हास्य व्यंग्य | |
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हो-ली सो होली |
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बरसाने लाल ने जब से सुनी है कि ब्रिटेन और फ्रांस क्या अमेरिका तक की पार्लियामेंट
में दिवाली मनाई गईं, उनके मन में खलबली मच गई हैं। सर पर एक भूत सवार है कि
इसबार विदेश में ही होली मनाएँगे वह भी। ऐसी होली कि दुनिया देखती रह जाए - याद
रखें उन्हें और उनके भारत को - उनकी सभ्यता को। बरसों तक ना भूले कि बस भाषण देना
ही नहीं, भारतीयों को हँसना-हँसाना भी आता है। बाहर मोहल्ले के हुड़दंगिए टीन
कनस्तर पीट-पीटकर होली के लिए चंदा माँग रहे थे। घर का लक्कड़ कबाड़ - टूटी कुरसी,
फटा सोफा - पुराना और बेकार, सब दे दो। 'क्यों जी यह टूटी मेज़ दे दूँ इस बार
इन्हें?' पत्नी पूछ रही थी। 'हाँ हाँ क्यों नहीं और खुद को भी।' तुरंत ही मित्र की अनुमति से 'विश्व मैत्री संघ' नामकी संस्था बना डाली गईं। आनन-फानन ही सदस्यों की सूची व योजना और कार्य-प्रणाली का खाका भी तैयार हो गया- शर्त, नियम और कानून सबके साथ मुकम्मल। अब होली से बढ़िया और कौन-सा त्योहार हो सकता हैं मित्रता और सद्भावना के लिए जिसमें न सिर्फ़ सारी ग़लतियों और विषमताओं को भूलकर दुश्मन के गले मिला जा सकता हैं अपितु विषमताओं और ग़लतियों का बदला भी तो लिया जा सकता है? मुँह काला पीला कर दो, गधे पर बिठाकर घुमा दो, बैंड बजवा दो, कोई बुरा नहीं मान सकता। आख़िर हो--ली सो होली। बिल्कुल अपनी भारतीय परंपरा क्या, मानवीय और विश्व परंपरा की तरह ही - एक हाथ से थप्पड़ मारो और दूसरों से तुरंत ही गाल सहला दो - सब ठीक पल भर में ही। खुद बाँकेबिहारी की बैठकी में सब-कमेटी बनी और तुरंत ही समस्त कार्यभार सक्षम पी. ए. मथुरा प्रसाद जी के सूझ-बूझ भरे कंधों पर डाल दिया गया। वैसे भी बाँकेबिहारी जी अंगूठा लगाने से ज़्यादा कोई सरदर्द कभी नहीं लेते। मथुरा प्रसाद ने भी बिना वक्त ख़राब किए तुरंत ही ना सिर्फ़ पूरी मित्र-मंडली, काशी प्रसाद, बिहारी लाल, अवध बिहारी, गया प्रसाद और ब्रिजरमण सभी को बुला लिया, बल्कि यह भी बता दिया कि अगली होली इंग्लैंड में ही मनानी हैं, कैसे और कहाँ यह सब आप मिलकर सोचो। अगर इस मनमोहन सरकार के नीचे सोनिए के राज में भी यह न कर पाए तो कभी भी न कर पाओगे। सभी संग हो अधिवेशन की तैयारी में जुट गए। निश्चय किया गया कि होली भी पार्लियामेंट में ही होनी चाहिए। काशी प्रसाद जी ने प्रस्ताव रखा कि हमारी काशी में तो धुलहटी के साथ-साथ होली की शाम एक मूर्खाधिवेशन का भी रिवाज़ है। जिसमें सारे नामी-गिरामी मूर्ख इकठ्ठे किए जाते हैं और उन्हें अनूठे-अनूठे नाम और सम्मान दिए जाते हैं - जैसे कि घर फूँक तमाशा देख, मान न मान मैं तेरा मेहमान, बछिया का ताऊ, धूमकेतु आदि-आदि। सभापति के लिए सर्व सम्मति से बुश का नाम पास हो गया और ब्लेयर, सद्दाम सहित तुरंत ही तीस-चालीस निमंत्रण पत्र भी लिख डाले गए। ऊपर सत्यमेव जयते के साथ यह भी छापा गया कि बुरा ना मानो होली है। बाकी सब मेहमान तो आने को राज़ी हो गए परंतु चीन और पाकिस्तान ने आने में यह कहकर असमर्थता ज़ाहिर कर दी कि वे तो यह वाला अधिवेशन हर महीने ही करते हैं और इसी व्यस्तता के रहते आने में असमर्थ हैं। बिहारी लाल का सुझाव आया कि इसबार ठंडाई में भांग, गुलाबजल, बादाम और सौंफ के संग थोड़ा भारतीय चारा भी ज़रूर ही घुटना चाहिए क्यों कि आजकल विदेशी मालों की भरमार होने के कारण भारत में देशी चारे तक की खपत बिल्कुल ही ख़तम हो गई हैं क्यों कि गाय भैंस तक को बस विदेशी चारा ही चाहिए। सुना है समिति अभी भी इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है। अवध बिहारी और गया प्रसाद ने एक हास्य कवि सम्मेलन का ज़िम्मा ले लिया और सुनाने के लिए नए-नए होली के गीत और रसिया रचने लगे। जैसे कि होली खेलें अवध में रघुबीरा की अगली लाइन लिखी गई - अल्लाह के हाथ कनक पिचकारी, साहिब के हाथ अबीरा क्यों कि उन्हें इस होली की ठिठोली में बेमतलब की और बेसुरी बाबरी और दरबारी नहीं चाहिए थी। बरसाने लाल ने होली के स्वांग के लिए लखनऊ से कुछ पुलिस अधिकारी और मंत्रियों को
बुलवा लिया क्यों कि सुनते हैं वहाँ पर आजकल बहुत ही मुलायम ककड़ियों और भिंडियों की
माया फैली हुई है। इस तरह से सभी इस आयोजन से खुश थे, ख़ास करके अब जब कि खुद बिल
क्लिंटन ने होली के उस स्वांग में ना सिर्फ़ कृष्ण कन्हैया बनना स्वीकार कर लिया था
वरन सभी गोपिकाओं को लाने की ज़िम्मेदारी भी खुद अपने ऊपर ही ले ली थी। उस चुस्त-दुरुस्त ऑफ़िसर के आगे विपदा के मारे मथुरा प्रसाद जब
गिड़गिड़ाते-गिड़गिड़ाते थक गए तो झल्लाकर बृजभाषा में ही रोने लगे, ज़रा भी डरे या विचलित हुए बगैर, बेख़बर पांडे जी हाथ ऊपर उठाए अभी भी वैसे ही
गोल-गोल घूम रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से गा रहे थे, "कान्हा ने कीन्हीं बरज़ोरी होरी
पर/भीज गई मोरी अंगिया सारी होरी पर।" बीच-बीच मैं खुद ही जय राधे की टेक लगाकर
एकाध ठुमका भी ले लेते थे वह। "अरे भाई पर हम भी तो होली जैसा गंभीर त्यौहार मनाने सात समंदर पार यहाँ पर,
तुम्हारे देश में आए हैं।" मथुरा प्रसाद जी ने इस बार हाथ जोड़कर दाँत निपोरे। पर अब दोष भी तो नहीं दिया जा सकता उसे - मंत्रालय का सख़्त आदेश जो है कि विदेश जाते समय हर ओरिजिनल की कॉपी ज़रूर ही रखनी चाहिए अपने पास। १ मार्च २००६ |