कल वसंतोत्सव था। कवि वसंत के
आगमन की सूचना पा रहा था -
प्रिय, फिर आया मादक वसंत।
मैंने सोचा, जिसे वसंत के आने का बोध भी अपनी तरफ से कराना पड़े, उस प्रिय से तो
शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति-विज्ञान पढ़ाएँगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि
को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसंद आता है।
कवि मग्न होकर गा रहा था -
'प्रिय, फिर आया मादक वसंत !'
पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अंत 'हा हंत' से होगा, और हुआ।
अंत, संत, दिगंत आदि के बाद सिवा 'हा हंत' के कौन पद पूरा करता? तुक की यही मजबूरी
है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरंभ चाहे 'वसंत'
से कर लो, अंत जरूर 'हा हंत' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने
लोग भी, इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते
चलते है। और 'वसंत' से शुरू करके 'हा हंत' पर पहुँचते हैं। तुकें बराबर फिट बैठती
हैं, पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल
ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमंत्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की,
उसकी तुक शुद्ध सर्वोदय से मिलाई - 'सोना दबानेवालो, देश के लिए स्वेच्छा से सोना
दे दो।' तुक उत्तम प्रकार की थी, साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और
नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे? कब बेतुका चलने
की हिम्मत करेंगे?
कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हंत' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तेरे की!'
सात तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम से कम इक्यावन तुकें बाँधते। नौ
तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बाँधी हैं। (देखो 'यशोधरा' पृष्ठ १३) पर तू मुझे क्या
बताएगा कि वसंत आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसंत ने मेरा दरवाजा भी
खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा - 'कौन?' जवाब आया - मैं वसंत।
मैं घबड़ा उठा। जिस दुकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसंतलाल है।
वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे! इसका नाम
पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसंत अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन
आनंदकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जाएगा
और अमृतलाल जल्लाद फाँसी पर टाँग देगा!
वसंतलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसंत निकलता होगा, तो वह
सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं!
इस वसंतलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।
मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। आँखें झँप गईं। मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक
हुई। मैंने पूछा - कौन? जवाब आया - 'मैं वसंत!' मैं खीझ उठा - कह तो दिया कि फिर
आना। उधर से जवाब आया - 'मैं। बार-बार कब तक आता रहूँगा? मैं किसी बनिए का नौकर
नहीं हूँ, ऋतुराज वसंत हूँ। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूँ और तुम फिर सोते मिले
हो। अलाल, अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूँठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे
सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव-भाव कर
रही है - और बहुत भद्दी लग रही है।'
मैने मुँह उधाड़कर कहा - 'भई, माफ करना, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही
विडंबना है कि ऋतुराज वसंत भी आए, तो लगता है, उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो
मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठंड बहुत लगती है। वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा,
जाते-जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़-खाबड़ चेहरों को चिकना
कर देते हो, 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक
करते जाना, उखड़ गई है।
उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुंदरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है,
उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला
गया।
मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया।
हजारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं, टनों कवि-कल्पनाएँ जमी हैं।
सोचा, वसंत है तो कोयल होगी ही। पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनाई दी। सामने की
हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'काँव-काँव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौआ - मेरी
सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक
परंपरा ने कौए को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का संदेसा
देने वाला माना जाता है। सोचा, कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का
सगुन न बता रहा हो। मैं विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता, पतिव्रताओं से तो
बहुत डरता हूँ। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच
मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया, तो
कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले
सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा, प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है।
लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या? नायिका लजाकर कहेगी, उस कौए की चोंच मढ़ाना है,
जो कल सबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था। तब नायक कहेगा, प्रिय, तुम बहुत भोली
हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थोड़े ही बनाता है, वह कौआ बनाता है जिसे हम
'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो?
हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से
चोंच मढ़ाते हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं
की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल
लेंगे। प्रिये, वही बड़ी गलत परंपरा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर
कौए की चोंच सुंदरी खुद सोना मढ़े। नायिका चुप हो जाएगी। स्वर्ण-नियंत्रण कानून से
सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने १४ केरेट के सोने से
चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ
फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूँ, तब से, जब इसने सीता के पाँव में चोंच
मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाए। इसी समय
इंद्र का बिगड़ैल बेटा जयंत आवारागर्दी करता वहाँ आया और कौआ बनकर सीता के पाँव में
चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगड़ैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं।
यह कौआ भी मुझसे नाराज है, क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले
बना लेने दिया है।
पर इस मौसम में कोयल कहाँ है? वह
अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसंत में कौए की
बन आई है। वह तो मौकापरस्त है, घुसने के लिए पोल
ढूँढ़ता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और
इधर हर ऊँचाई पर कौआ बैठा 'काँव-काँव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास
पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, 'हाय, अब वे अमराइयाँ यहाँ कहाँ है कि
कोयलें बोलें। यहाँ तो ये शहर बस गए हैं, और कारखाने बन गए है।' मैं कहता हूँ कि
सर्वत्र अमराइयाँ नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर
अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और
हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा
साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया, वह
छाया कैसे बँटाएगी? जब हम अमराई बना लेंगे, तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक
तो कौए अमराई पर कब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें,
पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूँ। चौराहे पर
पहली बसंती साड़ी दिखी।
मैं उसे जानता हूँ। यौवन की एड़ी
दिख रही है - वह जा रहा है - वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं
तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी' - (निराला)।
उसने वसन वासंती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी
उसके साथ है। वसंत का अंतिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने माँग में बहुत-सा
सिंदूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी
माँग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में
ठसक और ताना है, जैसे अँगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह
क्या? वह ठंड से काँप रही है और 'सीसी' कर रही
है। वसंत में वासंती साड़ी को कँपकँपी छूट रही है।
यह कैसा वसंत है जो शीत के डर से काँप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने - ' सरस
वसंत समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह
रहा। यह उत्तर से बर्फीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फीली हवा ने
हमारे वसंत का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत-सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें
सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जाएगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की
साजिश! इसी बर्फ की हवा ने हमारे आते वसंत को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि
वसंत आएगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गई है, तो क्या वसंत बहुत पीछे होगा? वसंत
तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तर से
शीत-लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में
हमारा वसंत फँसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसंत सिकुड़ता जा
रहा है।
मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी।
मौसम के इंतजार से कुछ नहीं होगा। वसंत अपने आप नहीं आता, उसे लाया जाता है। सहज
आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसंत नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नए पत्ते तो
वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसंत यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से
जो जितना वसंत निकाल सके, निकाल ले। दो पाटों के बीच में फँसा है, देश का वसंत।
पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे
ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत। |