उद्दमता के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने लगी थीं।
कई बार अपने निकट उसने जुबैदा की उसाँसों को,
काँपते होंठों को, उसके वक्ष की उठान को, उसकी गर्म हथेलियों को और उसकी लरजती देह
को बहुत समीप से महसूसा था। रात की डयूटी पर एक दूसरे की हथेलियों में अपने दिलों
के तूफ़ान को थामे बैठे रहते। कई बार उसे लगता जुबैदा अपना संयम खो देगी। उसे उसके
संकेतमात्र की प्रतीक्षा थी। उसे स्वयं भी लगता वह अब और रुक नहीं पाएगा। बाहें
फड़कती उसे अपने में समेटने के लिए। प्यास से गले में काँटे उग आते। उसकी टाँगे
काँपने लगती। जुबैदा की साँसों को वह अपने चेहरे पर महसूसता। तभी जुबैदा उसके चेहरे
को अपने हथेलियों में भरकर साँस रोक कर कह देती।
'संजय तुम थोड़ा बाहर खुले में घूम आओ। मैं कॉफी
बनाती हूँ।' वह डयूटी रूम से निकल कर वार्ड का बरामदा पार कर बाहर आ जाता। पीली-सी
चाँदनी में या अंधेरे में खड़ा होकर बढ़ आई हृदय की धड़कनों को, और अपने उद्वेलन को
सामान्य करने की कोशिश करता और लौट आता। दोनों साथ-साथ कॉफी पीते और किसी
प्रोफ़ेशनल मुद्दे पर बातचीत में लीन हो जाते। उनके पास शिक्षा की, स्थान की और
अवसर की सारी सुविधाएँ थी। तो भी एक प्रभावी ऑटो सैंसर था जो मन मस्तिष्क से परे
देह के स्तर पर उतरने से रोकता था।
उसका ध्यान टूटा था। उसने देखा था कुछ लोगों का
रेला-सा आया था लाठियाँ, डंडे और हॉकियाँ लिए हुए। उन्होंने सजी सजाई दुकानों पर
दनादन डंडे बरसाने शुरू कर दिए। दुकानों के शीशे तोड़ दिए। बैनर और पोस्टर फाड़
दिए। रंग-बिरंगी पन्नियों की कागज़ की लतरों और गुब्बारों की सजावट को खींच-खींचकर
तोड़ दिया। एकदम भगदड़-सी मच गई थी। उन्हीं में से कुछ लोगों ने कुछ युवतियों और
युवकों के साथ भी मारपीट की थी। जॉर्ज ने जल्दी से गाड़ी गली में मोड़ कर एक अंधेरे
कोने में लगा दी थी। गाड़ी की बत्तियाँ बंद कर दी थीं।
'साब जरा रुक जाते हैं। यहाँ से निकलना ठीक नहीं
है अभी।'
'जार्ज यह क्या हो रहा है यहाँ? ये मारा पीटी और तोड़-फोड़ क्यों हो रही है?'
'सर, कुछ लोग वैलेंटाइन डे मनाने के विरोध में हैं। वही कर रहे हैं ये।'
'पर क्यों जॉर्ज? विरोध? कैसा विरोध!'
'ये लोग इसे पश्चिमी संस्कृति की देन कहते हैं। इसलिए इसे मनाने नहीं देना चाहते।'
'पश्चिमी संस्कृति? भारतीय संस्कृति में मनाने देते हैं क्या?'
जॉर्ज चुप रहा था। उसका मन कड़वाहट से भर गया था।
उसे याद आया था। जुबैदा उस दिन गंभीर थी और उदास-सी भी थी। 'संजय अब क्या करना है?
शादी करेंगे?' उसने धीरे से उसके कंधे छुए थे। वह तब भी गंभीर बनी रही थी।
'इस वीकएंड में घर जाऊँगा। पिता से कहूँगा सीधे से।'
वह रुका था, 'चाहो तो तुम भी चलो। अगर कुछ होता है तो एक साथ ही होगा न।'
एक ठंडी-सी - 'अच्छा!' कहकर वह चली गई थी।
भय की एक कील भीतर तक बेध गई थी। वह अपने पिता की
रूढ़िवादी जड़ता को जानता था। रास्तेभर वे दोनों बुझे हुए से अपने भीतर खोए रहे थे।
जुबैदा की स्थिति उससे बेहतर नहीं थी। जैसे-जैसे वे कस्बे के नज़दीक पहुँच रहे थे,
जुबैदा के चेहरे पर भय की छायाएँ गहराती जा रही थीं। बस से उतरने से पहले उसकी
उँगलियों में उलझी जुबैदा की उँगलियाँ शिकंजे की तरह कस गई थीं। उसकी आँखें झुकी
हुई थीं और गीली थीं। बस से उतर कर गुमसुम से वे दोनों विपरित दिशाओं में चले गए
थे।
जुबैदा का नाम लेते ही घर में बवंडर आया था। हवेली
की दीवारें हिल गई थीं। घर के बड़े छोटे सभी सदस्य उन दोनों से कुछ दूरी पर सिर
झुकाए हाथ बाँधे खड़े थे। वह पिता के बिल्कुल करीब खड़ा था पर पता नहीं क्यों वे
ऊँची विस्फोटक आवाज़ में दूसरे धर्म, जाति और संप्रदाय की लड़की से शादी का
प्रस्ताव रखे जाने के कारण बेटे से परिवार की मर्यादा और वंश को नष्ट करने के जुर्म
की सज़ा पूछ रहे थे। ठीक था उनसे किसी खुले विचार और उदारता की अपेक्षा तो नहीं की
जा सकती थी। अपनी ग़लती को जानकर वह उसी दिन वापस लौट गया था। पर इतने भयंकर तूफ़ान
की उम्मीद उसे भी नहीं थी। कस्बे में दोनों संपदाओं के बीच कट्टरता की दीवारें
हमेशा से ही थी। फिर भी आमजनों में सद्भाव बना हुआ था। पहल पता नहीं किस ओर से हुई
थी। जुबैदा और उसकी शादी की फुसफुसाहट से ही सांप्रदायिकता की आग भड़क उठी थी। इधर
के लोग चाकू, भाले, तलवारें, बंदूकें लिए पहुँचे थे, वहाँ से मशाले लिए लोग हवेली
में आग लगाने आ गए थे।
जुबैदा का मध्यवर्गीय परिवार था। कस्बे में पिताजी
ज़मींदारी, हवेली, ज़मीन जायदाद का रोब दाब था। लेकिन दोनों धर्मों की सांप्रदायिक
ताकतें अपनी जगह थीं। छुटपुट आगजनी और मार काट की घटनाओं के बाद कस्बे में तनाव बढ़
गया था। पिता के रुतबे के कारण बाहर से पुलिस फोर्स बुलाई गई थी। कई दिनों बाद
धीरे-धीरे स्थिति सुधरी थी। जुबैदा नहीं लौटी थी। परेशान-सा वह सोच रहा था वे क्यों
गए थे वहाँ उस बंद कुए में। अगर वे चाहते तो अपना निर्णय ले सकते थे। पिता की
लंबी-चौड़ी ज़मींदारी और जायदाद की विरासत के बिना भी आराम से जीवन जी सकते थे। वे
आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे, शिक्षित और प्रौढ़ थे। उस कस्बे से बाहर उनके सामने
पूरी दुनिया थी। फिर भी क्यों उन्होंने अपना निर्णय नहीं लिया?
एक दिन अचानक घर से ताबेदार आया था। पिता मरणासन्न
हैं, अभी बुलाया है। रुका हाथ में पकड़े वह असमंजस में पड़ गया था। फ़ोन पर वही बात
दोहराई गई थी। वह बस से उतरा तो पिता की फोर्ड लिए ड्राइवर खड़ा था। ताबेदार ने भाग
कर उसका बैग हाथ में ले लिया था। पिता की फोर्ड पक्की के बाद कच्ची सड़क पर
धीरे-धीरे रास्ता बनाती जा रही थी। उसे आश्चर्य हुआ था पिता बीमार थे और हवेली की
ओर जाने वाला सारा रास्ता फूलों के बंदनवारों और केले के पत्तों से सजाया गया था।
सड़क के दोनों ओर दीपों की कतारें थीं। हर चौक पर रंगोली सजी हुई थी। सारा कस्बा
वसंत में उद्यान की तरह रंग-बिरंगे फूलों से सँवरा था। दूर से देखा हवेली दुल्हन की
तरह छोटे-छोटे रंगीन बिजली के बल्बों से जगमगा रही थी। जगह-जगह रंगीन काग़ज़ की
झंडियाँ, रंगे हुए सूत की मालाएँ और ताज़े फूलों की लतरने लगी थी। गुलाबजल और इत्र
की सुगंध में पूरा वातावरण महक रहा था। घर में सब व्यस्त थे। उसकी ओर कोई देख तक
नहीं रहा था। चाची को जाते हुए ज़बरदस्ती घेर लिया था।
'यह सब क्या हो रहा है?'
'क्या हो रहा है? विवाह शादी के घर में जो भी होता है।'
'शादी-ब्याह? किसका विवाह है यहाँ?' चाची ने कमर पर हाथ रख कर आँखें तरेर कर कहा
था।
'हमसे पूछ रहे हो लल्ला?' और वह हाथ झटक कर भीतर चली गई थी। मंजू उसकी चचेरी बहन
थी। सामने आ खड़ी हुई थी।
'पिता ने रुक्का भेजा था। वे बीमार हैं। यहाँ यह सब क्या हो रहा है मेरी कुछ समझ
में नहीं आ रहा।'
'ताऊजी बिल्कुल ठीक हैं। अब समझने को कुछ नहीं बचा भैया। समझो सब समाप्त हो गया।
मेरा मतलब जो आपका पिछला था उसे भूल जाओ।'
'अब सोचने, पूछने और समझने को क्या रह गया लल्ला।' चाची आ गई थी। 'सब कुछ पहले से
ही हो चुका है। बारात आज ही दो घंटे बाद जानी है। जानी भी
क्या है? शादी के फेरों का प्रबंध भी भाई जी ने ही हवेली के दूसरे हिस्से में किया
है। अपने राम जी लाल की लड़की है सुनयना। विवाह का सारा खर्चा भी भाई जी ही कर रहे
हैं। राम जी लाल बहुत घबराया हुआ था। कहता था, 'ठाकुर हम साधारण लोग हैं। हमारे पास
देने लेने को कुछ नहीं। फिर आप कहाँ हम कहाँ? पर लल्ला भाई जी की बात को कभी कोई
टाल सका है। उन्होंने राम जी लाल को कहा था, बस राम जी लाल अपने घर की इज़्ज़त को
हमारे घर की इज़्ज़त बनने दो, और कुछ नहीं करना है। लड़की हम एक जोड़े में लेकर
आएँगे। पूरे मान-सम्मान और आदर के साथ। हमारा एक ही एकलौता बेटा है। तुम्हारी बेटी
को राम जी लाल ने अपनी पगड़ी भाई जी के चरणों पर रख दी थी।'
'ठाकुर आप हमारे. . .' उन्होंने उसे रोका था।
'बस करो और कुछ नहीं कहना। घर जाओ और विवाह की तैयारी करो।'
पिता ने उसे भीतर बुलाया था, 'आओ संजय, बैठो हमारे
पास। हम सब जीवित हैं मार या जला नहीं दिए गए यह देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई
क्या?' वे रुके थे, फिर कहा था, 'मैं अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहा हूँ। तुम दिन रात
अस्पताल में काम करोगे, तुम्हारा घर और तुम्हारी देखभाल कौन करेगा! फिर पितृऋण तो
तुम्हें चुकाना ही है। घर की, समाज की व्यवस्था में और धर्म की न्यायिक संहिता में
जुबैदा का संजोग तुम्हारे साथ नहीं हो सकता।'
'तो भी एक बार जुबैदा से मिल कर बात करना चाहता हूँ।'
'किसलिए? क्या बात करोगे। हमारी चिता की आग पर उससे ब्याह रचाओगे अभी जो हुआ है वह
कम है क्या? अब सोचने का समय नहीं है। जाओ नहा-धोकर तैयार हो जाओ। तुम्हारे कमरे
में विवाह का जोड़ा रखा है। ताबेदार तुम्हारे इंतज़ार में खड़े हैं।'
फिर भी उसने किसी तरह अनीसा को भेजकर जुबैदा का
पता लगाया था। वह वहाँ नहीं थी। पिता के कड़े अनुशासन में सब अपनी-अपनी जगह अलग-अलग
एक दूसरे के साथ खड़े थे। पिता के आतंक ने उन्हें एक सूत्र में पिरो रखा था। वह अवश
हो गया था और उसका भीतर मूर्छित हो गया था। उसी मूर्छा में वह सब कर रहा था। कर
नहीं रहा था उसके साथ हो रहा था। कठपुतली की तरह हिलता-डुलता रहा था। विधिवत
मंत्रोच्चार की ध्वनियों के साथ वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ था। घर की सारी
स्त्रियों के बीच माँ की कमी उसे बहुत कष्टकर लगी थी। माँ होती तो शायद उसकी पीड़ा
को समझ सकती थी। स्मृति में माँ साकार हो गई थी।
उसकी उपस्थिति में घर में कैसी हलचल-सी रहती थी।
पूरा घर स्पंदित होता था। तंबई रंग की काया वाली माँ की हँसी केसर की क्यारी में
खिलते फूलों-सी थी। वह उससे लाड़ लड़ाती थी, बहलाती थी और उसके शरीर से ममता की
भीनी सी सुवासित गंध बिखरती रहती। पर कभी-कभी वह अचानक किसी दूसरी स्त्री में
परिवर्तित हो जाती, थपथपाते हुए उसके हाथ रुक जाते। वह किसी दूसरे परिदृश्य में
अदृश्य हो जाती थी। माँ कहाँ गई। माँ कब और कैसे मरी किसी को नहीं पता। उन दिनों घर
में स्वेच्छा से साँस लेने की, फुसफुसाने की भी मनाही थी। उसके लगातार रोते रहने और
ज़िद करने पर दादी ने ही एक बार कहा था, 'मर गई तुम्हारी माँ। कर्मजली वह थी ही इसी
लायक। यही होना था उसका।' घर में और कस्बे में कई तरह की धीमी ध्वनियाँ, दबी
अस्पष्ट आवाज़ों और कानाफूसियों से अलग करके पिता ने उसे शहर में हॉस्टल वाले स्कूल
में दाखिल करा दिया था।
तब वह नवीं कक्षा में था। उसे लगा था आज उसकी
आँखों के सामने से बदली छट गई थी। क्या माँ ने भी किसी से प्यार किया था? जिसकी
सज़ा उसे दी गई थी। उसने पिताजी की आवाज़ की धमक के साथ माँ के चेहरे पर मरघट की
वीरानी उस छोटी उम्र में ही पहचान ली थी। पिता की उपस्थिति में वह वर्षा से गीले
पक्षी सी सिकुड़ी निचुड़ी रहती। आशंकित-सी दूसरे ताबेदारों की तरह खड़ी रहती गर्दन
झुकाए। माँ पिता से पंद्रह वर्ष छोटी थी। फिरकनी-सी नाचती माँ पिता के सामने पड़ते
ही थिर हो जाती।
सुनयना से प्रथम भेंट हुई तो आश्चर्य के साथ उसे
दुख हुआ नाबालिग कमसिन-सी लड़की बैठी थी। गहनों कपड़ों में लदी-फदी गठरी-सी बनी।
गर्मी से परेशान और जो हुआ था उससे अनजान। विवाह की लंबी रस्मों से पस्त और लस्त।
उसके आने की उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। वह कुछ देर असमंजस से घिरा खड़ा
रहा। उसने उसे कंधों से हिलाया था, 'जाओ गुसलखाने में जाकर नहा आओ। यह भारी भरकम
कपड़े गहने उतारो। कुछ हल्का पहनो। अच्छा लगेगा तुम्हें।'
वह यंत्रवत उठी थी। नहा चुकी तो पहनने के लिए उसके
पास हल्का सादा कुछ नहीं था। वह बाथरुम में खड़ी रही। बहुत देर तक बाहर नहीं आई तो
पूछा था इस समय यही संभव था। उसने अपना कुर्ता और तहमत जैसे दे दिया था। वह बाहर आई
थी सकुचाई हुई-सी। कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर गिरी और सो गई थी।
पिता ने शहर में उसके लिए एक बड़ा-सा मकान ख़रीद
दिया था। पंद्रह दिन बाद ही सुनयना नाम की पोटली और उसके साथ ताबेदार औरत को लेकर
वह शहर आ गया था। इसमें भी पिता की विवेकबुद्धि सक्रिय थी।
वह डयूटी पर, हर वार्ड में हर सफ़ेद पहने
स्टेथेस्कोप लिए जाती लड़की में जुबैदा को ढूँढ़ता था। जुबैदा अब तक क्यों नहीं
लौटी? क्या वहीं कस्बे में उसे रोक दिया गया है या उसने किसी दूसरे शहर में नौकरी
कर ली है। उसने पता लगाने की भरसक कोशिश की थी। लेकिन कुछ भी पता नहीं चल सका। वह
हताश हो चला था - उस दिन ऑपरेशन टेबल पर डाक्टर और नर्सों के मुँह पर बँधे मास्क के
ऊपर जुबैदा की आँखों को ढूँढ़ रहा था। आँखें झुकाता तो जुबैदा की उँगलियों को खोजने
लगता था। डॉ. शर्मा ने ऑपरेशन रोक कर कहा था, 'डॉ. संजय ठाकुर आपकी तबीयत ठीक नहीं
है। प्लीज गो एंड टेक रेस्ट।' और उसकी जगह ऑपरेशन को सँभाल लिया था। वह अपमानित और
विखंडित-सा ऑपरेशन थियेटर से निकल आया था। मास्क, दस्तानें, चप्पलें उतार कर जूते
पहने और बाहर आ गया था।
सुनयना घर में क्या करती थी, उसे पता नहीं था।
उसकी सहायता के लिए ताबेदार औरत थी। वह कब जाता है कितने बजे आता है क्या करता है
उसके साथ बैठता बतियाता क्यों नहीं उसने कभी कोई सवाल नहीं पूछा। वह ग्यारह बजे भी
घर पहुँचता तो मेज़ पर खाने की थाली सजाए सिर रखे आधी सोई मिलती। वह कई बार उससे कह
चुका था कि खाना खाकर सो जाया करे। पर वह अपने सिखाए या सीखे से विचलन नहीं करती
थी। ना कभी नाराज़ होती, न उसकी किसी बात का विरोध करती। जितनी देर वह घर में रहता
साए की तरह उसके आगे-पीछे डोलती रहती। उसके छोटे बड़े काम सँभालती। उसकी हर सुविधा
का ध्यान रखती। कितनी बार मना करने पर भी वैसे ही लगी रहती थी। अब वह सारा दिन और
देर रात गए तक अस्पताल में ही रहने लगा था। वह घर पहुँचता तो वैसे ही शांत, शालीन,
निर्विकार भाव से उसके लिए तत्पर मिलती। कई बार पिता ने फ़ोन किया था। कस्बे से उसे
लेने के लिए रिश्तेदारों को भी भेजा था। परंतु वह नहीं गई थी। उसने उन्हें वापस भेज
दिया था।
वह घर आया था देखा वह उसकी शाल ओढ़े सोफे पर
सिकुड़ी-सी ऊँघ रही थी। उसकी आवाज़ से चौंक कर उठ बैठी थी। शॉल उतार कर तहाकर रख दी
थी। पहले उसे कुछ समझ नहीं आया था। उसने देखा उसने ब्लाउज़ और धोती पहन रखी थी। उसे
ध्यान आया था शादी को छह महीने हो चुके थे। सर्दियाँ आ गई थी। उसके पास सर्दी के
गर्म कपड़े ही नहीं थे। उसने उसे रोका था। अपराध भाव छिपाने के लिए उसे कहा था -
'गर्म कपड़ा कुछ नहीं पहना?'
वह झिझकी थी। एक बार पलकें उठाकर उसकी ओर देखा था
और आँखें झुका ली थीं।
उसने दोहराया था, 'सर्दी नहीं लगती क्या?'
वह जाने के लिए मुड़ी थी। उसने उसे रोक लिया था। अपनी शॉल ओढ़ाकर उसे बाहों से
घेरकर भीतर ले आया था। उसने उसे बिस्तर पर बैठाया था। वह टाँगे सिकोड़ कर घुटनों पर
चेहरा टिकाकर बैठ गई थी। उसने उसे कंबल ओढ़ाया। कंधों पर छुअन से उसके हाथ काँप गए
थे। ब्लाउज़ से उसकी देह उजास रही थी। उसके भीतर एक दहक-सी उठी थी। उसने देखा छह
महीने में वह छब्बीस साल की हो गई थी। उसके स्पर्श के सम्मोहन से शिथिल-सी उसकी देह
उसकी बाहों में ढल गई थी। वह भी एक निस्पंद चेतना में डूबने लगा था। उसके वक्ष पर
ढलकी उसकी औरत ने उसके उनींदें वृतों को चेताया था। भर सर्दी में खिले चटख सेमल के
फूल-सी वह उसके समक्ष बिखर गई थी। उद्वेलित होकर वह उसके शरीर के वलयों और भवरों
में डूबने लगा था। उसकी देह से हुलसता उफान हिलोरे ले रहा था। उसका शरीर ऐंठ रहा
था। छाती में हफन बढ़ रही थी। उसके शरीर की सतह पर पानी पर रखे पत्थर की तरह वह
नीचे तल्ले में उतर गया था। उस अर्द्धचेतन स्थिति में वह बड़बड़ा रहा था ज़ुबैदा
ज़ुबैदा ज़ुबैदा तुम. . .। उसकी बुदबुदाहट को सुनकर किनारे को भिगोकर गई लहर के बाद
सूखे रेत-सी अतप्त और आहत वह थर्राई-सी लेटी रही थी।
अगले दिन अस्पताल जाते हुए मार्केट में रुक कर वह
स्वैटर, गर्म ब्लाउज़, शालें ख़रीद कर ले आया था। घर आया तो वह धूप के एक चकत्ते पर
बैठी उसके कुर्ते में बटन टाँक रही थी। लिफ़ाफ़े पकड़ते हुए उसके ओंठ काँपे थे,
'पता नहीं तुम्हें क्या पसंद है।' वह झिझका था।
'अच्छा चलता हूँ अब।'
वह उसके पीछे दरवाज़े तक आई थी। खुले दरवाज़े से
उसे जाते हुए देखती रही थी। उसी दिन उसने अपना अकाउंट उसके साथ ज्वाइंट करवा लिया
था ताकि उसे सुविधा रहे।
उस दिन के बाद से वह फिर से अपनी स्टडी में ही सोने लगा था पहले की तरह। उन दोनों
की अपनी-अपनी दुनिया थी। न वह उसकी दुनिया में आने का साहस करती और ना ही वह अपने
बीहड़ से बाहर आया था। वह सुबह अस्पताल जाता, देर रात को लौटता। काम और सिर्फ़ काम।
यह भी उसका पलायन था। एक शून्य से दूसरे शून्य की यात्रा जैसा। अचानक अस्पताल में
उसके कमरे में आकर डॉ. धवन ने बधाई दी थी।
'बाप बनने वाले हो। रिपोर्ट पॉजिटिव है। मिसेज
ठाकुर आई थीं। कमज़ोर है कुछ विटामिन वगैरह लिख दिए हैं। तुमने बताया भी नहीं। ख़ैर
टेक केयर ऑफ हर।'
वह आहत हुआ था। अपने आश्चर्य को भीतर दबाए वह अपनी पुलक के अहसास को भी भूल गया था।
पता नहीं समय कैसे बीता था। पौ का फटना, अंधेरे को चीरती सूरज की किरणें हवा में
घुल आई फुरफुरी, ऋतुपर्णी वृक्षों में लटके पीत पत्तों की तहों से फूटते रक्तिम
प्रस्फुटन को उसने किसी को नहीं देखा था। किसी को नहीं महसूसा था।
वह सुबह तैयार होकर जाने लगा था तो भी वह खड़ी रही थी। धीरे से बोली थी, 'जा रहे
हैं आप?'
'हाँ' यह भी कोई सवाल है। उसने सोचा था।
'आप कब आएँगे?' उसने पूछा था, ''कुछ चाहिए क्या?'
उसने आँखें उठाई थी, 'नहीं!' दाँतों से ओंठ दबा कर उसकी ओर बिना देखे वह भीतर चली
गई थी।
उसी दिन शाम को वह ऑपरेशन थियेटर से बाहर आया तो
डॉ. शर्मा आया था प्रफुल्लित-सा, 'बधाई हो डॉ. ठाकुर। जुड़वाँ लड़के हुए हैं।' वह
सन्न रह गया था लेकिन सकपकाया था वह।
'आप ऑपरेशन थियेटर में थे। अंबुलेंस भेज दी थी। हाउस मेड थी उसके पास। शी इज़ फाइन।
आप उन्हें मिल सकते हैं। रूम नं. 14 है मेटरनिटी वार्ड का।'
उसने उनका नाम जुबिन और असद रखा था। पिता बहुत
नाराज़ हुए थे। वे आए थे और विधिवत धार्मिक रीति से उनका नाम संस्कार करा गए थे
अर्जुन और कार्तिक। लेकिन तो भी वह उन्हें अपने ही दिए नामों से बुलाती थी। एक दिन
उसने कहा था, 'इन्हें इनके नाम से बुलाया करो।' वह रुकी थी, आँख उठाकर देखा था
इन्हीं के नाम हैं ये।
'कैसे?' उसने चुनौती-सी देती दृष्टि से उसे देखा था फिर जाने लगी थी।
उसने उसे रोका था, सख़्त-सी आवाज़ में कहा था, 'इनका विधिवत नाम-संस्कार हुआ है।
इनके नाम. . .'
वह एकदम उसके सामने खड़ी थी। उसकी गर्दन तनी थी।
वह जानता था उसमें प्रतिरोधक शक्ति नहीं थी। लेकिन दूसरी बार उसने महसूसा था। उसमें
अपनी तरह एक ज़िद थी। वह ज़िद उसकी शक्ति भी थी और विरोध भी। उसने एक साँस में
वाक्य पूरा किया था और चली गई थी।
'आप उस दिन मेरे साथ नहीं थे। आप जुबैदा के साथ थे।'
हाथ से छूटे बर्तन की तरह वह झन्न से ज़मीन पर
गिरा था। उसे लगा था किसी ने उसे चाबुक मारा हो। अपने प्रति अन्याय का यह उसका
प्रतिकार था।
दो बच्चों के बीच वह बहुत व्यस्त हो गई थी वह अधिक से अधिक समय तक अस्पताल में ही
रहता था। वह घर आता तो बच्चे सो चुके होते। जाग भी रहे होते तो वह उनके बीच से निकल
कर पहले की तरह उसके पास आती थी और उसके काम सँभालती थी। बच्चे बड़े हो रहे थे। घर
से बाहर वह उनकी कूद-फाँद, भागा-दौड़ी, हँसी के ठहाके सुनता पर जैसे ही भीतर आता सब
ठहर जाता। घर में उसकी चुप्पी का आतंक छा जाता! इसीलिए बच्चों और उसके बीच भी
सामान्य रिश्ता नहीं बन पाया था। स्कूल में उनके नाम अर्जुन और कार्तिक थे पर घर
में वह उन्हें जुबिन और असद ही कहती थी। पिता जब भी आते घर में हंगामा होता। वह
खामोश दोनों बच्चों को समेटे कमरे में बैठी रहती। परास्त हो पिता लौट जाते थे।
वर्षों तक वह मनुष्य देहों को काटता-सीता रहा। खून
मज्जा से सने दस्ताने उतारता रहा और हाथों को कई-कई बार चिलमची में धोता रहा।
दूर-दूर तक उसका नाम और यश फैला था। उसकी चुप्पी और प्रतिभा का आतंक था। वह अपनी
कीर्ति के गुरुत्वाकर्षण से नीचे और नीचे धँसते गया था। उसे नहीं पता बच्चे कब बड़े
हुए। स्कूल कॉलेज में पहुँचे। उन्होंने प्रोफ़ेशनल कोर्स किए। उसी ने उन्हें अपनी
निस्वार्थ ममता की हवा, पानी और धूप से सरसाया। बच्चों के विकासक्रम में प्रकृति के
खुलते रहस्यों को उसने नहीं देखा। नवजात बच्चों की आँखों में त्वरित चंचलता, ध्वनि
तरंगों से तरंगित उनके अंग प्रत्यंगों की लय और बिना आवाज़ मुठ्ठियों का खुल जाना
उसने नहीं जाना। पर्वतों से फूटते जलप्रपातों-सी उनकी हँसी उसने नहीं सुनी। चंचल
शैशव के आलोड़न से वह वह वंचित रहा। धूप-सी उनकी निर्द्वंद्व निष्पाप और निर्दोष
आत्मा से वह भासित नहीं हुआ। बच्चों के समक्ष चेतना जगत के उलझे रहस्यों के खुलने
की प्रक्रिया से वह अभिभूत नहीं हुआ। पुस्तकों के माध्यम से यथार्थ जगत में उनका
प्रवेश कब हुआ, उसे नहीं पता। कहानियों, कथाओं द्वारा समाज, संस्कृति, इतिहास,
परंपराओं, रीतियों, नीतियों का ज्ञान जीवन और जगत के यथार्थ की पहचान उसने उन्हें
नहीं कराई।
वह एक उजास भाव से, चेतना और प्रफुल्ल भाव से
जुड़ी रही थी उनसे। उसी ने उनका पालन-पोषण किया, उन्हें शिक्षा दी, अपने मूल्य और
मान्यताओं द्वारा उन्हें एक संस्कारित व्यक्तित्व प्रदान किया। उनके व्यक्तित्व के
निर्माण में उनके शारीरिक विकासक्रम में घटित होती दृश्य स्थितियों के साथ उनके
मस्तिष्क के कंप्यूटर में घर में उसकी अनुपस्थिति और उपेक्षा की प्रोग्रामिंग भी
हुई होगी। उनके मनों में प्रश्नों के और शंकाओं के कितने काँटे चुभे होंगे। उनके
निराकरण का अवसर उसे कभी मिलेगा क्या? उनके चेहरों के भोलेपन के बीच से उद्भासित
होती समझ को नहीं जाना उसने। इसीलिए वे कभी कोई समस्या, कोई प्रश्न लेकर उसके पास
नहीं आते थे। वही आती थी।
हर महत्वपूर्ण फ़ैसले से पहले छोटे-छोटे वाक्य
खंडों में बात कहती थी। बच्चों का दाखिला है। परीक्षाएँ हैं उनकी, बोर्ड का इम्तहान
हैं। कौनसा कोर्स लें, इसकी बातें करते हैं वे। बच्चों की परीक्षा का परिणाम आया
है। जुबिन ने आई. आई. टी.में दाखिला ले लिया। असद कंप्यूटर साइंस कर रहा है
यूनिवर्सिटी से। फिर बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए लौट जाती थीं। उसके पास समय
ही कहाँ था। देशविदेश में लेक्चर, सेमिनार, कंसलटेंसी के साथ ही अस्पताल का निदेशक
बन जाने के साथ प्रशासन का काम भी उसी का दायित्व था। छुट्टी वाले दिन भी वह घर पर
नहीं होता था। समय मिलता तो भी लाइब्रेरी में अपने प्रोफेशन को लेकर आधुनिकतम
जानकारियाँ एकत्रित करता बैठा रहता।
वह कुछ नहीं कहती थी तो अपने बारे में नहीं कहती
थी। उनके आपसी संवादों के टुकड़ों से उसे सूचना मिलती थी 'मम्मी ने प्राइवेट बी. ए.
कर लिया। आज मम्मी का एम. ए. का रिज़ल्ट आया है।' पुरानी गाड़ी बेचने की बात चली तो
ड्राइवर ने बताया पुरानी गाड़ी मेमसाब ले जाती हैं बच्चों के काम से। उसे नहीं पता
उसने कब गाड़ी चलाना सीखा। समानांतर भागती रेल की पटरियों की तरह ज़ुबैदा ज़िंदगी
भर उसके साथ भागती रही थी। अपनी अनुपस्थिति में भी बनी रही थी।
ज़ुबैदा उसके जीवन से अचेतन हुई ही नहीं थी। चेतन
में ही प्रवाहित होती रही थी। वह उसकी प्रेरणा बनने की अपेक्षा जीवन विरोधी जड़ता
में व्याप्त गई थी। उसके भीतर अदृश्य शक्ति नियति को नहीं माना। अदृश्य द्वारा
निर्धारित जीवन में प्रतिफलित होते उलझे अनुत्तरित रहस्यों को नहीं समझा। परिवर्तन
और आवर्तन की प्रक्रिया में पल-पल वाष्प बनते, बादलों में घिरते, रिमझिम बरसते
समुद्र को नहीं देखा। पर्वत चोटियों से फिसलते जलप्रपातों, और नदियों में बहते
समुद्र को नहीं पहचाना। वर्षा की बूँदें उसके घर आँगन की तपती भूमि पर बरसती सूखती
रहीं। न वह खुद भीगा न उसे सराबोर होने दिया। वह सूरज को पकड़ने की कोशिश में
झुलसता रहा और सुनयना अंधेरों में उजाला फैलाती रही।
जीवन की सुख लालसाओं से परे पूर्ण प्रबुद्ध शक्ति
रूप यह स्त्री जीवन कर्म में सतत संलग्न सतत सचेष्ट कर्मरत रही। पर उसकी तंद्रा
नहीं टूटी। उसके अंतर्मन पर रात का अंधेरा डैने फैलाए रहा। उसने सुनयना की ज़िंदगी
को बीहड़ बना दिया। जो दुख और संग्राम उसने भोगा वह उसी का था पर सुनयना ने क्यों
सहा सब? क्यों बिना अधिकारों के कर्तव्य की डोर से बँधी रही? किस अपराध का दंड पाया
उसने? उसने न अपना रवैया बदला, न वरीयताएँ बदली। जीवन भर अहंकार और पराजय भाव से
जीता रहा। सुनयना में एक सतर्क खामोशी थी वह कभी असहाय या असमर्थ नहीं लगी थी।
हमेशा संयमित, संतुलित और स्वैच्छिक। क्या उसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं थी? उसकी
कामनाएँ, इच्छाएँ और लालसाएँ नहीं थी? इन्हीं इच्छाओं के लिए पिता ने माँ की हत्या
करवाई थी। पर उसने क्या किया? क्या वह भी उसे तीस साल तक मारता नहीं रहा। क्या
उत्पीड़न शारीरिक ही होता है?
जुबिन आस्ट्रेलिया चला गया था। तीन साल पहले उसने
वहीं एक विदेशी मूल की लड़की से शादी कर ली थी। सुनयना गई थी सप्ताह भर के लिए और
लौट आई थी। असद अभी बंगलौर में था। बच्चों के चले जाने के बाद वह क्या करती थी?
उसने कभी नहीं सोचा। शून्य में ताकती उसकी आँखों की उदासी को उसने नहीं महसूसा।
अपने खालीपन को कैसे भरती होगी? उसने कभी जानने की कोशिश नहीं की। एक दबी-सी इच्छा
लिए उसने जुबिन से शुरू में पूछा था कि वह डाक्टरी के प्रोफ़ेशन में जाना चाहेगा।
उसके चेहरे पर वितृष्णा के भाव थे। वह जान गया था कि दोनों बच्चों को डाक्टर के
प्रोफ़ेशन से सख़्त चिढ़ थी। वे क्या करना चाहते थे। यह जानने का अधिकार शायद उसने
अर्जित नहीं किया था। बच्चों की माँ और बाप दोनों सुनयना ही थी। घर की दीवारें और
आर्थिक देय भर उसका योगदान था। सुनयना के कारण ही दीवारें और छतें घर का रूप धारण
किए थे। आज उसे लगा था शायद अस्पताल में दिन रात काम करने के पीछे भी सेवा की
अपेक्षा उसका अहंकार था। वास्तविकता से पलायन था।
उसके भीतर एक भीरु पुरुष था। उसके यश का आतंक उसके
अहं को ही भासित करता रहा था। स्मृतियों के जंगल में भटकती-अटकती उसकी तीस वर्ष की
जीवनयात्रा। उसकी आँखें भर आई थीं। असंख्य टूटे, बिखरे विचारों, भावों, सवालों और
समय का समुद्र उसके भीतर दहाड़ रहा था। इस समय सारे दृश्य, चित्र, आकृतियाँ, धुँधली
स्पष्ट आवाज़ें और चुप्पियाँ उसके मस्तिष्क में उजागर हो रही थीं। अतीत का सम्मोहन
और व्यामोह टूट गया था।
उसे लगा था कि अपने यश और सफलता के घोड़े पर सवार
सरपट भागता उसके अहं का सवार अचानक औंधे मुँह गिर पड़ा था। समय के पहियों में धँसा
फँसा उसके तीस वर्षों का क्षत-विक्षत जीवन। डूबती हुई नाव से बचाव के लिए हाथ उठाते
हुए उसने अचानक जॉर्ज को पुकारा था, 'गाड़ी रोको।'
अचानक दिए गए आदेश से क्री-क्री करती ब्रेक की
आवाज़ के साथ जॉर्ज ने बाईं तरफ़ लेकर गाड़ी रोक दी थी। वह गाड़ी से उतरा था। कई
फूल वाले साथ-साथ बैठे थे। वह उनके पास रुका था। फूलों का दाम पूछा था। पाँच रुपए
का गुलाब पचास रुपए में दे रहा था। वह असमंजस में था, फूलवाले ने उसका चेहरा देखा
था। सोचा होगा यह कनपटियों पर सफ़ेद बालों वाला आदमी शायद इतना व्याकुल नहीं होगा।
घंटे दो घंटे में सब समाप्त हो ही जाएगा। उसने पूछा था, 'आप क्या देंगे?', फिर खुद
ही बोला था, 'जो ठीक समझें दे दीजिए। चलिए आपके लिए 20 रुपए ही लगा देता हूँ।' वह
उठकर फूल निकालने लगा था। 'और क्या लगाऊँ साब- कार्नेशन तो लगेगा ही, गिलोडिया कौन
से रंग का लगा दूँ। साब टोकरी में लगाऊँ या बुके बना दूँ। टोकरी ही अच्छी लगेगी
साब।'
वह स्वयं ही सवाल करता और स्वयं ही उत्तर की शक्ल
में फूल निकालकर सजाने लगा था। टोकरी उसने गाड़ी में रखी थी। पैसे लिए थे। सलाम
ठोका था।
गाड़ी पार्क करके मन पर भारी बोझ लिए पैर घिसटते से वे आए थे। बारह बजने को थे। 14
फरवरी के आख़िरी आठ दस मिनट थे। उसके अधीर से हृदय में घबराहट हुई थी। पैर थोड़े
लड़खड़ाए-से थे। सुनयना कहीं सो तो नहीं गई होगी। उसने घंटी पर उँगली रखी तो
अंतर्मन में भीतर आवेग की एक लहर-सी उमड़ी थी। सुनयना ने दरवाज़ा खोला था। टोकरी
पकड़े उसके हाथ काँप रहे थे। घबराहट में उसने फूलों की टोकरी सुनयना के हाथों में
खिसका दी थी।
'यह तुम्हारे लिए।' सुनयना की पथराई-सी आँखें उठी
थीं। आश्चर्य से उसका मुँह खुला रह गया था। वह अविश्वास के इस पल में स्थिर हो गई
थी।
उसका गला रूँध गया था आज, 'आज वैलेंटाइन डे है न।'
वह उसे देख रही थी जैसे पहली बार देख रही थी। उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी।
अपराधभाव उसके भीतर को कचोट रहा था। वह सामने झुका था और उसके पैर छुए थे।
'मुझे माफ़ कर देना सुनयना।'
वह घबराकर पीछे हट गई थी। उन्होंने अपना सिर उसके
कंधे पर रख दिया था। उनका शरीर उसके अंक में शिथिल होकर सिमट गया था। तीस साल का
भीतर जो जमा था वह पिघल रहा था। छोटे बच्चे की तरह अवश वह उसकी छाती से चिपक गया
था। आश्वासन-सा देती हुई वह उसके बालों को अपनी उँगलियों से सहला रही वत्सल भाव से
उसे धीरे-धीरे थपथपा रही थी। स्फटिक शिला-सी वह माँ के, ज़ुबैदा के और सुनयना के
विभिन्न रंगों में प्रतिभासित होती लगी थी।
वह कातर-सा छटपटा रहा था, 'तुम मुझे क्यों क्षमा करोगी? फिर क्षमा देने से भी क्या
होगा? बसंतोत्सव तो बीत गया। कैसे लौटा पाऊँगा तीस वर्षों का खोया तुम्हारा सब?'
उसका सहलाता हाथ रुका था अप्रत्याशित रूप से वह
हँसी थी। उसके चेहरे पर उजास की एक लपट-सी लपकी थी।
लेकिन जो शेष है समक्ष है उसकी संपन्नता के लिए ऐसे निर्वैयक्तिक और जीवंत बोध।
सृष्टि में रिक्तता का कोई विधान ही नहीं है। वह यों ही इतने वर्ष छाया के पीछे
भागता रहा था। आर्द आँखों के धुंधलके में उसे लगा था उसके समक्ष जो प्रकट है वह
उसकी मर्त्य असंगतियों में संगति लाने हेतु है। वह उसके सारे भय, मोह द्वंद्वों,
कष्टों के कलुष और दुविधाओं के उच्छिष्ट को बहा ले जा सकती है। पूर्ण प्रबुद्ध जीवन
के साक्ष्य में वह अकाटय सत्य की तरह उपस्थित थी। उसे बोध हुआ कि वह मात्र शब्दरूप
है और सुनयना उससे निसृत अर्थ। जीवन को सार्थकता देता अर्थ।
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