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संस्मरण

अटलांटा की होली और वसंत
-नीरजा द्विवेदी

बसंत ऋतु का आगमन कितने भव्य रूप में हो रहा है? दिगंबर जैन तपस्वियों जैसे पर्णविहीन वृक्ष श्वेतांबर जैन अनुयायियों में परिवर्तित हो रहे हैं। देवर्षि के आवास के समस्त वृक्ष पुष्पित हो उठे हैं।

अभी तीन दिन पूर्व तक बैरडफर्ड पियर के जिन वृक्षों को श्वेत कैन्डीटफ़ के दानेदार गुच्छों जैसे अधखिले पुष्पों ने आपाद-मस्तक, जड़ से शिखर तक आवृत्त कर रक्खा था, कल प्रात: से नवयौवन प्राप्त करके पुष्पित हो उठे हैं। चतुर्दिक दृष्टिपात करने पर मंद पवन की लय-ताल पर झूमते, मदमाते, श्वेत बैरडफर्ड पियर के वृक्षों की छटा अत्यंत चित्ताकर्षक प्रतीत हो रही है। कल तक जिन वृक्षों पर हरी पत्तियों का लेशमात्र भी अस्तित्व नहीं था, आज बीच-बीच में छोटी-छोटी हरी कोपलें कंटकों के रूप में प्रस्फुटित हो उठी हैं। मुझे गवाक्ष के बाहर विमुग्धावस्था में झाँकते देखकर अनामिका बोल उठी -
"मम्मी इन पेड़ों की बदलती छटा को देखती रहिएगा। एक सप्ताह के अंदर ही सब फूल खिलकर हरी पत्तियों से भर जाते हैं और उनकी छटा में परिवर्तन दिन-प्रतिदिन बड़ी शीघ्रता से होता है।"

लॉन में लगे वृक्षों के पुष्पों की ओर मुझे आकर्षित देखकर पाँच वर्र्षीय देवांश भागकर बाहर पहुँचा और लान में लगे एक वृक्ष की पुष्पों से लदी नीचे की टहनी को तोड़कर ले आया और फिर आगे झुककर बड़ी अदा से मुझे भेंट करते हुए बोला -
"दादी! दिस इज़ फार यू। डू यू लाइक देम?"

उसकी उत्सुकता भरी मनमोहक मुद्रा पर मुझे प्यार आ गया। सफ़ेद पुष्पों के सौंदर्य से जहाँ कक्ष जगमगा उठा, वहीं वातावरण में चमड़े जैसी तीव्र दुर्गंध भी फैलने लगी। मैने चौंककर इधर-उधर देखा और देवांश के हाथ-पैरों-जूतों पर गहन दृष्टि डाली। अपनी अति संवेदनशील घ्राण शक्ति के कारण अपनी नाक को साड़ी के पल्ले से दबाकर मुझे देवांश की तलाशी लेते देखकर देवर्षि ज़ोर से हंसने लगा। मुस्कुरा कर बोला -
"मम्मी आप क्या देख रही हैं? ये फूल इतने सुंदर होते हैं, परंतु यह चमड़े जैसी महक इन्ही ब्रैडफर्ड पियर के फूलों से आ रही है।"
स्वाभाविक रूप से ही मेरे हाथ पुष्प गुच्छ समेत मेरी नाक के समीप बढ़ गए। तीव्र दुर्गंध के भभके से मुझे नाक सिकोड़कर मुँह पीछे घुमाते देखकर देवर्षि, अनामिका व देवांश खिलखिलाकर हँस पड़े।

शाम को देवर्षि हम सबको लेकर बसंत व नीलम के यहाँ गया। सड़क के दोनों ओर ब्रैडफर्ड पियर के श्वेत पुष्पों से आच्छादित वृक्षों का सौंदर्य अवर्णनीय था। कहीं-कहीं पर अनेक चेरी ब्लोसम के गुलाबी पुष्पों से लदे वृक्षों की छटा गुलाबी परिधान धारण किए प्रतीत होती थी तो कहीं पर पीली सरसों और अमलतास के फूलों जैसे पीले फूल अपनी सौंदर्य प्रभा विकीर्ण कर रहे थे। नीलम ने बताया कि एक सप्ताह के अंदर डौगवुड फ्लावर्स खिल जाएँगे। उस समय तो अटलांटा की सुंदरता बस देखते ही बनती है। इस बीच बसंत बोल पड़े -
"यहाँ पर डौगवुड परेड होती है। टी.वी. पर भी उसका प्रसारण होता है। आप देखिएगा ज़रूर।"
"कैसी परेड?"  मैंने उत्सुकता से प्रश्न किया?
नीलम ने बताया, "जिस समय डौगवुड फ्लावर खिल जाते हैं, यहाँ डाउनटाउन में एक ग्रैण्ड परेड का आयोजन किया जाता है। लोग दूर-दूर से इसे देखने के लिए आते हैं।"

बसंत व नीलम के साथ हम सब माल व फ़ार्मर्स मार्केट घूमने गए। कुछ दिन पूर्व १४ फरवरी को 'वैलेंटाइन डे' मनाया गया था। अभी भी स्टोर्स 'हार्ट' की आकृति के कार्डों, गुब्बारों गुलदस्तों, चाकलेटों, खिलौनों और विभिन्न प्रकार के उपहारों से भरे जगमगा रहे थे। लौटने पर नीलम ने अपने लान में खिले दो-तीन पुष्पों की ओर इंगित करते हुए कहा -
"ये देखिए ये डेफोडिल्स के फूल हैं। ये मैंने भारत में नही देखे हैं।"
एक क्यारी में रंग-बिरंगे पेपर फ्लॉवर के बराबर फूल लगे थे - वाकई बहुत सुंदर थे। बचपन में पढ़ी वर्ड्सवर्थ की कविता 'डैफोडिल्स' की स्मृति हो आई। बहुत प्रयत्न करने पर भी समय के अंतराल से मानस से विलुप्त कविता की पंक्तियों को स्मरण न कर सकी।

आज बसंतपंचमी है और सबने मिलकर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया है। अनामिका व देवर्षि इंडियन रेस्ट्रां से खस्ता कचौड़ी, चाट और रसमलाई ले आए। सर्वप्रथम देवर्षि ने कराउके पर 'रिमझिम गिरे सावन' और 'मेरे नैना सावन भादों' गीत गाए। तत्पश्चात अनामिका ने 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है' कविता गाकर सुनाई। बसंत ने अटल जी व मुशर्रफ के चुटकुले सुनाए। नीलम ने बच्चों के हास्यास्पद प्रसंग सुनाए। मैंने बसंत ऋतु पर स्वरचित कविता - 'पहन शाटिका पीली-पीली, बसंत ने रंगमंच सजाया। युवा प्रकृति का पा संदेशा, ऋतुराजा प्रियतम आया' एवं कुछ शेर सुनाए। रात्रि के ग्यारह बज गए थे। अत: हम लोग विदा लेकर वापस चल दिए। देवर्षि के आवास तक पहुँचते-पहुँचते बारह बज गए - रात्रि बसंत सम गमक रही थी।

आज होली का त्योहार है। मेरे मन में भारत की होली की मीठी यादें रह-रह कर आ रहीं हैं। देवर्षि ने बताया है अटलांटा में भारतीयों की संख्या बहुत अधिक है परंतु यहाँ घर-घर या मुहल्ले-मुहल्ले में होली न खेलकर तीन स्थानों पर इकठ्ठे होकर होली खेली जाती है। 'इंडियन ग्लोबल माल' में होली का आयोजन उच्च स्तर पर होता है। 'अमेरिकन इंडियन कल्चरल एसोसिएशन' के सभी उत्सव भी इसी माल में होते हैं। 'शक्ति पीठ देवी मंदिर' में भी होली खेलने के लिए लोग एकत्रित होते हैं। उत्तरांचल एसोसिएशन व विश्वहिंदू परिषद ने मिलकर होली मिलन का आयोजन एक पार्क किराये पर लेकर किया था। वहाँ होली खेलने का कार्यक्रम दोपहर बारह से चार बजे के मध्य था। हम लोग वहीं होली खेलने गए थे। वहाँ खूब रंग खेला गया और जमकर पीना, खाना और नाचना-गाना हुआ। सभी वर्ग, आयु एवं लिंग के लोग मस्त होकर यहाँ भारत की संस्कृति का स्थापन कर रहे थे।

अगले दिन इंडियन ग्लोबल मॉल के शिवमंदिर में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसकी आयोजिका श्रीमती कुसुम सिन्हा एवं श्रीमती मंजू तिवारी थीं। संचालन श्याम तिवारी ने किया। श्री भूदेव शर्मा, राकेश जी, पाठक जी का भी कवि सम्मेलन के आयोजन में सक्रिय सहयोग था। वहाँ बारह कवयित्रियाँ व कवि उपस्थित थे। मैं अकेली भारत से आई थी, बाकी कविगण स्थानीय थे। सीमा पाठक नामक एक नवोदित कवयित्री का प्रयास बहुत अच्छा था। मैंने अपने दो गीत गाकर प्रस्तुत किए और बैठने लगी, तो सबने और गाने का आग्रह किया। सबके आग्रह पर एक गीत और सुनाया। रात के दस बजे सूक्ष्म जलपान के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ।

अमेरिका में अन्य उन स्थानों पर भी, जहाँ पर भारतीयों की संख्या अधिक है, होली का आयोजन धूमधाम से होने लगा है। मुझे यह जानकर अत्यंत आश्चर्य हुआ और प्रसन्नता भी कि हिंदुओं के इस रंगारंग पर्व पर विदेश में लोग बिना जाति-धर्म, वर्ण, देश-परदेश की भावना का विचार किए सम्मिलित होने लगे हैं। साथ ही हृदय में यह सोचकर कसक भी उठी कि बचपन में हम जितने उत्साह से हिंदू-मुस्लिम का विचार किए बिना होली खेला करते थे, वह भावना अब भारत में समाप्त हो रही है। दंगे की आशंका ने त्योहार का रंग फीका कर दिया है। मुझे स्वलिखित कविता की ये पंक्तियाँ अनायास याद आ गईं :
"दिल से दिल जब मिल न सके तो,
क्या रंग-गुलाल, क्या हँसी-ठिठोली?,
मनोमालिन्य यदि मिट न सके तो -
कहाँ का फागुन? कैसी होली?"

९ मार्च २००६

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