बहुत दिनों
बाद देस में
-सुरेंद्रनाथ तिवारी
"क्या हुआ? एकदम आनन-फानन
में गाँव जाने का डिसीजन ले लिया?"
मेरे मित्र डॉ. दास ने पूछा।
"हाँ, डॉ. साहब, कुछ बात ही ऐसी है,
इस बार २००४ में ७-८ मार्च की होली है और इस बार केवल गाँव
ही जाना है, वह भी बस होली के लिए।"
यह निर्णय सचमुच ही केवल गाँव
में होली बिताने के लिए लिया गया था। इतने दिनों अमेरिका में
रहने के बाद ऐसे लिए गए अचानक निर्णय पागलपन ही हैं, इसलिए
दास साहब के इस प्रश्न से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। योजना थी,
जहाज़ से बनारस और फिर बनारस से
ट्रेन से गाँव। मेरा गाँव
चंपारण जिले के सेमरा स्टेशन के पास है। बनारस से ट्रेन से
गाँव जाने का एक बड़ा फ़ायदा यह था
कि यह पूरा रास्ता भोजपुरी-भाषी इलाके के बीच से होकर जाता
है, और बहुत दिनों बाद यह इच्छा थी देखने की कि फागुन में यह
इलाका सचमुच कितना सुंदर लगता है।
किशोरावस्था तक कई
प्रयोजनों से मैं पूरे इलाके में घूम चुका था, एक बार फिर
इच्छा थी उस सौंदर्य को निहारने की, ख़ास कर फागुन में।
बनारस से उत्तर की तरफ़ गोरखपुर होते हुए अगर नेपाल की सीमा
तक जाएँ और वहाँ से पूरब मुड़कर सीतामढ़ी, और फिर दक्षिण की
तरफ़ मुजफ्फरपुर, वैशाली, फिर गंडकी का किनारा पकड़े पश्चिम
में छपरा होते हुए, सोन नदी के साथ-साथ डिहरी-आन-सोन और फिर
पश्चिम मुड़कर भभुआ के पहाड़ और कर्मनाशा पार कर बनारस के
दक्षिण तक जो क्षेत्र बनता है, वह क्षेत्र मोटे तौर पर
भोजपुरी-भाषी क्षेत्र कहा जाता हैं। भाषा एक होने के कारण दो
प्रदेशों में होते हुए भी सांस्कृतिक एकता है।
इस प्रदेश ने महात्मा गांधी
का पहला सत्याग्रह देखा था। इसने, भारत को पहला राष्ट्रपति
(जीरादेई, सीवान के डा. राजेंद्र प्रसाद) और एक
प्रधानमंत्री, बलिया के चंद्रशेखर, दिया है। यह इलाका
लोकनायक जयप्रकाश का जन्मस्थल-कर्मस्थल है। संपूर्ण क्रांति
का उद्घोष इसी मिट्टी से हुआ था। सासाराम के जगजीवन राम और
रामसुभग सिंह नेहरू मंत्रीमंडल में मंत्री थे। अगर बनारस की
साहित्यिक विभूतियों, जैसे प्रसाद
जी, प्रेमचंद आदि छोड़ भी दें तो भी यह क्षेत्र हिंदी
साहित्य का सारस्वत-संघ है। सर्वश्री रामबृक्ष बेनीपुरी,
शिवपूजन सहाय, रामदयाल पांडेय, विवेकी राय, गोपालसिंह
नेपाली, मनोरंजन प्रसाद सिंह, लोहा सिंह आदि इसी इलाके की
देन हैं। राष्ट्रकवि दिनकर जी की कई सशक्त कविताएँ सासाराम
में लिखी गईं थीं, जब वे यहाँ की
शिक्षा-विभाग में थे।
इस क्षेत्र की एक दूसरी
विशेषता यह है कि यहाँ के ही लोग गिरमिटिया मजदूरों के रूप
में, ज़्यादा तादाद में, अंग्रेज़ों द्वारा फिजी, गयाना,
मारिशस, ट्रिनीडाड आदि देशों में ले जाए गए थे। इसके कारण
रहे होंगे, लोगों की सरलता और अशिक्षा, बेहद परिश्रम करने की
शक्ति तथा गन्ना उपजाने का अनुभव।
गंगा जी के अलावा गंडक,
सरयू, घाघरा, कर्मनाशा और कई छोटी सरिताओं से वलयित यह
क्षेत्र समतल और बहुत ही उपजाऊ है। और इस उपजाऊ-पने के कारण
मसुरी-खेसारी-मटर-अरहर जैसे दालों के फूलों से लेकर पूरे
वर्ष कभी न कभी उडहल-बागनबेलिया-गुलाब-सेमर-गुलदाउदादी-गेंदा-जूही-रजनीगंधा
आदि खिले मिल जाते हैं, बड़ी तादाद में, और सरसों-तीसी तथा
सूरजमुखी का कहना ही क्या, जैसे किसी ने प्रकृति को पीली लाल
चूनर पहना रखी हो। ऐसी प्राकृतिक संपदा से परिवेष्टित जीवन
अगर अल्हड़ हो तो आश्चर्य क्या और यही अल्हड़ता भोजपुरी अंचल
की विशेषता है।
बनारस में रात में अपने
प्रिय मित्र प्रमोद जी के पास रहना था। शाम को भगवान
विश्वनाथ जी के दर्शन कर निकलते ही भारी भीड़-भाड़ में देखा
तो एक विक्षिप्त आदमी रास्ते में गा रहा था, शायद रंग और
अबीर की दर्जनों दुकानों को देखकर :
"संउसे सहरिया रंग से भरी,
केकरा माथे ढ़ारूँ
अबीर, हो
केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर?"
यानी सारा शहर तो रंग से भरा है, किसके माथे अबीर ढ़ारूँ?
बनारस में लिच्छवी
एक्सप्रेस लेट आई। बसंत के आगमन का आभास तो हमें पहले ही हो
गया था- जब बनारस के म्युनिसिपल-पार्क में गदराई बागनबेलिया
के रंग-बिरंगे फूलों के ऊपर सेमर का एक मात्र पेड़ अपनी लाल
टेसुओं की पगड़ी बाँधे हँस
रहा था। जैसे-जैसे ट्रेन पूरब की ओर बढ़ती गई, फागुन की धूप
गुनगुनी आँच में सर्दी तपने लगी थी,
हल्के कुहासे के पार, सरसों के खेतों
की पीली चादर पर बिछी ओस, किरणों की ऊष्मा से पिघल रही थी,
एक नए दिन की अगवानी में फ़ागुन का एक नया दिन घीरे-घीरे जग
रहा था। ट्रेन के सामने से गुज़रते एक रेलवे-क्वार्टर में
उड़हुल और जूही के पेड़ भी किरणों का स्पर्श पा अपने उनींदे
फूलों को जगा रहे थे, और मुझे दिनकर जी की एक कविता याद आ
रही थी,
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब
जाग री मधुमास-आली।
वर्ष की कविता सुनाने कूकते पिक मौन भोले,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल, बाँह
खोले,
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग री मधुमास-आली।
मेरी ट्रेन एक छोटे स्टेशन
पर रुकी। सुबह की खुमारी ओस की तरह
किरणों की आँच से उड़ रही थी, सामने
की एक छोटी अमराई में 'भोली पिकी' आम के नए किसलयों में छिपी
'वर्ष की कविता' सुनाने को अकुला रही थी -- फागुन में खोया
था।
छपरा पहुँचते-पहुँचते
फागुन की वह गुनगुनी धूप जवान हो गई थी।
अब हम सोनपुर में रुके हैं। सोनपुर
में गंगा-गंडक के संगम पर पुराना और विशाल पुल है। यह
गज-ग्राह की कहानी वाला स्थल है, जहाँ भगवान गज को ग्राह से
बचाने आए थे। आज भी यहाँ का मेला, कुंभ
के बाद शायद भारत का सबसे बड़ा मेला है। मैं ट्रेन की खिड़की
से नीचे झाँकता हूँ
- - गंगा से मिलने जा रही गंडकी के पश्चिमी किनारे पर दो
लड़के अपनी भैसों को पानी पिला रहे हैं, नहला रहे हैं, मैं
उनकी बातें तो नहीं सुन सकता पर एक लड़के की भंगिमा से लगता
है वह हाथ उठाए होली या बिरहा गा रहा है। एक नाविक अपनी बाँस
की पतवार थामे मस्त हो गा रहा है। गीत तो हर जगह जीवित है,
बस गाने वाला चाहिए।
मेरी ट्रेन वैशाली जनपद में
प्रवेश कर रही हैं, वैशाली - - संसार का पहला गणतंत्र, भगवान
महावीर का जन्मस्थल, भगवान बुद्ध का विहार, सुंदरी आम्रपाली
का जन्मस्थल, उसकी प्रणय-स्थली मुझे अपनी कविता की पंक्तियाँ
याद आ रही हैं,
इन कुंजों
में खेल खेलकर बड़ी हुई होगी अंबाली,
उसके अल्हड़पन से गुंजित अब भी उसकी
डाली डाली।
आम्रपाली के प्रथम प्यार की साक्षी उसके गलियाँ आँगन,
उस अल्हड़ नूपुर की धुन को अब भी ढूँढ़
रही वैशाली।
बचपन में पढ़ी श्री
रामवृक्ष बेनीपुरी की 'आम्रपाली' याद आती है, उतनी सुंदर
आम्रपाली सचमुच किसी की नहीं - रचयिता अगर माटी में सन जाए
तो रचना अद्वितीय होती है, बेनीपुरी जी स्वयं वैशाली के थे,
आम्रपाली वैशाली की थी। हाजीपुर पहुँचते-पहुँचते
रेलवे लाइन की दोनों तरफ़ खास कर गंगा जी की तरफ़ छोटे केले
के पेड़ों का अतुल भंडार। गंगा जी तक फैला यह विस्तृत
क्षेत्र ऐसे केलों के लिए भारत-प्रसिद्ध है।
हाजीपुर स्टेशन पर पंजाब से
लौटते मजदूरों की कई टोलियाँ दीखती हैं जो होली में घर जा
रही हैं। बिहार के बहुत से मजदूर बिहार की दु:स्थिति के कारण
बाहर मजदूरी करने को मजबूर हैं। टोलियों में चर्चा के विषय
दो हैं, 'अबकी गाँव में फगुआ कैसे
होई' और 'तोहरा किहा फगुआ कहिया बा?' फगुआ याने होली। इस पर
मुझे याद आता है कि इस बार होली के बारे में यह विवाद है कि
वह सात मार्च को है या आठ मार्च को। मैं स्टेशन पर खड़े किसी
युवक से पूछता हूँ, "कहिया बा फगुआ?
सात के कि आठ के?"
उसका तपाक उत्तर है, "जहिया मन करे, हमनी त दूनू दिन मनाईब।"
यानी जिस दिन आपका दिल चाहे। हम लोग तो दोनों दिन मनाएँगे।
और वह कृशकाय युवक ज़ोर से ठठाकर हँसता
है।
नवयुवकों से इसी उत्तर की आशा करनी चाहिए। उनके लिए तो फगुआ
हर रोज़ है।
गाँव पहुँचकर
इस बात की प्रबल इच्छा थी कि पिता जी
के साथ में सरेह घूम आऊँ। सरेह यानी
वह भूमि जिस पर लोग बसते न हो, जो कृषि मात्र के लिए है।
सुबह तड़के उठकर हम सरेह चले, ओस अभी भी रबी की फ़सलों पर ऊँघ
रही थी, मटर, बकला, आलू के नन्हें फूलों पर किरणें खेलने लगी
थीं, गेहूँ अब फूटने लगा था। पहले
गेहूँ के पौधे छोटे होते थे, अब वे
बड़े दीखते हैं, शायद गेहूँ की दूसरी
प्रजाति है। हम कई सरेह घूमते रहे। अब तो कई दशक हो गए, पर
जिन खेतों में हमने मसूर बोया था, गेहूँ
काटा था, उनके बोझे बनाए थे, उन बोझों को उठाकर खलिहान लाया
था, आषाढ़ में जिन गन्ने के खेतों में हमने तीतर और पंडुक
मारे थे, गन्ने चुराकर खाए थे, सब यथावत आँखों
के सामने चित्र की तरह घूमने लगे थे। मुझे याद आ रहे थे,
सिरिसिया सरेह में अगहन में धान काटने के बाद खेतों में धान
के अकेले खूँट और उन्हें देखकर श्री
रामदयाल पांडेय जी की कविता जो उन्होंने कटे खेतों को देखकर
लिखी थी -
उजड़ दयार या चमन कहूँ?
ओ बसुंधरे! इस परिवर्तन को,
निधन कहूँ या सृजन कहूँ?
टोरांटो से अमेरिका जाते
वक्त रास्ते में मकई के विशाल खेतों में पड़े, कटे खूँटों
को देखकर, वह कविता अब भी मन में गूँजती
है।
हम घर लौटे तो दुपहरिया हो चुकी थी, कुछ किशोर लड़के मेरे
दरवाज़े पर खड़े थे,
"सम्मत में आइएगा न, पंडी जी?" याने रात में जो संवत जलता
है, उसमें मुझे शरीक होना है। रात में कोई बारह बजे मेरे भाई
साहब मुझे जगाते हैं, "भइया, लड़के आए हैं सम्मत जलाने के
लिए। जाइएगा?"
मैं आधा ऊँघता
जाने को उद्यत होता हूँ। सम्मत गाँव
के छोर पर जलता है। वहाँ जाते-जाते मेरी नींद समाप्त हो जाती
है। ढोलक की आवाज़ तेज़ होती जा रही
है, जैसे लोगों को उठाकर बुला रही हो। कुछ लड़के होरी गा रहे
हैं, ज़्यादा इस फिक्र में हैं कि सम्मत की लपटें दूसरे गाँव
से ऊँची कैसे हो, इस प्रयत्न में
बहुत सी चीज़ें आग की भेंट चढ़ती हैं, कभी-कभी उन पड़ोसियों
की खाट-कुर्सी भी जिनसे इन अल्हड़ किशोरों की दुश्मनी हो।
मैं अलग-थलग-सा हूँ,
सोच नहीं पा रहा कैसे शरीक होऊँ, पर
ढोलक की आवाज़ बुला रही है म़ैं भी अगल-बगल फैले, बटोरे गए
झाड़-फूस को आग में झोंकता हूँ,
पुराना वर्ष जल रहा है, कल नया वर्ष आएगा।
दूसरे दिन, कोई दस बजे
होंगे। किशोरों का एक झुंड,
धूल-कीचड़ से सजा, गाँव की पगडंडी पर
हुड़दंग करता घूम रहा है। परंपरा यह है कि सुबह-सुबह
धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाए, फिर
शाम को अबीर लगाकर हर दरवाज़े पर घूमके फगुआ गाया जाए। पर
फगुआ और भांग की मस्ती में यह क्रम पूरी तरह बिसरा दिया जाता
है। ये किशोर अपनी पूरी मस्ती में हैं, कुछ ने अवश्य पी भी
रखी है, एक दूसरे पर धूल उछालते, ये गाँव
के पुराने कुएँ पर स्र्कते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं। कुएँ
पर दो महिलाएँ पानी भर रही हैं, एक अधेड़ पुरुष
बाल्टी से पानी निकाल नहा रहे हैं। एक लड़का अपनी
भर्राई-लड़खड़ाती आवाज़ में गाने लगता है,
आ हो भौजी,
तोरा नइहरवा कुआँरी बहिनिया भौजी,
कह त गवना करा के ले आईं।
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