होली के संदर्भ में,
हिंदी पत्रकारिता का इतिहास अनूठा और रोचक है।
राष्ट्रीयता का विकास और हिंदी पत्रकारिता की विकास
यात्रा समानांतर रही अतः उस युग की पत्रकारिता में,
राष्ट्रीय पर्व होली को भी देश की दशा के संदर्भ में
देखा गया। हिंदी पत्रकारिता के दूसरे दौर भारतेंदुयुगीन
पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति में, देश दशा का ही मुखर
स्वर जीवंत था। २० मार्च १८७४ के 'कविवचनसुधा' के 'होलिकांक'
में स्वदेशी आंदोलन के संदर्भ में जो 'प्रतिज्ञापत्र'
प्रकाशित हुआ था, उसका अविकल रूप इस प्रकार है।
''हम लोग सर्वांतदासी
सत्र स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य
परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते
हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं
पहनेंगे और जो कपड़ा पहले से मोल ले चुके हैं और आज की
मिति तक हमारे पास है उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक
काम में लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी
विलायती कपड़ा न पहनेंगे हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा
पहिरेंगे।''
१३ जनवरी
१८७९ में
कलकत्ता से प्रकाशित होने वाला 'सारसुधानिधि' लोकपरक
पत्र था। लोक हित में देश-दशा का यह चित्र प्रस्तुत
करता था। इस पत्र ने अपने ३ मार्च १८७९ के ८वे अंक में
'जहाँ लखी वहाँ होरी' शीर्षक से होली के माध्यम से
तत्कालीन देश-दशा का सटीक चित्रण इस प्रकार किया था -
''हिंदुस्तान में आगे क्या था? होली, वह आनंद से चंदन
केशर कपूरों की बौछार पड़ा करती थी, गाने बजाने का ठाठ
जुड़ता जमता था, जहाँ देखिए वहाँ आनंद बरसता था,
युद्धों के सहारे पूर्व पुरुषगण केसरिया सजे, हाथों
में कंगन बाँधे, मतवाले झूम-झूमकर बंदूकों की पिचकारी
और गोले के कुमकुमे चलाते थे और सब शत्रुओं को स्वाहा
करके कहते थे होली है।
और भारत वर्ष का नाश
भी इसी से हुआ, लोगों में फूट हुई, मुसलमान बुलाए गए
जयचंद के मुँह में चोआ चंदन पोता गया होली है और भला
काबुल में क्या हो रहा है? होली। पतझर हो गई, लोगों के
मुँह पर सरसों फूली है। ख़ास आम सब बौराए हैं, काफ़िर
हब्शी इत्यादि गलियों की पुकार हैं, गुलाल के बदले धूल
उड़ रही है, बसंत बने है, लाज सब छोड़ दी है, धन बल
विद्या सब होली में जला दिया है, बस धुरहड़ी और जमघंट
मना रहे हैं, होली है।''
राष्ट्रीय जनजागरण के
अनुक्रम में, सन १८७४ में प्रकाशित 'हरिश्चंद्रचंद्रिका'
के होली अंक में छपे होली गीत के कुछ अंश देखें।
''होली।
भारत में मची है होरी।।
इक ओर आग अभाग एक दिसी होय रही झकझोरी।
अपनी अपनी जय सब चाहत होड़ परी दुंहुं ओरी।।
दुंद सखि बहुत कठोरी।।१।।
धिक वह माता पिता जिन
तुमसो कायर पुत्र जन्योरी।
धिक वह धरी जनम भयो जामे यह कलंक प्रगटोरी।।
जनमतहिं क्यों न मरोरी।।९।।
आलस में कुछ काम न
चलि है सब कछु तो विनसोरी।
कित गयो धन बल राजपाट सब कोरो नाम बचोरी।।
तउ नसिं सुरत करोरी।।११।।
होली को ही संदर्भ
बनाकर 'हरिश्चंद्रचंद्रिका' के होलीकांक में देश की
दुर्दशा पर जो ध्वनि मुखरित हुई, उसकी बानगी-
''होली।
है दुर्दशा न थोरी, कहाँ खेलें हम होरी?
रह्यो न राज हमारो तिल भर करत चाकरी कोरी
पराधीनता में सुख मानत, तानत लंबी वोरी।।
अब विद्या रंग
रंगोचित में गुण गुलाल प्रघटोरी
अकल अबीर कुरीति कुंकुमा देहु भूमि में फोरी
निडरता उफ धुधुकोरी।।
कर उत्साह राह में आओ मैं भ्रम सब बिसरोरी।
स्वाधीनता करो संपादन भारत जै उचरोरी।
राधिका चरन चहोरी।।''
तत्कालीन दौर का
प्रमुख राष्ट्रीयवादी 'उचितवक्ता' (१८८३) बहुत तेजस्वी
पत्र था राष्ट्रीय एकता एवं स्वदेशी के प्रति आग्रह
इसका आदर्श था। ब्रिटिश सरकार के चाटुकारों का यह पत्र
खुलकर विरोध करता था। एक बार उदारवादी राजा शिवप्रसाद
ने सरकार की चाटुकारिता के नशे में भारतवासियों को
'भेड़' कह डाला। होली पर्व पर 'उचितवक्ता' के
हास्यव्यंग्य रूपी वाणों की फुहार छूटी। देखें, १७
मार्च १८८३ का 'संपादकीय' -
''खुसामद ने हमारे
राजा साहब को भी बहुत दिनों से अपना चेला बना रक्खा है
और उसी खुसामद के प्रसाद से आज राजा साहब का ऐसा
सम्मान है और अंग्रेज़ी वर्णमाला के कतिपय अक्षरों (सी.एस.आई.)
का पुछल्ला नाम के पीछे फहरा रहा है और इसमें संदेह
नहीं और राजा जी भेड़ प्रतिनिधि होने में समर्थ हुए
हैं और आज समग्र भारतवासियों को भेड़ बनाकर आप उनमें
श्रेष्ठ बन गालियों की बौछाड़ प्रकाश्य काउंसिल में
करते हैं।
हम सर्वसाधारण से यह
प्रार्थना करते हैं कि इनके स्थानापन्न करने के
निमित्त एक प्रतिनिधि निर्वाचन करें और इंडिया
गवर्नमेंट से प्रार्थना करके इनकी बदली करा दें नहीं
तो किसी दिन इनके द्वारा बड़ी क्षति होगी। कुशल तो
इतनी हुई कि, ये महापुरुष रिपन के समय काउंसिल के सभ्य
हुए यदि कहीं लिटन के समय होते तो सोना सुगंध हो जाता
और अभी कौन कह सकता है कि, रिपन के बाद एक महालिटन
नहीं आ सकते हैं।''
१७ मई सन
१८७८ में
प्रकाशित 'भारतमित्र' अपने समय का शीर्ष उग्र राजनीतिक
पत्र था। 'भारतमित्र' में प्रकाशित 'शिवशंभु के चिठ्ठा',
'शाइस्ता खां के ख़त' और 'टेसू' द्वारा राजनीतिपरक
व्यंग्य ने सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन को मुखर
स्वर प्रदान किया। ऐसा ही 'कर्जन-फुलर' शीर्षकनुमा
टेसू दृष्टव्य है -
''नानी बोली टेसू
लाल,
कहती हूँ तुझ से सब हाल।
मास नवंबर कर्जन लाट।
उलट चले शासन का हाट।
किया मातरम वंदे बंद।
और सभाएँ सेकी चंद ज़ोर स्वदेशी का दबवाया।
जगह-जगह पर लठ चलवाया।''
सन
१८७८ के 'भारतमित्र'
के 'पोलिटिकल होलीट विशुद्ध होली न होकर, उग्र
राजनीतिक विचारधारा की पोषक थी यथा-
'करते कुलर विदेशी वर्जन, सब गोरे करते हैं गर्जन
जैसे मिंटो जैसे कर्जन, होली है भई होली है।
वराडरिक ने हुक्म चलाया, कर्जन ने दो टूक कराया
मर्ली ने अफ़सोस सुनाया, होली है भई होली है।''
सन
१९०४ में कलकत्ता
से प्रकाशित होने वाला 'वैश्योपकारक' स्वदेशी आंदोलन
का पोषाक एवं समाज सुधारक पत्र था। युगीन चेतना के
प्रति सचेत रहते हुए 'वैश्योपकारक' साहित्य एवं भाषा
के प्रति भी समर्पित था। राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण
इस पत्र के वर्ष-२, अंक-१२ से 'फाग' शीर्षक से सामयिक
होली का एक गीत दृष्टव्य है -
''अब तो चेत करो रे भाई।
जब सरवसु कढ़ि गयो हाथ हैं
तब न उचित हरिहाई।।
उपज घटै धरती की दिन-दिन
नाज नितहिं महँगाई।।
कहा खाय त्योहार मनावें, भूखे लोग लुगाई।।
सब धन ढ़ोयो जात विलायत, रह्यो दलिद्दर छाई।
अन्न वस्त्र कहं सब जन तरसैं, होरी कहाँ सुहाई।।''
राष्ट्रीयता की यह
धारा जिसका विकास राजनीति के माध्यम से हो रहा था -
पत्रकारिता की रचनात्मक शक्ति से प्रेरित एवं संपन्न
थी। आधुनिकता और पुनर्जागरण इस पत्र का उद्देश्य था।
इस पत्र की सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि विशेष थी।
हिंदी साहित्य के उन्नायक महत उपक्रमों में 'वैश्योपकारक'
की सक्रिय रुचि थी। साहित्य आंदोलन में इस पत्र की
ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सन १९०५ के
'होली विशेषांक' में चैती ठेकाहोरी की तर्ज में 'वैश्योपकारक'
में छपे साहित्यिक अवदान का राष्ट्रीय चेतना से
समन्वित एक उदाहरण -
खुलिहैं नैन तिहारे
हो रामा कौने दिनवां खुलि हैं
बहुत काल सोवत ही बितायो,
अब जागहु पिय प्यारे हो रामा, कौने दिनवां खुलि हैं।।
कैसी कहूँ कहु कहत न आवे
बने हो अजब मतवारे हो रामा,
कौने दिनवां खुलि हैं।''
१५ मार्च
१८८३ को
कानपुर से प्रकाशित होने वाला पं.प्रतापनारायण मिश्र
का 'ब्राह्मण' मासिक पत्र हास्यव्यंग्य प्रधान।
साहित्य और संस्कृति का विचारवान पत्र था। इसमें छपे
हास्यव्यंग्य बड़े चुटीले और अर्थवान होते थे। अपने
प्रथम वर्ष के 'होली विशेषांक' में हास्यव्यंग्य और
ठिठोली से भरा, प्रस्तुत मूढ़ों पर एक अवतरण दर्शनीय
है यथा -
''सच है - सबसे भले हैं मूढ़, जिन्हें न व्यापै गति।
मज़े से पराई जया गयक बैठना। रंडिका देवी की चरण सेवा
में तन-मन-धन से लिप्त रहना, खुशामदियों से गप्प
मारना, जो कोई तिथि त्यौहार आ पड़ा तो गंगा में चूतड़
धो आना, वहाँ भी राह पर पराई बहू-बेटियाँ ताकना. .
.संसार परमार्थ दोनों तो बन गए अब काहे की है, है काहे
की खै खै।''
१ मार्च
२००७ |