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संस्मरण
आँगन में उतरा इंद्रधनुष
-रति सक्सेना

१९६०-६४ का भोपाल, भोपाल में नया पुरा और नए पुरे में हवा महल के पास खपरैलों वाला मामा का घर यदि मेरा बचपन इस बड़े से आँगन वाले घर में नहीं बीता होता तो क्या मैं शब्दों से दोस्ती कर पाती? क्या कल्पना को हमसफ़र बना पाती? शायद नहीं क्यों कि यह घर नहीं वह झरोखा था, जहाँ मैंने कल्पनाओं को आँगन में चहल-कदमी करते देखा, कला को गोबर की भीत पर सजते देखा, सामान्य-सी चीज़ों को पकवानों में बदलते देखा, आज बहुत करीब की चीज़ें धुंधलाने लगी हैं तो बचपन की यादों के रंग कैसे-कैसे गहराते जा रहे हैं।

१९९७, बड़ी बेटी ससुराल चली गई, छोटी पढ़ाई के लिए होस्टल, घर जो बच्चियों की आवाज़ से भरा रहता था, भांय-भांय कर रहा है। यों तो केरल में होली जैसे त्यौहार का कभी महत्व रहा ही नहीं, फिर भी घर में होली के पकवान बनाने, रंगोली सजाने और पूजा पाठ की रीत को बरकरार रखा, संभव हुआ तो कुछ उत्तर भारतीय मित्रों के साथ रंग भी खेल लिया गया। चाहे उत्तर प्रदेश सी चहल पहल ना हो, होली-दीवाली को फीका नहीं बनने दिया। लेकिन इस बार मन इतना जड़ हो गया कि ना तो पकवान बनाने की सुध रही, ना रंगोली की। बस बाज़ार से कुछ लड्डू ला कर होली का हवन निपटाया और सूखे मन से टी.वी. पर बरसते रंगों को देखते रहे, पर कहाँ मन तो चला गया, उन्हीं पुरानी गलियों में, बिटियों की यादों से भटकते हुए ननिहाल में बीते अपने बचपन की ओर...

होली के कई दिनों पहले होली की सुगंध आ धमकती, सदैव व्यस्त रहने वाली बड़ी माईं और व्यस्त हो उठतीं। गाँव से सामान की बोरियाँ उतरने लगतीं। टोकरियों भर गोबर आ जाता। सिकरियाँ बनानी हैं, आँगन लीपना है। न जाने क्या-क्या होना है। उन दिनों खानदानी मुखिया के घर होली जलाने का रिवाज़ था। घरेलू होलियों में बाज़ारी भगदड़ नहीं हुआ करती थी। कबाड़ से होली नहीं जलाई जाती बल्कि गाँव चिरी-चिराई लकड़ियों की गाड़ी मँगवाई जाती। आँगन लीपा जाता। किनारों पर चावल के एपन से बेल बूटे काढ़े जाते गोबर की सिकरियाँ बनानी शुरू हो जाती, गोबर मिट्टी से खेलना हम बच्चों को विशेष मज़ा देता, उन दिनों गोबर गाय की छि:-छि: नहीं बड़ी मज़ेदार क्ले हुआ करती थी जिस पर कल्पना आसानी से उतारी जा सकती। सिकरियाँ गोल-गोल पतली तश्तियों के आकार के छाने होते थे, जिनके बीच में उँगली से छेद कर दिया जाता था। सूखने पर उनको धागे में पिरो लिया जाता था। सात सिकरियों की गिनती से माला शुरू होती तो बढ़ती-बढ़ती ११, १५, १८, २१ होती हुई ५१ तक जा पहुँचती।

फुलौरा दौज से आँगन में चौक मंडना शुरू होता, होली का चौक भी ख़ास होता। दाल बघारने वाले चमचे को उलटाकर उस पर चावल का चून इस तरह से सरकाया जाता की चमचा हटाने पर सुगढ़ आकृति तैयार हो जाती, बीच की खाली जगह को पिछले साल के बचे अबीर गुलाल से भरा जाता था। यह सारा कार्यकलाप इतना मज़ेदार होता था कि सांझ रात में कैसे बदल जाती पता ही नहीं लगता। रात को गोबर लीपे आँगन में चौक मे भरा अभ्रक चमचमाने लगता तो घर की औरतें ढोलक मजीरे के साथ फागुन गुनगुनाने लगतीं। फुलैरा दूज से हर रात नई लगती क्यों कि चंद्र कला की तरह हर रात चौक की आकृति बढ़ती जातीं। कुछ दिनों में सिकरियों की मालाओं का ढेर बन जाता। जितना बड़ा कुनबा उतनी ज़्यादा सिकरियाँ। माईं कोरी धोती निकालतीं, उसे टेसू के रंग में रंगती और अभ्रक बुरक देतीं। शाम तक चमाचम हल्की पीली धोती तैयार हो जाती। फिर गोटे की किनारी लगाई जाती। इन दिनों माई को फुरसत ही नहीं, दिन भर पकवान बनते। तरह-तरह के पापड़ बेले जाते, बाजार से पापड़ मँगवाने का रिवाज़ तो था नहीं सो साल भर के पापड़ इसी वक्त बना लिए जाते। मंगोड़ी, मिथौड़ी बनाने का भी यही वक्त। पापड़ बना कर धोतियों पर सुखा लिए जाते। दरअसल उन दिनों आँगन ही घर का दिल हुआ करता था, वहीं पनाला, जहाँ सुबह कुल्ला मंजन होता, उसी पनाले पर बच्चे नहा लेते, लड़कियाँ कपड़े कूट लेतीं, महरी बर्तन माँज लेती। वहीं पर पापड, बड़ियाँ सूखतीं और रात को वही आँगन खूबसूरत चौक से दिपदिपाने लगता।

होली के दो-चार दिन बचते तो घर में मीठी खुशबू भर जाती। माई तरह-तरह की गुझियाँ बनाने लगती, खोए की, रवे की, यहाँ तक कि बेर की भी। फिर बनते तमाम नमकीन पकवान, फुलौरियाँ, बेसन के सेव और ना जाने क्या-क्या। माई के भंडार घर में अब ठसाठस हो जाता। होली की पूर्णिमा तक आते-आते आँगन चौक से भरा-पूरा लगने लगता। चाँदनी के प्रकाश में अभ्रक दिपदिपाता तो मेरे जैसे ना जाने कितने बच्चों की आँखों में सपने तैरने लगते।

होली यानी पूर्णिमा की सांझ आती तो हमारे दिल उछलने लगते। नये कपड़े जो मिलते पहनने को। माई अपनी टेसू से रंगी साड़ी निकालतीं। दिन भर बर्तन में टेसू के फूल उबलते। सांझ से पहले चौक फिर से तैयार होता, इस बार तो ऐसा लगता कि सारा घर ही इसमें समा गया हो। फिर सिकरियों का ढेर लगाया जाता। सबसे बड़ी माला सबसे नीचे, सबसे छोटी सबसे उपर, ऐसा लगता कि मेस्र् सिर ताने खड़ा हो। माई-मौसियाँ पूजा की थाली सजातीं, मिठाई पकवान सजातीं। अब तक घर मर्द भी हरकत में आ जाते और लकड़ियों के ढेर सजाते। गांव से आई गेहूँ बालियाँ, हरे चने की बालियाँ इकठ्ठी कर दी जातीं। पंडित जी के आते-आते आँगन और आँगन वासी चमचमा उठते। होलिका पूजन होता और फिर घर के बुजुर्ग होलिका दहन की तैयारी करते। महिलाएँ होलिका माता की पूजा करतीं, जल चढ़ाती, परिक्रमा लेती। विष्णु वैरी की बहन थी तो क्या, थी तो एक नारी जो एक पुरुष के कहने पर चिता पर बैठ गई। इसे महिलाएँ नहीं तो कौन समझता होगा कि पुरुष चाहे भाई, पिता या पति हो, स्त्री को उसका अनुकरण करना ही है। होलिका कंवारी मरी थी ए़क कंवारी स्त्री की आत्मा भटकती रहेगी। शायद हर साल होलिका दहन कर उसी आत्मा के लिए खूबसूरत चिता तैयार की जाती थी। सुहागन सी खूबसूरत ज़िंद़गी नहीं तो चिता ही सही।

होलिका दहन होते ही हम सब चिल्ला कर नाचने कूदने लगते म़गर उस वक्त किसी को प्रल्हाद की याद नहीं आती, हम सब चिल्लाते, होलिका माता की जय। बड़े बुजुर्ग गेहूँ की बालियाँ बालते जलाते, हरे चने भूने जाते, तब सारे मामा आते बारी-बारी से बड़े मामा के चरणों पर गुलाल डालते पर बड़ीं माई पर पिचकारी से रंग। फिर बड़ों की होली शुरू हो जाती, इन सबकी शिकार अधिकतर माई ही बनती थीं। हम बच्चे भी मचल उठते टेसू की पिचकारियों के लिए, तो हमें फुसलाया जाता। अरे ये तो बड़ों की होली है, तुम लोगों की होली कल आएगी। गले मिलने - पैर छूने का सिलसिला चलने तक आँगन में विचित्र खुशबू भर जाती, टेसू की गमक? मिठाई की महक? या फिर खिलखिलाते चेहरों की चमक? आह क्या होली थी, इस सब के बीच यह याद भी नहीं रहता की चौक का गुलाल धुल गया है, अबीर फैल गया है। आँख मुँदते-मुँदते ना जाने कितने सितारे झोली में आन गिरते।

धुलेंडी की सुबह ज़रा ठंडक भरी ज़रूर होती पर सब तैयार पुराने कपड़े पहन का फिर तो रंग गुलाल से चौक इंद्रधनुष बन जाता। बड़े लोग गिलास भर-भर कर भांग पी जाते।। बच्चे मिठाई से मस्त। सड़कों पर से ढोल मजीरों की आवाज़ एक अजीब-सा वातावरण। आज याद कर लिखने बैठी हूँ तो मन तन दोनों ही भीग-भीग जा रहा है। धुलेंडी की शाम तक हम बच्चे बिना भांग के केवल मिठाई और रंग से इतने मदमस्त हो जाते कि पूरी-कचौरी खाए बिना ही चित्त हो जाते।

होली केवल धुलेंडी से थोड़े ही निबट जाया करती थी उन दिनों। रंग पाशी आती तो फिर आस-पड़ौस की महिलाएँ जुट जातीं, रंग के छीटे डलते, ढोलक पर फाग गाई जाती और स्वांग भी खेले जाते। अधिकतर सूरदास के पदों पर राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंगों पर। हम बच्चों को भी इनमें भाग लेने का मौका मिलता।

फिर शीतला अष्टमी आती तो बसौरे के पकवान बनते, शीतला माता की पूजन, बस भई बस, अब तो धाप गए पूरी-पकवान से, त्योहारों का सिलसिला धीमा पड़ जाता ल़ेकिन किसी नए त्यौहार के प्रतीक्षा में...

एक वह होली थी और एक यह होली। मन के भीतर तक अवसाद छा गया, आज मेरी कलम से शायद वही गुलाल अबीर छिड़क आता है, दिपदिपाता चौक और टेसू के रंग से नहाई माई परिकथा-सी मन में जमी हैं टी.वी. के पर्दे तरह-तरह की होली दिखाते हैं, बरसाने की, मथुरा की, राजस्थान की। मैंने भी देखी कई होलियाँ पर उस दमकते आँगन के सामने सब फीका लगता है, और अपने ही देश में बसे इस विदेश में तो होली के आते ही मन बुझ जाता है। कैसे सामना कर पाऊँगी इस त्यौहार का? इस आँगन रहित घर में सूखे मन में क्या गुलाल अबीर उड़ सकते हैं?
मन यादों की डायरी में कुछ पन्ने फड़फड़ाने लगे।

१ मार्च २००६

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