आज मैं आपको एक ऐसे आदमी की रामकहानी
सुनाता हूं जिसके बारे में जानना चाहिए। जानना इसलिए चाहिए
क्योंकि जो हम जानते हैं, मामला ठीक वैसा नहीं है। आदमी
होता कुछ है और हम समझते कुछ हैं।
दरअसल, ये रामकहानी नहीं है श्यामकहानी है। जिनकी ये कहानी
है उनका नाम श्यामलाल शर्मा हुआ करता था। लोग समझते हैं कि
श्यामलाल शर्मा उर्फ़ अल्हड़ बीकानेरी राजस्थान के रहने वाले
हैं चूंकि नाम में बीकानेरी लगा है और देखिए गड़बड़ यहीं
से शुरू हो गई। बंदा राजस्थान का है ही नहीं, हरियाणा का
है।
राजस्थानी समझे जाते हैं
हरियाणा में छोटा–सा गांव है बीकानेर। जहां न महल हैं न
हवेलियां, न रेगिस्तान है न रंग–बिरंगी पनिहारी नवेलियां।
भारत के छोटे गांवों जैसा गांव है। अल्हड़ जी लगातार सफ़ाई
देते आ रहे हैं – 'कैसा क्रूर भाग्य का चक्कर, कैसा विकट
समय का फेर, कहलाते हम बीकानेरी, कभी न देखा बीकानेर। जन्मे
बीकानेर गांव में, जो है रेवाड़ी के पास, पर हरियाणा के ऊतों
ने, डाली हमको कभी न घास। हास्य–व्यंग्य की तलवारों के पानी
समझे जाते हैं, हरियाणवी पूत हैं, राजस्थानी समझे जाते
हैं।'
बुरादे में बचपन
बचपन रेगिस्तान की धूल में नहीं लकड़ी के बुरादे की धूल
में बीता। पिताजी किंग्ज़वे कैंप स्थित हरिजन उद्योगशाला
गांधी आश्रम के काष्ठकला विभाग के प्रशिक्षक थे। लकड़ी का
नापजोख, वसूली चलाना और रंदा फिराना सिखाते थे। ये भी
सिखाते थे कि चूल में चूल कैसे बिठाई जाती है। उन्होंने
बालक श्याम के कान पर भी एक पैंसिल रख दी। रंदे से पैंसिल
छीलना भी सिखा दिया। आज मैं महसूस कर सकता हूं कि अल्हड़
जी की कविता पर काष्ठकला का कितना गहरा प्रभाव पड़ा। वे
अपनी कविता में कच्ची लकड़ियों का इस्तेमाल नहीं करते।
शिल्प पर इतना काम करते हैं कि शीशम को पच्चीकारी वाला शीशा
बनाते हैं। ग़ज़ल हो या छंदबद्ध शायरी, नाप में एकदम
परफैक्ट रहती हैं। अगली लाइन की चूल पिछली लाइन से इस तरह
मिली होती है कि आप जोड़ का पता नहीं लगा सकते। शायरी
बेजोड़ होती है उनकी।
छोटा–सा बालक चिरी हुई लकड़ियों पर दिल चीरने वाली शायरी
लिखता था। आश्रम में ही रहते थे वियोगी हरि, उनके पिता के
अभिन्न मित्र। उन्होंने श्याम को कापी थमा दी– 'श्याम बेटा!
लकड़ियों पर नहीं काग़ज़ पर लिखो।'
लकड़ी का बुरादा पिताजी को रास नहीं आया। दमे की बीमारी ने
घेर लिया। सपरिवार गांव बीकानेर में आ गए। आमदनी के सारे
ज़रिए ख़त्म हो चुके थे। जमा पूंजी लुट चुकी थी। पूरी तरह
बेरोज़गार थे पिताजी। बालक श्याम ने हाई स्कूल तक हर कक्षा
में टॉप किया लेकिन हालात ने इंटर पूरी नहीं करने दी। अच्छी
बात ये हुई कि गांव की आबोहवा में पिताजी थोड़े स्वस्थ हुए।
कोई भी शिल्पकार अपनी रचनात्मक ऊर्जाओं को दबा नहीं सकता।
गांव में फर्नीचर तो भला कौन ख़रीदता। पिताजी लगे
हारमोनियम बनाने। उनके बनाए हारमोनियम बड़े सुरीले होते
थे। दूरदराज के गांवों में भी उनके हारमोनियम की मांग थी।
मां भजन गाती थी। शिवजी का ब्याह उसे पूरा याद था। पिताजी
हारमोनियम बजाते थे। यहीं से श्याम के व्यक्तित्व में
संगीत का प्रवेश हुआ। मां के साथ भजन गाने में उसे आनंद आता
था।
चौदह वर्ष का ग्रामवास पूर्ण हुआ तो छप्पन में वियोगी हरि
जी का न्यौता मिला– 'आपके जाने के बाद काष्ठकला का
डिपार्टमेंट एकदम बैठ गया। आ जाइए फिर से। इस बार आप
परीक्षक नहीं बल्कि निरीक्षक बनें।' परिवार पुनः महानगर की
डगर पर चल पड़ा।
तेरा नाम रखूंगी बाबा
परिवार, बोले तो, ज़्यादा बड़ा नहीं था। सब ज़िंदा रहते थे
नौ भाई बहन होते। अल्हड़ जी से पहले तीन भाई भगवान जी को
बड़े प्यारे लगे, खींच लिया ऊपर। नानी ने खाटू वाले श्याम
बाबा से मनौती मांगी– मेरी बेटी की अगली संतान जी जाए तो
पांच सेर लड्डुओं का प्रसाद चढ़ाऊंगी। लड़का हुआ तो तेरा
नाम ही रखूंगी बाबा, श्याम! लड़की हुई तो नाम रखूंगी श्यामा।
तो जी, नवजात जी गया, नाम मिला श्यामलाल शर्मा। उसके बाद
तीन भाई और आए पर भगवान जी को और भी प्यारे लगे, उनको भी
जल्दी खींच लिया। फिर शायद भगवान को तरस आया होगा कि एक
बहन इसके लिए छोड़ दी जाए। तो नौ में से बचे दो। इनकी
प्यारी छोटी बहन सन 2004 में चली गईं। अब अल्हड़ जी रह गए
हैं अपने भाई–बहनों में अकेले। वैसे इस समय उनका नाती–पोतों
से भरा–पूरा परिवार है। उनका साहित्यिक परिवार पूरे देश
में फैला हुआ है। सैकड़ों शिष्य हैं लाखों चाहने वाले हैं।
दस–पंद्रह साल लग गए
श्यामकहानी में रिवर्स गेयर लगाते हैं। फिर से चलते हैं सन
छप्पन की ओर। इंटर फेल श्यामलाल को नौकरी करनी पड़ी। पिताजी
की इकलौती तनख्वाह में काम नहीं चलता था। बहन की शादी में
एक हज़ार रूपया कर्ज़ लेना पड़ा। श्यामलाल की नौकरी लगी
पोस्ट ऑफ़िस में तो ब्याज का सहारा हो गया। ढाई साल तक
श्यामलाल की तनख्वाह एक हज़ार के ब्याज के रूप में जाती थी
और पिताजी की तनख्वाह से घर चलता था। पिताजी गुज़र गए,
गांधी आश्रम का फ्लैट छूट गया तो शायद उधारकर्ता को थोड़ा
रहम आया। उसने ब्याज लेना बंद कर दिया। अल्हड़ जी बताते
हैं कि मूलधन एक हज़ार रूपया चुकाते–चुकाते दस–पंद्रह साल
लग गए।
मूलधन चुकाने में कव्वाली काम में आई। जिस दिन पहली बार
हबीब पेंटर की कव्वालियां सुनी, उसके अगले दिन ही इन्होंने
भी एक लिख मारी– 'बहुत कठिन है डगर पनघट की।' उस्ताद महीब
देहलवी की सोहबत से कव्वालियों में निखार आया। चार–पांच
साल तक रात–रातभर कव्वालियां गाईं। लय में तालियां बजाईं।
फिर अपनी छोटी–सी मंडली बना ली। सात रूपए बतौर गायक–शायर
श्याम को मिलते थे, पांच रूपए ढोलक बजाने वाले को और तीन
रूपए ताली बजाने वाले को। ये सिलसिला पांच साल तक चला।
श्याम से माहिर
कव्वालियों में संगीत का मज़ा तो था लेकिन शायरी का
रचनात्मक लुत्फ़ नहीं। रसा देहलवी, गुलज़ार देहलवी, साहिल
होशियारपुरी, सलाम मछलीशहरी, रज़ा अमरोहवी जैसे शायरों का
सत्संग मिला तो ग़ज़ल कहने लगे। नाम रख लिया माहिर बीकानेरी।
एक दोस्त आर्मी में था दूसरा नेवी में। आर्मी हेडक्वार्टर
पर रम की बोतल के ईद–गिर्द शायरी जाम छलछलाते थे। लेकिन,
आर्थिक तंगी ने बेहाल किया हुआ था। हालात लगातार क्रूर हो
रहे थे। बहुत जल्दी–जल्दी घर में मौत ने अपनी लीलाएं दिखाईं।
पिताजी नहीं रहे। पत्नी चल बसीं। दूसरा बेटा तीन साल की
उम्र में गुज़र गया। एक वक्त ऐसा आया कि घर में केवल दो
प्राणी रह गए। अपने अलावा एक मां।
माहिर से अल्हड़
नाम रख लिया था माहिर पर ज़िंदगी चलाने में माहिर नहीं थे।
स्थितियां तब बदलीं जब स्वयं को माहिर मानना बंद कर दिया
और अल्हड़ता की ओर लौटे। छोटी साली पत्नी बनी। हास्य की
दिशा ने घर की तंगहाली दूर कर दी। अल्हड़ नाम रखने के बाद
से सफ़र शानदार गुज़र रहा है। गाकर हास्य सुनाने वाले वे
अपनी तरह के अकेले कवि हैं। अपने हास्य लेखन को वे अपनी
कलम का कौशल मानते हैं। आंतरिक खुशी आज भी गंभीर ग़ज़लों
से ही मिलती है।
स्वावलंबन पेय
आर्मी हैडक्वार्टर में नसीहत मिली थी कि दूसरों की नहीं
पीनी है। तब से अल्हड़ जी एक चमड़े पाउच में स्वावलंबन पेय
रखते हैं और उसे कहते हैं काला नाग। मंच पर अपनी बारी आने
से पहले वे पीछे जाते हैं, बैग में रखे काले नाग का ढक्कन
खोलकर उसे बीन की तरह बजाते हैं और गटागट ध्वनि के बाद मंच
पर झूमकर सुनाते हैं। कई बार काले नाग का दंश ज़्यादा हो
जाता है तो कम सुनाते हैं। मैंने उनकी ज़बान को लड़खड़ाते
नहीं देखा। आज उनकी नानी जीवित होतीं तो खाटू के श्याम बाबा
से मनौती मनातीं– हे बाबा! मेरे श्याम को काले नाग से बचा।
उनसे पहली मुलाकात
अल्हड़ जी से अपनी मुलाकात रेल में दिल्ली से मद्रास जाते
हुए सन अठहतर में हुई थी। एक कवि और थे इनके साथ– हरिओम
बेचैन। दोनों की एक जैसी अटैची, एक जैसी पैंट, एक जैसी
कमीज़। एक जैसी कविता नहीं थी लेकिन। अल्हड़ जी छंदबद्ध
कविताएं गाकर सुनाते थे, हरिओम बेचैन मुक्त छंद में
स्थितिप्रधान हास्य रचते थे, जिनमें प्रायः महिलाओं पर
मज़ाक होता था। ऊपरी परिदृश्य के अलावा इन दोनों कवियों
में कोई समानता नहीं थी। मैत्री थी चुंबक के दो ध्रुवों की
तरह। एक छोर पॉज़िटिव एक निगेटिव। अल्हड़ जी किसी कवि को
जमते देखकर प्रसन्न होते थे, हरिओम ईर्ष्या से राख हो जाते
थे।
मद्रास में एक साथ लगे हुए दो कार्यक्रम थे। चार फरवरी को
काका नाइट और पांच फरवरी को बेकल नाइट। मैं तो कविसम्मेलनों
का कवि था नहीं फिर भी मेरी कविता जम गई तो दोनों कवियों
पर अलग–अलग प्रभाव पड़ा। हरिओम बेचैन का ईर्ष्या से
दिपदिपाता हुआ चेहरा मुझे आज तक याद है। मुझे याद है उनका
वो कथन जो सुनने में ऊपर से तो अच्छा था लेकिन आंतरिक
सद्भावना से शून्य। उन्होंने अल्हड़ जी से कहा– 'अशोक एक
गंभीर कवि है, इससे अपनी कविता से पहले श्रोताओं को हंसाने
की जो कोशिश की थी वो ठीक नहीं थी। इसे हास्य के क्षेत्र
में नहीं आना चाहिए। गंभीर कविताएं सुनाए, वही ठीक रहेगा।'
अल्हड़ जी ने प्रतिरोध किया– 'क्या बात कर दी! अपनी जिन
टिप्पणियों से अशोक ने हंसाया वे मौलिक थीं और तत्काल की
गईं थीं। अच्छा है कि हास्य के क्षेत्र में एक नया कवि आया।'
हरिओम बिगड़ गए– 'आज तो चलो ख़ैर काका नाइट थी, हंसा दिया
तो कोई बात नहीं, कल बेकल नाइट में अपनी वो कविताएं सुनाना
जो उतरार्द्ध जैसी पत्रिका में छपती हैं। जो तुमने रेल में
सुनाई थीं।' मैंने सौम्यता से उतर दिया– 'बंधुवर मेरे पास
हास्य की कोई कविता है भी नहीं, चिंता न करिए।' अल्हड़ जी
ने कहा– 'कल का पूरा दिन है। मुझे उम्मीद है अशोक शाम के
लिए एक दो हास्य कविता ज़रूर लिख देंगे।'
मैं एक जैसे चौखाने की कमीज़ पहने हुए दोनों कवियों को
विस्मय से निहार रहा था। अल्हड़ जी ठीक थे। मैंने पांच
फरवरी को दो हास्य–व्यंग्य रचनाएं लिखीं– 'डैमोक्रैसी' और
'कुता–नीति'। मंच का तत्कालीन संप्रेषणधर्म मुझे चार फरवरी
को समझ में आ गया था। पांच फरवरी को ये दोनों कविताएं
श्रोताओं ने पसंद कीं। मैं एक मंझे हुए मंचीय कवि की तरह
स्वीकार कर लिया गया। सबने सराहा पर हरिओम जी ने नहीं।
अल्हड़ जी ने अपने हरे रंग की स्याही वाले पेन से एक पत्र
जयपुर कविसम्मेलन के आयोजक श्री विश्वंभर मोदी को लिखा।
पत्र की इबारत तो मुझे पूरी तरह याद नहीं लेकिन ये याद है
कि हरे रंग की स्याही से लिखा गया था। उसमें मेरी तारीफ़ थी
और यहां तक लिखा था कि इस बार मैं जयपुर नहीं आऊंगा, मेरी
जगह अशोक चक्रधर आएंगे। अल्हड़ जी के इस उदार प्रोत्साहन
से मैं अभीभूत हो गया। पत्र देखकर हरिओम का चेहरा श्मशान
का भूत हो गया।
अठहतर के बाद अल्हड़ जी के साथ अपने सत्संग की श्यामकहानी
कभी आगे बताऊंगा, फिलहाल पांच फरवरी को डैमोक्रैसी शीर्शक
से जो कविता मैंने लिखी थी और अल्हड़ जी जिसके पहले श्रोता
थे उसका प्रारंभिक अंश पेश करता हूं–
एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर मुस्कुराए,
कुछ नये से भाव उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा–
क्यों भई, ये डैमोक्रैसी क्या होती है?
पी.ए. कुछ झिझका, सकुचाया, शर्माया।
– बोलो, बोलो, डैमोक्रैसी क्या होती है?
– सर, जहां जनता के लिए
जनता के द्वारा, जनता की
ऐसी–तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है
9 जून 2006 |