ब्रजचंद साँवलिया गोपियों के
साथ जी भर होली खेल रहे हैं -
मथुरा में साँवरिया खेले होरी, अरे खेले होरी, भरे झोरी।
अरी इतते आई सबही ग्वालिन, उतते साँवरिया केसर घोरी।
अरे पिचकारी सबई पे मारी, अरे कोई गोरी, कोई है भोरी।
नंद बाबा ने रंग घुरवाए, अरे कुंड एक मन केसर छोरी।।
एक अन्य गीत में गोपियों ने
कृष्ण की खूब खबर ली है। कृष्ण गोपियों को किसी-न-किसी बहाने
तंग किया करते थे। एक दिन गोपियों ने मिलकर एक योजना बना
डाली और कृष्ण को पकड़, उनका स्त्री वेश बनाकर खूब खिल्ली
उड़ाई -
छीन लई वनमाल मुरलिया, सिर
मैं चुनरि उढ़ाई।
बेंदी भाल नैन बिच काजर, नथ बेसरि पहराई।
लला नई नारि बनाई, ब्रज में हरि होरी मचाई।।
होली गाते समय शृंगार की
नन्हीं फुहारें नीरस हृदय में भी सरसता का संचार करती हैं।
एक गोपिका कृष्ण से होली खेलने की मनाही नहीं करती, परंतु वे
ज़रा बचाकर रंग डालें, बस यह ध्यान रखें -
साँवरिया रंग डारो बचाई,
फुँदना बिगरैं न चोली के
फुँदना बिगरैं बिगरि जान दें, जोबना देउ बचाय।
जोबना बिगरै बिगरि जान दें, चोली देउ बचाय।
फुँदना न बिगरैं चोली के।।
चाहे संपूर्ण अंग-प्रत्यंग
रंग से सराबोर हो जाए, चिंता नहीं, पर यौवन और उनकी
संरक्षिका कंचुकी को पति की अमानत के रूप में अक्षत रखना
चाहती हैं। गीत में बड़ी गहन प्रेम-व्यंजना परिलक्षित होती
हैं। गोपियों से छेड़छाड़ करने में कृष्ण को बड़ा मज़ा आता
है। गोपियाँ पिटवाने की धमकी देती हैं। पर कृष्ण तनिक बाज़
नहीं आते -
फटि जैहैं चुनरिया जिन तानो,
हमरी बात मोहन मानो।
जो सुन पावै कंस और राजा, अरे बरसाने में है धानो।
एक बार तुम गम खाओ मोहन, अरे पैरें सुनहरी हम गहनो।
मुसकँ बाँध तुमको पैड दें, जसुदाजी को है जैसे बहानो।।
फागुन के मस्त महीने में
होली खेलने में लज्जा-शर्म का त्याग बुरा नहीं -
मनमानी छैल करो होरी, सब
लाज शरम डारों तोरी।
महिना मस्त लगें फागुन को, अब न कोउ दैहें खोरी।
अब डर नाहिं पुरा पालै को, लड़ै न सास ननद मोरी।।
एक नायिका नायक से रंग न
डालने का अनुनय करती है। उसे भय है कि रंग में डूबी घर
पहुँचने पर घर के लोग उसका बहिष्कार कर देंगे, क्यों कि पर
पुरुष के साथ होली खेलने से पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन
होता है -
मो पै रंग न डारौ साँवरिया,
मैं तो ऊसई अतर में डूभी लला।
जो सुनि पाएँ ससुरा हमारे, आउन न दैहें बखरिया लला।
जो सुनि पाए जेठा हमारे, छियन न दैहें रसइया लला।
जो सुनि पाएँ सइयाँ हमारे, आउन न दैहें सेजरिया लला।।
प्राचीन काल में राजघरानों
में सोने की पिचकारी में केसर का रंग भरकर होली खेली जाती
थी। आनंदाधिक्य में लोग दस मन केसर घोलकर रंग बनाते हैं और
गुलाल इतना अधिक उड़ाते हैं कि संपूर्ण नभमंडल रक्तवर्ण हो
जाता है -
उड़त गुलाल लाल भए बादर,
कै मन प्यारे रंग बनाए कै मन केसरि घोरी।
नौ मन प्यारे रंग बनाए दस मन केसरि घोरी।
काहे की रे रंग बनाए, काहे की पिचकारी,
केसर की रे रंग बनाए, सोने की पिचकारी।
भरि पिचकारी सन्मुख मारी, भीजि गई सब सारी।।
'उड़त गुलाल लाल भए बादर'
में अतिशयोक्ति अलंकार निखर पड़ा है। बुंदेलखंड की रसीली
होली की मादकता में राम और लक्ष्मण भी प्रसन्न हो उठे हैं -
राजा बलि के द्वारे मची
होरी।
कौन के हाथ ढोलकिया सोहे, कौन के हाथ मजीरा,
राम के हाथ ढोलकिया सोहे, लछमन के हाथ मजीरा।
कौन के हाथ रंग की गगरिया, कौन के हाथ अबीर झोली,
राम के हाथ रंग की गगरिया, लछमन के हाथ अबीर झोली।
राजा बलि के द्वारे मची होली।।
यहाँ राम और लक्ष्मण को सामान्य जन की तरह चित्रित कर लोकभाव
की प्रतिष्ठा की गई है।
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