भारतवर्ष में कवि–सम्मेलन और मुशायरे
खूब होते हैं। मंच से कविता सुनाने वाले कवियों और सुनने
वालों की संख्या का सानुपातिक आंकड़ा निकाला जाए तो हमारा
देश विश्व में सबसे ऊपर होगा। लोग कविता सुनने के शौकीन
हैं। ऋतुओं की मार की परवाह किए बिना रात–रातभर कविताएं
सुनते हैं, सराहते हैं और कवियों शायरों को दिल से चाहते
हैं। कवि शायर मगन रहते हैं लेकिन कभी–कभी कराहते हैं।
कविसम्मेलनों के सत और असत पक्ष क्या हैं, कहां राहत है,
कहां चाहत है। कहां विरासत को आगे बढ़ाने का मज़ा है और कहां
कवि सांसत में आ जाता है, इनकी बड़ी मार्मिक और चार्मिक
अंतर्कथाएं हैं। प्रत्येक कविसम्मेलन जीवन और मरण के बीच
के किसी बिंदु का कोई न कोई नया संस्मरण दे जाता है।
सन दो हज़ार चार के लगभग मध्य से एक बहुत अच्छी बात हुई है
कि इलैक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया ने लगभग दस साल बाद मंच
की कविता और कवियों को घनत्वपूर्ण महत्व देना प्रारंभ किया
है। 'वाह–वाह', 'अर्ज किया है' और 'चकल्लस' जैसे नियमित
कार्यक्रमों ने कविता के श्रोताओं की संख्या में बेइंतिहा
इज़ाफ़ा किया। बड़े–बड़े शहरों में विभिन्न क्षेत्रीय
समाचार–पत्रों ने भी स्थान–स्थान पर कविसम्मेलन श्रृंखलाएं
आयोजित करके मंच की कविता को पुनर्जीवन प्रदान किया है।
मीडिया के इस स्फूर्तिवान प्रोत्साहन से न केवल श्रोता बढ़े
हैं, बल्कि सरल, सहज, संप्रेषणधर्मी कविताएं लिखने वाले
कवियों की एक लहलहाती हुई फसल तैयार हुई है।
इस फसल को कौन काटेगा? कौन दाने निकालेगा? क्या यह सिर्फ़
कटकर रह जाएगी अथवा हमारे देश के लिए एक स्वस्थ सांस्कृतिक,
साहित्यिक व्यंजनों में रूपांतरित होगी? यह एक ताज़ा सवाल
है। और इस सवाल से जुड़े हुए और भी सवाल हैं जो इस विधा के
अनुभवी रचनाकारों से एक संजीदा सामाजिक दायित्वपूर्ण और
सकर्मक उतर की मांग करते हैं।
मुझे ये नये–नये और सद्योजात कवि विभिन्न विश्वविद्यालयों
और संस्थाओं के विभिन्न संकायों, छात्रावासों के
सांस्कृतिक समारोहों में मिलते हैं। इनकी आंखों में नये
ज़माने की दीप्ति, विरासत को जानने की तमन्ना, सीखने की
इच्छा, संशोधन की कामना और मंच पर आने की ललक होती है। ऐसे
कितने ही नौजवानों से मैं काफ़ी अरसे से मिलता आ रहा हूं।
प्रसिद्धि का प्रसाद हर किसी को नहीं मिल पाता। जिनको मिलता
है वे अचानक समझ नहीं पाते कि कैसे मिल गया। जिनको नहीं
मिलता वे कुंठित हो जाते हैं कि क्यों नहीं मिला। सोचते नहीं
हैं कि कैसे नहीं मिला। अब तो इन नवोदित कवियों की संख्या
गुणात्मक तरीके से बढ़ रही है। कहां हैं वे लोग जो इनसे
संवाद करें? मंच पर जाने वाले कवियों के पास क्या इतना समय
है कि मंच पर आने की कामना रखने वाले इन कवियों को मंच
पदार्पणपूर्व संवाद का एक मंच प्रदान कर सकें।
संगीत के क्षेत्र में 'इंडियन आयडल', 'अंताक्षरी' और 'सारेगामा',
नृत्य के क्षेत्र में 'वूगी–वूगी' और पश्चिमी नृत्य के टीवी
कार्यक्रमों ने संगीत–नृत्य–ज्ञान के जन–प्रसार का
महत्वपूर्ण कार्य किया। नयी पीढ़ी के बालकों ने इन
कार्यक्रमों के ज़रिए, देखते–देखते ही अच्छाख़ासा
अनुभवजन्य लय–ताल ज्ञान अर्जित कर लिया है। नयी पीढ़ी में
व्यापक स्तर पर पौपुलर कल्चर की कलात्मक इच्छाएं गुनगुनाने
लगी हैं, थिरकने लगीं। कविता के क्षेत्र में मामला सिर्फ़
नयी पीढ़ी तक सीमित नहीं है। अस्सी साल के बुजुर्गों में
भी कविताएं अचानक हिलोरें मारने लगी हैं।
माना कि कवियाए हुए उदीयमानों की संख्या संगीताए हुए लोगों
से बेहद कम है फिर भी है तो सही। संगीत पर आधारित
कार्यक्रमों में चूंकि स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के
लिए प्रतियोगिताएं रहती हैं, इसलिए संगीत–शिक्षा की ओर
आकर्षण बढ़ा है। गली–गली में इंडियन और वेस्टर्न म्यूज़िक
के संस्थान खुल गए हैं, दुकानें चल रही हैं। कविता की
शिक्षा का बंदोबस्त कहीं नहीं है।
देखा जाए तो संसारभर में ऐसा कोई संस्थान अथवा
विश्वविद्यालय है ही नहीं जो कविता लिखने की ट्रेनिंग देता
हो। कविता क्या होती है? कविता की व्याख्या कैसे की जाए?
यह तो सब जगह पढ़ाया जाता है लेकिन तुम कविता कैसे लिख सकते
हो, स्वयं को कवि कैसे बना सकते हो, ऐसे संस्थागत प्रयत्न
न के बराबर हैं।
मुद्दा बहस का है। कुछ लोग मानते हैं कि कविता जन्मजात
प्रतिभा से होती है। सिखाई नहीं जा सकती। काव्यात्मक
कलात्मक अभिव्यक्ति हर किसी के बसकी बात नहीं। मेरा मानना
इससे उल्टा है। जहां भी मौका मिलता है, मैं कहता हूं कि इस
धरती पर जितने मनुष्य हैं वे सब के सब कवि हैं, क्योंकि
उनके अंदर भावना है, कल्पना है, बुद्धि है और ज़िंदगी का
कोई न कोई मकसद है। इन चार चीज़ों के अलावा कविता को और
चाहिए भी क्या।
प्रेम के घनीभूत क्षणों में निरक्षर, निर्बुद्ध और
कलाविहीन व्यक्ति भी पल दो पल के लिए ही सही, शायर हो जाता
है। अभिव्यक्ति का कोई न कोई नयापन हर मनुष्य संसार को
देकर जाता है। अभिव्यक्ति का नयापन ही कविता होती है। इसमें
आगे मेरा मानना है कि उस नयेपन को मांजा और तराशा भी जा
सकता है।
मेरे ख़्याल से आप मुझसे सहमत होंगे कि भले ही सुर में न
गाता हो पर हर मनुष्य गायक है। इसी आधार पर आप मेरी इस
धारणा पर भी अपने समर्थन की मोहर लगा दीजिए कि भले ही कविता
के प्रतिमानों और छंदानुसाशन का ज्ञान न रखता हो पर हर
मनुष्य कवि है। जिस तरह संगीत का शास्त्रीय ज्ञान बहुत कम
लोगों को हो पाता है उसी प्रकार कविता का भी। संगीत की
अच्छी प्रस्तुति के लिए सुरों का न्यूनतम ज्ञान और रियाज़
ज़रूरी है इसी तरह न्यूनतम शास्त्र ज्ञान और अभ्यास से
प्रस्तुति लायक कविता भी गढ़ी जा सकती है।
तथाकथित महान साहित्यकार मंच की कविता को कविता मानते ही
नहीं हैं। उनसे बहस में नहीं उलझना चाहता। मंच की कविता को
पूर्ण कविता मैं भी नहीं मानता, लेकिन जिसे वे पूर्ण कविता
सिद्ध करना चाहते हैं वह पूर्ण कविता हो ये भी नहीं मानता।
शास्त्रीय कविता सार्वकालिक होती है। हर युग में याद की
जाती है। उसकी सरलता या जटिलता मायने नहीं रखती, मायने यह
बात रखती है कि उसका अपने युग और जीवन से कितना सरोकार है।
दूसरी बात, हंसाना कोई पाप तो नहीं। साहित्यकारों का एक बड़ा
वर्ग ऐसा भी है जो हंसाने वाले काव्यात्मक प्रयत्नों को
काव्य के घेरे में घुसने ही नहीं देता। चलिए, उनसे भी कैसा
शिकवा!
इस समय समस्या तो ये है कि तुकबंदी अथवा बंदतुकी के अनेक
प्रकारों में स्वयं को कविता के रूप में पहचाने जाने के
लिए जो फसल दिख रही है उसके लिए क्या किया जाए। खाद कहां
से लाई जाए? पानी कहां से जुटाया जाए? खरपतवार कैसे निकाली
जाए? कविता की वालियों को भ्रांतिमान अलंकारों के टिड्डों
से कैसे बचाया जाए? बाज़ारवादी इस युग में उसकी पैंठ कहां
लगे? आढ़तियों के बिना गुज़ारा भी नहीं है, पर कविता के
गल्लेबाज़ों से नये किसानों के हितों की रक्षा कैसे की जाए।
नयी स्थितियों से पैदा हुए ये नये सवाल हैं। 'वाह–वाह'
कार्यक्रम के दौरान मैंने एक प्रयोग शुरू किया था।
सम्मिलित तीन कवियों में से किसी एक कवि की कविता से
संदर्भ लेते हुए मैं आमंत्रित श्रोताओं को एक पंक्ति देता
था। दूसरी पंक्ति श्रोता बनाते थे। स्टूडियो में पच्चीस–तीस
श्रोता होते थे, सबको दूसरी पंक्ति लिखने के लिए एक पर्ची
और पांच मिनट का समय दिया जाता था। ढंग के प्रयत्न चार–पांच
ही होते थे, लेकिन दूसरी लाइन बनाता हर कोई था। ये तो रही
स्टूडियो में आए हुए श्रोताओं की बात। लेकिन मुझे ज्ञात है
कि व्यावसायिक अंतराल के समय लाखों दर्शक–श्रोता दूसरी
पंक्ति बनाने में स्वयं को खर्च कर रहे होते थे। कितने ही
लोगों ने फ़ोन, फैक्स, ई–मेल एवं पत्रों से स्वचरित दूसरी
पंक्ति भेजी। कुछ कवि पूरे सप्ताह की समस्यापूर्ति लिखकर
भेजते थे।
तो हे तात! तात्पर्य ये हुआ कि हिंदी, उर्दू और हमारे हिंदी
प्रदेशों की लोक–भाषाओं में कविताई की बाढ़ आई हुई है। अभी
ये सबको दिखाई नहीं दे रही। दिखाई देने लगेगी अगर संगीत के
प्रतियोगिताधर्मी कार्यक्रमों के समान इलैक्ट्रॉनिक मीडिया
कविता–प्रतियोगिताएं भी आयोजित कराने लगे।
हे मंचीय जमउअल कवियों! हे वाचिक परंपरा को प्यार करने वाले
काव्यशास्त्रियों! कविता की बाढ़ के पानी की रवानी और जवानी
की जय–जयकार करने का वक्त आ गया है। कविसम्मेलनी कविता यदि
शुद्ध कविता नहीं भी मानी जाती है तो उसे रूपंकर कलाओंका
अंग मानते हुए नयों का स्वागत करो।
मैंने कहीं पढ़ा था कि संगीत मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाता
है। मुझे लग रहा है कि कविता की रचना उसे बेहतरतर मनुष्य
बनाएगी। हां, कविसम्मेलन मंच के सत और असत को निःसंकोच
सामने लाया जाए। व्यापक स्तर पर संवाद सजाया जाए। कविता के
औज़ार से यत्र–तत्र सोई हुई मनुष्यता को जगाया जाए।
ज़ाहिर है जिनके कमज़ोर कंधे हैं वे भारी ज़िम्मेदारी से
बचेंगे। जिनको स्वयं पर आश्वस्ति नहीं होगी वे नवागंतुकों
से जलेंगे। जिन्हें अपनी दुकान उजड़ने का ख़तरा होगा उन्हें
नये लोग खलेंगे। ऐसे लोगों को महान मानते हुए उनके प्रति
संबोधन बदल लेने चाहिए।
तुम भी जल थे, हम भी जल थे
इतने घुले मिले थे
कि एक दूसरे से जलते न थे।
न तुम खल थे, न हम खल थे
इतने खुले–खुले थे
कि एक दूसरे को खलते न थे।
अचानक हम तुम्हें खलने लगे
तो तुम हमसे जलने लगे
तुम जल से भाप हो गए
और 'तुम' से 'आप' हो गए।
9 फरवरी 2006 |