होली की
शाम का उत्सव सारे भारत में लकडियाँ इकठ्ठी कर के जलाने से
शुरू होता है। दूसरे दिन सुबह रंगों की होली खेली जाती है।
लकड़ियाँ जलाना होलिका नामक राक्षसी को जलाने का प्रतीक
है। होली में नई फसल का मक्का,
चना, गेहूँ की बाल, गन्ना, नारियल, पूरी और गुलाल भोग के
रूप में चढ़ाया जाता है और अन्न की फलियों को इस आग में
भूनकर खाया जाता है। होली की जलती हुई एक लकड़ी को लाकर
घर में हर जगह घुमा कर, उसके धुएँ से घर को पवित्र किया
जाता है। होली के गीत जोर शोर से गाए जाते हैं।
दूसरा दिन सुबह से रंगों
शुरू हो जाता है। एक हफ्ते पहलेसे ही इसकी तैयारियाँ
शुरू होती हैं। बाज़ारों की रौनक देखते ही बनती है। सब
तरफ रंगों के ढेर, जो मर्जी रंग खरीद सकते हैं आप। पानी
में रंग मिलाकर रंगीन पानी तैयार किया जाता है और
पिचकारियों में भरकर उड़ाया जाता है। गुब्बारे में सादा
या रंगीन पानी भरकर एक दूसरे पर फेंकते हैं। यदि यह
गुब्बारा मुँह पर पड़ा तो मुँह सूजे बिना नही रहेगा,
बड़ी जोर से मार लगती है इसकी।
पूर्णिमा के तीन दिन पहले 'रंग पाशी' मनाया जाता है। घर
के सारे रिश्तेदार कहीं एक जगह इकठ्ठे होते हैं। दोस्तों
मेहमानों को भी न्योता दिया जाता है। घर के बुजुर्ग सब
पर रंग छिड़कते हैं। ढोलक डमरू भी बजते रहते हैं। सभी
लोग नमकीन, पापड़ी और गुज़िया, दही बड़े का लुत्फ उठाते
हैं। कुछ लोग ठंडाई या भांग का मजा लेते हैं। इस दिन सब
अपने गिले शिकवे मिटाकर वातावरण को खुशनुमा और उत्साहभरा
बना देते हैं।
बरसाना
में गोसेन परिवार की 'लठ्ठ-मार होली' तो सारे भारत में
प्रसिद्ध हैं। राधा-कृष्ण की लीलाएँ इसी गाँव से संबधित
है। इस गाँव की औरतें हाथ में लाठियाँ ले कर निकलती हैं।
नंदगाँव के पुरुष होली खेलने बरसाना गाँव में आते हैं और
बरसाना गाँव के लोग नंदगाँव में जाते हैं। इन पुरुषों को
'होरियारे' कहा जाता है। जब नाचते झूमते लोग गाँव में
पहुँचते हैं तो औरतें हाथ में ली हुई लाठियों से उन्हें
पीटना शुरू कर देती हैं और पुरुष खुदको बचाते भागते हैं।
लेकिन खास बात यह है कि यह सब मारना पीटना हँसी खुशी के
वातावरण में होता है। औरतें अपने गाँवों के पुरुषों पर
लाठियाँ नहीं बरसातीं। बाकी आसपास खड़े लोग बीच बीच में
रंग बरसाते हुए दिखते हैं।
मंदिरों में भी २-३ दिन रंग खेला जाता है। पूरे उत्तर
प्रदेश में इस दिन के पेय के नाम पर ठंडाई या भांग बड़ी
ही प्रसिद्ध है। गुझिया और नमकपारे खिलाना भी पारम्पारिक
माना जाता है।
पूर्वी
उत्तर प्रदेश में नये कपड़े पहनकर शाम को पूजा की जाती
है। इलाहाबाद में भी दो तीन दिन तक होली का रंग लोग
बिखेरते हैं। तीसरे दिन को 'धुलंडी' कहा जाता है। इस दिन
राख और कीचड़ से होली खेली जाती है। कानपूर में गीली
होली सात दिन तक खेली जाती है जिसमें एक दिन कीचड़ की
होली का होता है। भांग और ठंडाई तो मुख्य रूप से होती ही
है।
उत्तरांचल में होली के गानों में लोक संगीत और शास्त्रीय
संगीत को महत्व ज्यादा दिया जाता है। रंग खेला जाता है
और लोग एक दूसरे से मिलने जाते हैं।
राजस्थान में भी उत्तर प्रदेश जैसी होली खेली जाती है।
कहीं कहीं खून की होली भी खेलते हैं। एक दूसरे पर खून
निकलने तक पत्थर फेंके जाते हैं। इस खून से तिलक किया
जाता है। शाम को नए कपड़े पहनते हैं, गुलाल और अबीर का
तिलक लगाया जाता है। बड़े छोटों को आशीष देते हैं।
मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ ज़िले में छोटे गाँवों में 'गोल
बढ़ेदा' नाम का त्योहार मनाया जाता है। नारियल और गुड़
की पोटली को ताड़ के ऊँचे पेड़ पर टाँग दिया जाता है।
लड़कों में इस पेड़ पर चढ़कर पोटली उतारने की होड़ लगती
है। पर यह कोई आसान काम नहीं, क्योंकि उनका पेड़ पर
चढ़ना और लड़कियों का किसी न किसी तरह उनका ध्यान अपनी
ओर खींचना साथ-साथ शुरू हो जाता है। जो लड़का पोटली लाने
में कामयाब हो जाता है उसे उन लड़कियों में से किसी को
भी जीवनसाथी बनाने का हक दिया जाता है।
हिमाचल
प्रदेश में होली की राख को जादुई माना जाता है। यहां के
लोगों का विश्वास है कि इस राख को खेतों में फैलाने से
दुर्घटना, दुर्भाग्य और संकट से बचाव होता है।
उत्तर भारत में माँ अपनी ससुराल गई बेटी के लिए नए कपड़े
बनवाती है। उन्हें खाने की दावत दी जाती है। दामाद को
'प्याला' (प्यार और पैसों से भरा हुआ) देने का रिवाज़
है। वैसे ही बहू को 'कोथली' याने यात्रा के लिए खर्चा
देते हैं। बच्चों को बहला फुसलाकर दादा दादी उन्हें कमरे
में बन्द कर देते हैं। बहू गाना गा कर प्रलोभन देती है
और उन्हें छोड़ने की अर्ज करती है। प्रलोभन में हमेशा
साड़ी या कोई गहने का लालच दिखाया जाता है।
महाराष्ट्र में होली के अवसर पर गोबर के उपले जलाने का
रिवाज है। बाद में लकड़ियाँ जलायी जाती हैं। इस दिन सुबह
पूरणपोली का भोग लगाया जाता है और रात को उसे होली को
अर्पित किया जाता है। गरमी के दिनों में आग लगने का
संदेह ज्यादा होता है इसलिए अग्नि देवता को शांत करने के
लिए यह पूर्णिमा मनायी जाती है। दूसरे दिन जहाँ होली
जलाई गई है वहाँ बर्तन रख कर पानी गरम किया जाता है और
इससे बच्चों को नहलाया जाता है ताकि आगे की आनेवाली गरमी
की तकलीफ से उन्हें बचाया जा सके। यहाँ पूर्णिमा के बाद
पंचमी को रंग खेला जाता है। थोड़ी गरमी शुरू हो जाने से
उस दिन ठंडे पानी से होली खेलने का प्रारंभ करते हुए इस
दिन के बाद ठंडे पानी से नहाना शुरू करते हैं।
पेशवाई
समय में पानी को केसर के रंग से रंगीन और सुवासित बना कर
रंग खेला जाता था पर आज सामान्य रूप से रसायनिक रंगों का
ही प्रयोग प्रचलन में है।
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