इस सप्ताह होली विशेषांक
में—
कहानियों के अंतर्गत
यशपाल की कहानी
होली का
मज़ाक
पहली
होली पर लड़की जमाई के साथ आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी
लेकर आया था इसलिए बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के
साथ लखनऊ की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा ज़िले
में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का ब्याह था। वे
पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए लखनऊ आए हुए थे। खूब
जमाव था। मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों में अंदाज़ से नमकीन और मिठाई रखी।
जमाई ज्ञान बाबू के लिए बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते
थे। उनके लिए थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के
लिए ट्रे में चाय लगाने लगीं।
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हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत
अशोक चक्रधर की कलम का धमाल
काव्य कामना कामदेव की कोमल कंचन कामिनी
इस
प्रकार हे पाठकों! पांचों युगल मीठी-मीठी गल करते हुए हनीमूनार्थ
प्रस्थान कर गए। चेहरों पर नैसर्गिक चमक के साथ छोटी होली को लौटे। हमारी
श्रीमती जी ने ठण्डाई, कांजी, गुँझिया, दही-बड़े, वग़ैरा और अन्य प्रकार
के वगैराओं से सबका स्वागत किया। वे लोग अपनी कविताएँ सुनाने को मचल रहे
थे। पंचक तो डायनिंग टेबल पर ही शुरू हो गया-- सर! मेरी पनचक्की ने मुझे
ऐसा घुमाया जितना गुरुआनी चक्रधरनी जी ने आपको न घुमाया होगा। प्रारंभ
में यह प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं थी। अब स्थिति ये है कि मैं आपसे
पुन: पूछूँगा कि प्रेम क्या होता है। मैंने कहा- प्यारे पंचक! सब कुछ
सिलसिलेवार बताओ। तुमने प्रेम के बारे में इसे क्या समझाया? साथ में
दही-बड़े भी खाओ।
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संस्मरण में मधुलता अरोरा लेकर आई हैं
कुछ प्रख्यात लेखकों के व्यक्तिगत होली-पल
मैं
यहाँ अहमदाबाद की जिस होली का ज़िक्र कर रहा हूँ, दरअसल ये घटना होली
के दिन की नहीं, शाम की है। स्थानीय अख़बार गुजरात वैभव ने किसी
पार्टी प्लॉट पर रात्रि भोज का निमंत्रण दिया था। मैं और मेरे कवि
मित्र श्री प्रकाश मिश्र भी आमंत्रित थे। वैसे हम दोनों कहीं भी एक
साथ जाते थे तो मेरी मोटर साइकिल पर ही चलते थे, लेकिन उस दिन पता
नहीं कैसे हुआ क उनके स्कूटर पर ही चलने की बात तय हुई। शायद सात आठ
कि.मी. जाना था। जब वहाँ पहुँचे तो कई परिचित मिले। बातचीत होती
रही। खाने से पहले ठंडाई का आयोजन था। मैंने भी लोगों की देखा देखी
दो एक गिलास ठंडाई ले ली।
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ललित निबंध में
प्रेम जनमेजय का आलेख
लला फिर आईयो खेलन होली
उत्सव
हमारी संस्कृति एवं सामाजिक चेतना के जीवंत प्रतीक होते हैं। जीवन की
एकरसता को तोड़ने, सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने मानव को एक सूत्र में
जोड़ने तथा मानवीय संवेदना को सजग रखने में, उत्सवों का विशेष महत्व
है। परंतु जैसे जैसे हमारा जीवन आपा-धापी, भागदौड़ तथा अत्यधिक
व्यस्त जीवन के कारण अपने आप में हो सिमटता जा रहा है वैसे-वैसे
हमारे त्योहार या तो ढकोसला बनकर रह गए हैं या फिर रस्म निबाहने की
विवशता। चारों ओर बढ़ते हुए कंक्रीट के जंगल ने भी हमें प्रकृति से
दूर कर दिया है। वसंत आता है और चला जाता है तथा हम दूरदर्शन के परदे
को घूरते रह जाते हैं। एक कालिदास का समय था कि वह केसर के खेतों के
बीच खड़े प्रकृति के सौंदर्य से मुग्ध होते थे, यहाँ सरसों के फूल भी
नसीब नहीं।
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साहित्यिक निबंध में सुधीर शाह के संग्रह से
कतरनें-
होली - पुराने दौर के समाचार-पत्रों में
हिंदी
पत्रकारिता के दूसरे दौर भारतेंदुयुगीन पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति
में, देश दशा का ही मुखर स्वर जीवंत था। 20 मार्च 1874 के 'कविवचनसुधा'
के 'होलिकांक' में स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में जो 'प्रतिज्ञापत्र'
प्रकाशित हुआ था, उसका अविकल रूप इस प्रकार है। ''हम लोग सर्वांतदासी
सत्र स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी
देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई
विलायती कपड़ा नहीं पहनेंगे और जो कपड़ा पहले से मोल ले चुके हैं और
आज की मिति तक हमारे पास है उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में
लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहनेंगे
हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे।''
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