चारों ओर बढ़ते हुए कंक्रीट
के जंगल ने भी हमें प्रकृति से दूर कर दिया है। वसंत
आता है और चला जाता है तथा हम दूरदर्शन के परदे को
घूरते रह जाते हैं। एक कालिदास का समय था कि वह केसर
के खेतों के बीच खड़े प्रकृति के सौंदर्य से मुग्ध
होते थे, यहाँ सरसों के फूल भी नसीब नहीं, बस की
प्रतीक्षा में बस स्टाप की धूल फाँकनी पड़ती है। क्या
वो समय था जब समस्त दिशाएँ सहकार मंजरी के केसर से
मूर्छमान होती थीं, और भँवरे मधुपान के लिए व्याकुल
बने गली-गली घूमते थे तथा ऐसे में किस प्राणी का मन
उत्कंठा से भर नहीं आता होगा। इसलिए कवि कहता है-
सहकार कुसुम केसर निकर भरा मोह मूर्च्छित दिगंते।
मधुरमुधुविधुरमधुपे मधौ भवेत् कस्य नोत्कंठा?
परंतु आज स्थिति ये है
कि भँवरे मोटर साईकलों पर प्रदूषण की हवा फाँकते हैं
और उबकाई से मन भर जाता है।
एक समय वो था कि जब पूरे वर्ष में दो सौ दिन त्योहारों
के होते थे। ये त्योहार आकर मात्र गुज़र नहीं जाते थे।
अपितु इनकी तैयारी आदि में कई-कई दिन लग जाते थे।
कई-कई त्योहार तो दस ग्यारह दिन तक अपना आनंद बिखेरते
थे। परंतु अब वो सब कुछ शब्दों में ही सिमट कर रह गया
है। हमारी विशाल साहित्यिक परंपरा जैसे उसे सौंदर्य को
अपने आँचल में समेटे हुए हैं। कवियों की संवेदनाएँ आज
भी उस काल की अनुभूतियों को हमारे हृदयों में जाग्रत
करने में सक्षम हैं, उत्सुक हैं पर हम क्या करें हमारी
संवेदना तो बाज़ार की चकाचौंध में अपने प्राण गँवा
बैठी है।
होली इंद्रधनुषी
उत्सव है। इसमें उड़ते गुलाल की रंगत, मौसम का प्यारा
स्पर्श, संगीत की फुहार, मानवीय उल्लास की थिरकन सब
मिलकर एक मनमोहक वातावरण उपस्थित कर देते हैं। साहित्य
में होली के माध्यम से कवि की संवेदनाएँ शब्दों को
जैसे इंद्रधनुष में पिरों देती हैं।
होली का त्योहार पहले
वसंत उत्सव या मदनोत्सव के रूप में जाना जाता था।
कामशास्त्र में 'सुवसंतक' नामक त्योहार का उल्लेख
मिलता है। राजा भोजदेव ने अपने ग्रंथ 'सरस्वती
कष्ठाभरण' में सुवसंतक वाले दिवस स्त्रियों द्वारा कंठ
में कुवलय की माला तथा कान में दुर्लभ आम्रमंजरियों को
धारण करने का वर्णन किया है। मदनोत्सव गुप्त काल का
इंद्रधनुषी उत्सव था जो कालांतर में होली के रूप में
प्रचलित हुआ।
हिंदी साहित्य के
मध्यकाल में होली का विशेष आह्लादकारी वर्णन मिलता है।
रीतिकालीन कवियों का तो यह मन पसंद विषय था। राधा
कन्हाई के सुमिरन के बहाने, उन्होंने अपनी प्रतिभा के
गुलाल की लाली से कविता कामिनी को अंग प्रत्यंग भिगो
दिया है। होली के दिन गोपिकाएँ कृष्ण को घर के अंदर
पकड़कर ले जाती हैं। अपने मन की इच्छा पूर्ण का गालों
पर रोली मलकर तथा पीतांबर छीनकर कृष्ण को चिढ़ाते हुए
फिर होली खेलने आने का निमंत्रण देती हैं।
फागु की भीर, अभीरिन
ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन
रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ''लला फिर आइयो खेलन होरी।``
होली के रंग में डूबे नायक-नायिका उत्सव का आनंद उठा
रहे हैं परंतु उनकी क्या कहें जो वियोग की अग्नि में
जल रहें हैं। ये रंग बिरंगा उत्सव उनके विरह को और
बढ़ा रहा है। कवि वृंद ने विरहिणी के हृदय की पीड़ा को
समझा है, तभी वो कह उठते हैं
आँखें अनियारी
पिचकारी न्यारी छुटी रही।
नीर भीर भरयो उभ्मगते अति हियो है
विरह विलाप मुख हो हो करतारी गारी
सोच की बीच लिपटाइ तन लियो हैं
वृंद कहें मुख की ललाई से गुलाल सम
धीरज अबीर उड़ाए सब दियो है।
होली के इस रंग से
प्रेम और दरद की दीवानी मीरा भी छूट नहीं पाई हैं।
कृष्ण के रंग में डूबी मीरा अपने अराध्य के हर रूप में
धुली मिली है। कृष्ण यदि गोपिकाओं के साथ होली का रास
रचाते हैं तो मीरा अपने गिरधर से होली क्यों न खेले।
रंगभरी रागभरी राग सू भरी री।
होली खेलया स्याय संग रंग सू भरी री।
उड़त गुलाल बादल से रंग लाल पिचका उड़ावाँ
रूप रंग की मारी की।
होली की पिचकारी
आधुनिक युग के हिंदी साहित्य में भी अपनी फुहार छोड़
रही है। महाकवि 'निराला` भी इसके जादू से अछूते नहीं
रहे हैं।
नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे, खेली होली।
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली।
बालमुकुंद गुप्त ने इस होली को नया मोढ़ ही दे दिया
है। शिवशंभु शर्मा के चिट्टे के नायक शिवशंभु होली के
राजनीतिक रूप को सामने लाते हैं। अंग्रेज़ी शासन में
लोगों की विवशता का वर्णन करते हुए वह कहते हैं यदि आज
शिवशंभु शर्मा अपने मित्रवर्ग सहित अबीर गुलाल की
झोलियाँ भरें रंग की पिचकारियाँ लिए अपने राजा के घर
होली खेलने न जानें, तो कहाँ जाएँ? माई लार्ड नागर में
हैं। पर शिवशंभु उनके द्वार तक नहीं फटक सकता, उसके घर
होली खेलना तो विचार ही दूसरा है।
होली और ब्रज भाषा का
अनोखा साथ है। इस भाषा में होली काव्य जितना लिखा गया
है संभवत: उतना किसी अन्य भाषा में नहीं। राधा कृष्ण
को आलंबन बनाकर होली वर्णन का सौंदर्य ही निखर जाता
है। संभवत: यही कारण है कि नई कविता के जगदीश गुप्त जब
होली वर्णन करते हैं तो ब्रज भाषा में डूब जाते हैं।
मारि गयों पिचकारी अचानक थोरी सरीर पै थोरी हिये में।
भीजि गयी सगरी अंगिया रस प्यार बही बरजोरी हिये मैं।
चोरती प्रीति निचोरति चीर, संकोचति सोचति गोरी हिये
में।
भाल कबीर गुलाल कपोलनि नैननि में रंग होरी हिये में।
होली वर्णन से हिंदी
साहित्य भरा हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात तो होली को
पत्रिकाओं ने अपना विशिष्ट हिस्सा बना लिया है। इस
अवसर पर लगभग प्रत्येक पत्रिका अपना होली विशेषांक
निकलती है। डॉ. धर्मवीर भारतीय के संपादन में
'धर्मयुग' के होली विशेषांक हिंदी साहित्य की एक
अमूल्य निधि हैं। आधुनिक व्यंग्य के प्रमुख
हस्ताक्षरों ने भी होली पर जमकर लिखा है। यही होली के
रंग का वैशिष्ट्य है।
१ मार्च
२००७ |