पिछली कड़ी से जुड़ने के लिए कुछ ऐसे शब्दों को इस्तेमाल
करने वाला हूँ जो बा से शुरू हो रहे हैं।
बाअदब, बाशउफर, बामुरव्वत, बामुहब्बत, बामुलाहिज़ा, बात हो
रही थी सन् बासठ की।
बासठ में यों तो मैं फकत ग्यारह बरस का था, पर लगता है
सठियाया हुआ था। बचपन में ही बुढ़ापे के तत्व। या आप इसे
कह सकते हैं बालसठत्व। और मज़े की बात ये कि अब जब बावन से
बासठ की ओर गाड़ी फुल स्पीड से चल रही है मैं उतना बड़ा
होना चाहता हूँ जितना सन् बासठ में था। जवानी नहीं चाहता,
बचपन चाहता हूँ। वैसे मेरी इस चाह में चालाकी छिपी है . .
.एक बार बचपन आ जाए तो नौजवानी तो उसकी तार्किक परिणति है।
अपने आप आएगी। बचपन बूढ़ा हो सकता है, कविपन बूढ़ा नहीं
होता। और उस बूढ़े बच्चे के सामने उस दौर का नारा था . .
.'आराम हराम है।' ये नारा कम्बख्त ऐसा दिमाग में घुसा कि
आज भी आराम हराम ही है मुझे। कुछ न कुछ करते ही रहना चाहता
हूँ। शांत बैठना मेरी फितरत में नहीं है।
अपने अतीत को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि अशोक नाम का एक
बालक है जो नेहरू–सूत्र ग्रहण कर चुका है कि 'आराम हराम
है।' आदरणीय सोम जी दिनकर जी की पंक्तियाँ सुनाते हैं, जो
उसे फौरन याद हो जाती है। पंक्तियों का मतलब कितना समझ
पाता है वो बालक, पता नहीं, पर अपने काम का तो समझ ही लेता
है। स्मृतिपटल पर पंक्तियाँ कुछ इस तरह खुदी हुई हैं –
'बड़ी कविता कि जो इतिवृत्त को सुंदर बनाती है। बड़ा वह
ज्ञान जिससे व्यर्थ की चिंता नहीं होती। बड़ा वह आदमी जो
जिंदगी भर काम करता है, बड़ी वह रूह जो रोए बिना तन से
निकलती है।' रूह कैसे निकलती है यह तो उस बालक को पता नहीं
रहा होगा लेकिन नेहरू नारा अंतःप्रकोष्ठ में
प्राण–प्रतिष्ठित था। वह जितना सीखना चाहता था उससे ज्यादा
सिखाना चाहता था।
बासठ मे ही सोम जी आगरा से खुर्जा आए थे। खुर्जा
कविसम्मेलन के बाद उन्हें कविवर देवकराम सुमन के आमंत्रण
पर सहारनपुर जाना था। और कवियों को भी जाना था। और . .
.मैं भी था सहारनपुर जाने वाली उस बस में, बालकवि अशोक
शर्मा। उस यात्रा में सोम जी ने मुझे बताया और समझाया था
कि शब्दशक्तियाँ क्या होती हैं। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना
में क्या अंतर होता है। आप यकीन मानिए कि बचपन में जो
उदाहरण उनसे सुने थे वही उदाहरण मैं अपने एम.ए. के
विद्यार्थियों को अभी भी बता रहा होता हूँ। काव्यशास्त्र
और छंद–विधान के गहरे ज्ञाता होते थे गीतकार। बड़ा असर
होता था उनकी वाणी में। क्या ही तेजस्विता विराजती थी उनके
मुखमंडल पर। क्या ही प्रभामंडल था उनका।
पूरा मंच ही उन दिनों गीतकारों के प्रभुत्व वाला होता था।
यों वीररस भी था और हास्य भी, पर जलवा तो गीत का था। मंच
पर हास्य को दो टके नहीं पूछता था कोई। अगर पंद्रह गीतकार
हैं, तो कोई एक कवि हास्य का आ गया। जनता की माँग, आयोजकों
के रहम–ओ–करम के कारण और गीतकारों के भ्रूभंग के बावजूद।
हास्य के दो स्कूल थे – एक बनारस का।
बनारस से रमई काका, भैया जी बनारसी, बेढ़ब बनारसी, चोंच
बनारसी। हाथरस के काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी। गीतकारों के
प्रभुत्व वाले मंच पर भाव यह रहता था कि चलो हास्य को भी
मौका दे दो। ऐसा नहीं कि हास्य के प्रति स्वीकार–भाव
बिलकुल नहीं था। हास्य का स्वीकार तो हर युग में रहा है।
कालिदास के नाटकों में विदूषक है। उसका सुनिश्चित स्थान
है। उसे मोदक प्रिय है, वह चोटीधारी है, राजा का प्रिय है,
उसको कुछ भी बोलने की छूट है। ऐसे ही विदूषक का सुथरा
संस्करण हास्य कवि है।
काका हाथरसी जी की संपूर्ण उठान का दौर था वह। पर यहाँ समझ
लेना चाहिए कि काकाजी को उस दौर में सम्मान केवल इसलिए
नहीं मिल रहा था कि वे हास्य कवि थे, उन्हें सम्मान अपनी
उम्र, उनके व्यक्तित्व, उनकी सहजता, निश्छलता और ईमानदारी
की वजह से भी मिल रहा था।
कम लोगों को पता है कि काकाजी मंच पर बहुत देर से आए।
उन्होंने अपनी युवावस्था वाला काल संगीत–अभ्यास, नाटकों
में और चित्रकारी में निकाला। १९२६ में बीस साल की उम्र
में उन्होंने हाथरस में संगीत कार्यालय की स्थापना कर दी।
संगीत पर उनकी पहली पुस्तक छपी। बांसुरी बजाइए सुर साध। पर
बाद में ये पक्ष गौण हो गया। दरसल, काकाजी एक मार्केटिंग
कुशल व्यक्ति थे। बाद में भी लगे रहे पर उन्होंने अपनी
अन्य कलाओं का जिक्र ही नहीं किया। मेरी तरह नहीं कि सारे
के सारे पहलू उजागर हैं। काकाजी कहते थे कि मैं तो हास्य
कवि हूँ भैया, चार दर्जा पास। उन्होंने नहीं बताया कि
एम.ए., बी.ए. में पढ़ी जाने वाली पुस्तक 'संगीत विशारद'
उन्होंने ही लिखी है 'वसंत' नाम से। यह पुस्तक आज भी संगीत
में एक आधार–ग्रंथ है। उन्होंने शिष्टाचारवश बताया ही
नहीं।
चलिए आगे का किस्सा अगली बार, अभी तो अचार के बारे में
सुनिये . . .
डायनिंग टेबिल थी हमारी,
और बोल रहे थे श्रीयुत बौड़म बिहारी –
'चक्रधर जी! आम का अचार है?'
मैंने दिया तो बोले
'देखिए . . .ई जो भ्रष्टाचार है . . .
ई हमरा दो ठो आइज के सामने, दीन–दहारे
पुलीस और क्रिम्हीनल पालीटीसियन के सहारे
साफ साफ बढ़ रहा है,
ग्राफ ऊपर की तरफ चढ़ रहा है
ई दाल जरा इधर सरकाइए
और हमरे सवाल का आंसर बताइए
. . .बड़ा टेस्टी है!'
मैंने कहा – 'क्या भष्टाचार?'
वे हँसे – 'नहीं नहीं ये दाल और अचार!
वैसे सोचिए तो, ये भ्रष्टाचार
भी सुपर टेस्टी होता है,
टेस्ट में समझिए कि एवरेस्टी
होता है।
बहूत मजा आता है
तभी न पुलीस और
पालीटिसियन लोग इतना
खाता है।'
मैंने कहा – 'बौड़म जी! ये
लोग क्यों खाते हैं?
राज़ हम बताते हैं।
दरअसल, पुलिस और
पौलीटिशियन
अपने अपने परिधान की
मर्यादा निभाते हैं,
आपने ध्यान दिया कि नहीं
खाकी और खादी दोनों में
पहले खा लगाते हैं। |