हास्य व्यंग्य | |
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इधर क्या हुआ कि बहुत सारी छोकरियों और बहुत सारे छोकरों के अक्कल
दाढ़ आ गई। उनमें से कुछ मेरे पास आए तो लगा जैसे कविता की बाढ़ आ गई। मैं टेलिविजन
पर पिछले तीन-चार दशक से हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में लगातार दिखता आ रहा हूँ,
पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखता आ रहा हूँ, सो, कवियाए हुए नौजवान मेरा अता-पता अच्छी
तरह जानते हैं। बिना सिर पैर की कविताएँ लिख लाते हैं और बिना समय लिए चले आते हैं।
उन सैकड़ों युवा कवियों और कवयित्रियों की अलग-अलग समस्याएँ थीं। अधिकांश की प्राथमिक समस्या थी कि रोज़गार नहीं है। रोज़गार होता तो कवि ही क्यों होते। अपवाद स्वरूप कुछ के पास रोज़गार था तो जीवनसाथी नहीं। कुछ का मानना था कि जीवनसाथी मिले तो रोज़गार मिले। कुछ सोचते थे कि रोज़गार मिले तो जीवनसाथी मिले। मैंने अपने इन युवा मित्रों को कविता कितनी सिखाई मैं नहीं जानता, पर मैं उन्हें प्रसन्नतापूर्वक जीने के लिए विवाह की महत्ता ज़रूर समझा पाया। कवि की शादी एक कठिन सामाजिक कार्य है। कविसम्मेलनों में कितना
भी लोकप्रिय हो, कितना भी पैसा पीटता हो, लोग पूछते हैं, ''करते क्या हो?'' कवि की
शादी मुश्किल से होती है, उसकी मइया पोते-पोतियों का मुख देखने के लिए रोती है। वह
स्वयं उसे नाकारा मानती है। तो साहब यों तो अनेक कुँवारी और कुँवारे थे, पर उनमें से कुछ थे जो बेकरारे थे। मैंने वर कवियों और कन्या कवयित्रियों को आमने-सामने बिठा दिया। कन्याओं से कहा, ''हे स्वनाम-धन्याओ! इन कवि-कुल-योद्धाओं में से अपने योग्य योद्धा को छाँट लो। और हे काव्य-क्षेत्र के महारथी अकबरो! इन कवयित्रियों में से अपने लिए जोधा बाई चुन लो। जोधा को योद्धा मिले और योद्धा को जोधा। खुश होगा प्रकृति का अदृश्य पौधा।'' पाँच कवि थे (यहाँ नाम बदल कर दिए जा रहे हैं) प्रथमक, द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक और पंचक। मैंने प्रथमक का मेल पृथा से, द्वितीयक का द्विजा से, तृतीयक का तीजन से, चतुर्थक का चातुरी से और पंचक का पंचमी से कराया। ''पंचकों में तो शादी होती ही नहीं है गुरु देव! आपने तो मेरा
नाम ही 'पंचक' रख दिया।'' द्विजा दूज के चाँद के समान कमनीय काया वाली थी जबकि द्वितीयक दो व्यक्तियों के बराबर काया रखता था। इससे क्या? चक्रधर मिलाई जोड़ी, तो गुण-मिलान में कोई कसर ना छोड़ी। पंचमी से एक दिन पहले हमने पाँचों की शादी रजिस्टर कराई। वसंत पंचमी पर पांडित्य कर्म भी हमने कर दिया। अपने दसों आधुनिक
शिष्य-शिष्याओं को हवन-कुंड वाले मंडप में बिठाया और पंडिताऊ अंदाज़ में कहा, अर्थात, वृक्षों पर आ रहे हैं नए-नए पात। पूरा पलाश का जंगल सुरभिं-सुरभिं. . .सुगंधित है, तालाब कमल पुष्पों से आच्छादित है। रंगत बदल गई है दिग्दिगंत की, अर्थात ऋतु आ गई है बसंत की। प्यारे विवाहार्थियो! जब बसंत ऋतु आती है, तो युवा हृदयों में मादकता छाती है। दिल झूमने लगते हैं, टेसू फूलने लगते हैं। कलियाँ बन जाती हैं फूल, वातावरण में महकती है केवड़े की धूल। कोयल की खंजरी निकल आती है, आमों की मंजरी निकल आती है। दूर तक दीखती है पीली-पीली सरसों, मन करता है बनी रहे बरसों। विवाहार्थियो! जब बसंत आता है, तो मन धड़कनों का उत्सव मनाता है। जब बसंत आता है, तो हिया कसमसाता है। जब बसंत आता है, तो भावनाओं को उँगली पर नचाता है। जब बसंत आता है, तो कवि कविता बनाता है। जब बसंत आता है, तो कनपटी में सन्नाता है। जब बसंत आता है, तो तितली अपने तितले को प्रेम-पत्र लिखती है, भँवरा अपनी भँवरी को मुग़ल गार्डन ले जाता है। जब बसंत आता है तो कल्पनाएँ ईलू-ईलू करती हैं मन गार्डन-गार्डन हो जाता है। व्हैन स्प्रिंग कम्स, अंदर बजते हैं ड्रम्स। जब बसंत आता है, तो बहुत सताता है। जब बसंत आता है, तो बस अंत आता है। बसंत की अनुभूति तुम्हारी रग-रग में रमी है, और फिर आज तो बसंत पंचमी है। जो है प्रकृति के यौवन की मुनादी, आज के दिन हो सकती है हर किसी की शादी। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि तुम्हारे विरह का अंत हो और अब विवाह का प्रारंभ करते हुए तुम्हारे जीवन में हसंत-बसंत हो। हमने पाँचों युगल मूर्तियों को सत्तू-चिवड़ा बाँध कर हनीमून के लिए विदा किया और पाँचों से वादा लिया कि पंच प्यारे अपनी पंच प्यारियों के साथ चालीस दिन से पहले नहीं लौटेंगे। हनीमून लंबा चलेगा, तब तक होली आ जाएगी। इस बीच में काव्य सृजन आवश्यक है। छोटी होली को तुम्हारी गुरुआनी का जन्म दिन है, इस अवसर पर एक काव्य-गोष्ठी रखी जाएगी। जाओ सद्य:विवाहितो। होली तक आ जाना। ऐसा न हो कि हम दीपावली तक प्रतीक्षा करते रहें और तुम दो के तीन होकर लौटो। इस प्रकार हे पाठको! पाँचों युगल मीठी-मीठी गल करते हुए हनीमूनार्थ प्रस्थान कर गए। चेहरों पर नैसर्गिक चमक के साथ छोटी होली को लौटे। हमारी श्रीमती जी ने ठंडाई, कांजी, गुजिया, दही-बड़े, वगैरा और अन्य प्रकार के वगैराओं से सबका स्वागत किया। वे लोग अपनी कविताएँ सुनाने को मचल रहे थे। पंचक तो डायनिंग टेबल पर ही शुरू हो गया-- सर! मेरी पनचक्की ने मुझे ऐसा घुमाया जितना गुरुआनी चक्रधरनी जी ने आपको न घुमाया होगा। प्रारंभ में यह प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं थी। अब स्थिति ये है कि मैं आपसे पुन: पूछूँगा कि प्रेम क्या होता है। मैंने कहा- प्यारे पंचक! सब कुछ सिलसिलेवार बताओ। तुमने प्रेम के बारे में इसे क्या समझाया? साथ में दही-बड़े भी खाओ। पंचक- गुरु देव! आपके घर से निकलते ही मैंने धरती पर एक घुटना
टिका कर और बाहों को आकाश तक फैला कर एक कविता सुनाई थी। जो मेरे पास बनी-बनाई थी।
कोई जीवन में रस ही न था जब तलक, प्रेम वह राग है प्रेम अनुराग है प्रेम वह आग है प्रेम वह बाग है मेरी प्राण-प्रिये, मेरे तन-मन में फैली हुई चाँदनी, राष्ट्रभाषा भले ही कुँआरी रहे, मैंने आश्चर्य प्रकट किया- विवाह के पश्चात तुमने ये कविता सुनाई
थी? . . .लेकिन इसने कहा क्या? सत्तू खा के मुझे क्यों सताता है तू मैंने कहा- वेरी गुड सुनाया पनचक्की! ऐसी कविता इसने क्यों सुनाई जो पहले से लिख रक्खी। हाँ भई! द्वितीयक, हनीमून के अनुभवों का सार क्या निकला? द्वितीयक की कविता पुरुष प्रकृति का स्वामी बनता प्रकृति पुरुष की स्वामिनी। महारास यह महामिलन का महायज्ञ - मंदाकिनी, काव्य कामना कामदेव की कोमल कंचन कामिनी, नींद उड़ावै, अति मन भावै हिया बजावै रागिनी, हम अतीत में, कड़क शीत में ग्रीष्म हुए सह गामिनी किचिन में दूजी गुरुआनी का हाथ बँटा रही थी और कविता सुनते हुए रह-रह कर शरमा रही थी। उधर डायनिंग टेबल पर तृतीयक ने 'श्रीराम चंद्र कृपालु भजमन' की तर्ज़ पर अपना हनीमून गान प्रस्तुत किया- तृतीयक का हनीमून गान हनीमून है वह मून जिस पर कोटि मून समर्पितम् झिलमिलित पुष्पित कलित, हिल स्टेशनार्थ बुकिंग करम्, हनीमून है वह मून जिस पर कोटि मून समर्पितम्। अपन ने भी उसी तर्ज में अर्ज़ किया- बहू दूल्हाय नमः! आगे क्या बताएँ? रात भर चलीं कविताएँ। रस की, रंग की, उमंग की, तरंग की, मलंगों के उचंग की। यहाँ इसलिए नहीं बता रहे हैं क्यों कि सबकी सब नहीं थी ढंग की। |
१ मार्च २००७ |