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21 मंच मचान

— अशोक चक्रधर

भवानी दादा बोले – मज़ा आ गया

बात पुरानी है, पर विस्मृति के गर्त में नहीं गई, याद है। मौसम बरसात का नहीं था, पर लग रहा था जैसे होने को है। वो रात का वक्त नहीं था, फिर भी अंधेरा था। दरअसल, रात जा चुकी थी, पर दिन उग नहीं पा रहा था। रात जा रही थी क्योंकि रामपुर में उसने सारे के सारे कवियों की कविताएं सुन लीं। हज़ारों श्रोताओं के साथ वो भी पंडाल छोड़कर चलने लगी। हम कवि लोग भी दिन के आने से पहले रामपुर छोड़ देना चाहते थे। मंच के कविगण अक्सर कहते हैं कि उस शहर का सूरज मत देखो जहां पूर्वरात्रि में कविताएं सुनाई हों। रात में स्वागत जितना सम्मानपूर्ण होगा, दिन के उजाले में विदाई उतनी सम्मानजनक न हो पाएगी। तब दुख होगा।

संचालक बार–बार श्रोताओं को ये कहकर छलते हैं – 'कार्यक्रम भोर की किरन तक चलेगा।' कभी–कभी चल भी जाता है, लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि हिंदी के हृदय–क्षेत्रों के कविसम्मेलन प्रायः भोर की किरन से ज़रा सा पहले समाप्त हो जाते हैं। रामपुर में लिफ़ाफ़ा कांड के बाद हम लोग अपनी सफ़ेद रंग की उस एंबेसेडर टैक्सी में बैठ गए, जिसे पंडित गोपालप्रसाद व्यास दिल्ली से लाए थे। अगली सीट पर ड्राइवर के साथ बैठे थे – श्रीयुत भवानीप्रसाद मिश्र। साथ में उनके कवि हरिओम बेचैन। पीछे पंडित गोपालप्रसाद व्यास, एक कवयित्री, एक कोई और कवि और एक अदद मैं। उन दिनों मैं पतला–दुबला हुआ करता था। कविसम्मेलन का पैसा अंग नहीं लगा था। पीछे की सीट पर चार लोग आसानी से आ गए। मैं भवानी दादा के ठीक पीछे बैठा था। एक कोने में।

गाड़ी रामपुर शहर छोड़कर हाईवे पर आ गई। अचानक हुई बेमौसम की बरसात से धरती खुश थी। मिट्टी की सौंधी महक, भवानी दादा के सिर में लगे तेल में घुलकर मेरे नथुनों में प्रवेश रही थी। भवानी दादा अपने अंदाज़ में लगातार बोल रहे थे। कविसम्मेलन की अध्यक्षता के आंतरिक खुमार के साथ बाहर की फुहार उन्हें भी आनंदित कर रही थी।

वे जब बोलते थे तो लगता था कविता सुना रहे हैं और जब कविता सुनाते थे तो लगता था कि बातचीत कर रहे हैं। अपनी ऐसी अनगढ़ता पर उन्होंने लिखा भी है – 'बिना सोचे लिखा/लिखकर सोच में प्रायः पड़ा हूं/गढ़ रहे हैं जिसे स्नेही हाथ/मैं कवि/इस तरह के चाक पर/बनता हुआ कोई घड़ा हूं।' वे मिट्टी, धरती, आकाश, वृक्ष, ज़िंदगी, हवा, हंसी, और हिलोर जैसे मुद्दों पर अपनी अनगढ़ शैली में कुछ बोल रहे थे। मिट्टी के सौंधेपन में अपना कबीराया हुआ औंधापन घोल रहे थे।

ड्राइवर कविता प्रेमी था। रातभर उसने कविताएं सुनी थीं। इस समय नहीं सुन रहा था। बीच–बीच में मैंने महसूस किया कि बाहर से आती हवा उसके लिए लोरी बन जाती थी और जब उसे नींद का झोंका आता था तो कार अनावश्यक लहरा जाती थी। भवानी दादा ने थोड़े कसैले लेकिन जागरूक स्वर में ड्राइवर से कहा– 'प्रभाती बहुत गाई हैं मैंने। बहुत प्रभातफेरियां निकाली हैं। तुम भी कुछ जगे–जगे से चलो, आगे कोई गांव मिलेगा, ठांव मिलेगा, चाय मिलेगी, चाह मिलेगी, सारथी जगे–जगे से चलो। जगे–जगे राजा, जगे–जगे।' ड्राइवर चैतन्य हुआ, पर उसने रफ़्तार बढ़ा दी।

अभी कुछ देर पहले ही भवानी दादा जब मंच पर थे, तब भी तो इसी अंदाज़ में 'गीतफ़रोश' कविता सुना रहे थे। एक फेरी वाले की तरह गीत बेच रहे थे। दूसरी कविता सुनाई थी – 'घर की याद'। उसमें जब भाइयों का ज़िक्र आया तो वे सचमुच रो पड़े थे और फिर अगले ही पल हंस भी दिए थे।

मैंने देखा कि अगली सीट पर भवानी दादा हंस रहे हैं और बाहर उजाला बढ़ने लगा है। पहले जब रोए थे, तो शायद उसी कारण अनाहूत बरसात आई थी। मुझे भवानी दादा बहुत अच्छे लग रहे थे। गीत बेचने वाला गीतफ़रोश – 'जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूं/मैं तरह–तरह के गीत बेचता हूं/मैं किसिम किसिम के गीत बेचता हूं।' गीतफ़रोश के पीछे बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि अगर ये फेरीवाला गीतों का गठ्ठर मेरे कंधे पर रख दे तो मुझे कोई एतराज़ नहीं होगा। एक सहयोगी रहेगा तो गीत अच्छे बिकेंगे। ड्राइवर ने कार की रफ़्तार और तेज़ कर दी। भवानी दादा कुछ ऐसा बोल रहे थे– 'मेरा मन एक ऐसा प्रभात है, जहां न दिन है न रात है। कम से कम इस पल, मैं दिन और रात से परे हूं। विचित्र सी कोई सुगंध सांस में भरे हूं। अरे अरे सामने देखो भाई! वो देखो यम की सवारी आई।'

सामने से एक बुग्गी आ रही थी, जुता हुआ था काला भैंसा। हम सड़क के नियमानुसार बाईं ओर चल रहे थे, पर यम की सवारी पर कोई नियम कैसे लागू होता। बुग्गी सड़क पर अपने दाईं ओर थी। अगर ड्राइवर तत्काल जाग न गया होता और उसने कसकर ब्रेक न मारे होते तो आमने–सामने की भिडंत निश्चित थी। गाड़ी स्किप कर गई। हल्की बरसात के कारण सड़क पर जमी धूल कीचड़ में तब्दील हो गई थी और कार के टायरों के लिए फिसलपट्टी बन चुकी थी। कार घूमकर तेज़ी से दाईं ओर मुड़ी, लगा कि सामने वाले ट्रक में टकराएगी पर ट्रक निकल गया। अब लगा कि घूमकर खाई में जाएगी, लेकिन खाई में जाने से पहले फिर घूम गई, बाईं ओर के दोनों टायरों पर तिरछी खड़ी–खड़ी पुनः भैंसें और बुग्गी की ओर घूमी, लगा कि पलट जाएगी या टकराएगी पर न पलटी न टकराई। यमराज के भैंसे के नथुनों से निकली चारे की जुगाली की हवा ज़रूर कार में अंदर तक आ गई पर स्पर्श–दुख नहीं मिला।

कार के दाईं ओर के दोनों टायर नीचे आ गए, रफ़्तार नीचे नहीं आई। काली माई की तरह कार ने फिर से पलटा खाया। फिर से भंवर की तरह वर्तुल चक्र काटती हुई घूमी। फिर से लगा कि खाई में गई, लेकिन वह तो अचानक उस ओर मुंह करके सीधी खड़ी हो गई जिस तरफ़ दिल्ली थी। हम ट्रक से नहीं टकराए, खाई में नहीं गिरे, यमराज का भैंसा जीवन का आशीर्वाद देकर चला गया। टायरों की रिमों में घास ज़रूर भर गई पर किनारे के पेड़ों ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा। मृत्यु से मुलाकात का यह लगभग चालीस से पचास सैकंड का कालखंड रहा होगा। इधर–उधर लुढ़कने के कारण छोटी–मोटी चोट आईं होंगी, यहां–वहां अल्पकालिक नील पड़ गए होंगे। मुझे याद है मेरा अंगूठा कई महीने तक दुखता रहा था पर कुछ भी तो नहीं हुआ। गाड़ी जब रूक गई तो एक दहशत भरा सन्नाटा पसर गया। डर दहक रहा था, बाहर की रिमझिम से धड़कनों की धोंकनी रूक नहीं रही थी।

सब कुछ इतना त्वरित हुआ कि याद नहीं कार में कौन चीखा, कौन शांत रहा, पर रूकने के बाद काफ़ी देर तक सन्नाटा रहा। पहली आवाज़ भवानी दादा की आई– 'मज़ा आ गया!' फिर जी, पता नहीं कौन पहले हंसा, पर थोड़ी देर में सब हंसने लगे। भवानी दादा की हंसी, जैसे अपनी कविता सुना रही हो, 'सन्नाटा' कविता– 'तुम डरो नहीं/वैसे डर कहां नहीं है/कुछ ख़ास बात पर डर की यहां नहीं है।' मैं सोच रहा था कि अगर हम सब मर जाते तो भवानीदादा और पं .गोपाल प्रसाद व्यास का नाम तो ऊपर छपता ही छपता, मेरा भी छप जाता– 'इनके साथ एक युवा कवि अशोक चक्रधर भी नहीं रहा।' हंसीजन्य इस सोच से मुझे भी मज़ा आ गया। कार में बैठे हम छः लोगों की हंसी जैसे–तैसे थमी। भवानी दादा ड्राइवर से बोले– 'सूरज के सांतवे घोडे़! अब हिलेगा भी या नहीं। चल चल रे, समय के सारथी!' व्यास जी बोले– 'दिल्ली दूर है।'

'छाया के बाद' पुस्तक के सिलसिले में सन अठहतर में पहली बार मैं उनसे मिलने गया था। वे बनियान पहने बैठे थे। एक बात उन्होंने कही– 'देखो राजा! हम सारे ब्राह्मांड को छानते रहते हैं पर अपने अंदर डुबकी नहीं लगाते, अंदर तो डुबकी लगाओ।' मुझे याद है कि उस समय मैं उनसे सहमत नहीं था। बाहर निकला, वहां से मेन रोड पर आ गया और सोचता रहा– ब्राह्मांड को क्यों नहीं छानें? हमारा सैल्फ़ क्या है, कुछ भी तो नहीं! हम क्या हैं अपने अंदर, क्या फ़र्क पड़ता है इससे? सवाल तो इस बाहर की सोसायटी को चेंज करने का है। हम इसको बदलें। हर कलाकार के अंदर यही जद्दोजहद रहती है कि उसे बाहर की दुनिया को बदलना है। माना कि जो हम बाहर देखते हैं पहले उसी को अपने अंदर ले जाते हैं। अपने अनुभवों में उसे खंगालते हैं, घोलते हैं, तोलते हैं फिर मुंह खोलते हैं। फिर सेल्फ़ का मतलब क्या है? नहीं, नहीं, नहीं, मतलब है। आज मैं स्वयं से कहता हूं, मतलब है। भविष्य के सफ़र में पिछली सीट पर आराम से अकेले बैठे भवानी दादा मुझे सुनकर खुश हो रहे हैं। मैं गाड़ी चलाते–चलाते उन्हें सुना रहा हूं—



हाय रे! हम चाहते हैं छान डालें,
बाहर का पूरा ब्राह्मांड।
पर नहीं देखते स्वयं को भीतर से,
अंतर्मन का कचरा नहीं छानते,
वहां हो रहे हैं कैसे–कैसे कांड!
वहां निर्मल जल नहीं, अमंगल–दलदल है,
खेत का और समस्या का हल नहीं
बल और चंबल की हलचल है।
नहीं दिखते अंदर के बागी और दागी।
अंदर के दानवों को देखना नहीं चाहते,
क्योंकि वो तो अंदर की बात है!
हाय–हाय, उपेक्षा झेलते हैं
अंदर के सत्पुरूष और विद्वान प्रकांड!
और हम चाहते हैं छान डालें,
बाहर का पूरा ब्राह्मांड।
आओ राजा, अपने अंदर की सारी नालियां,
अंतर्व्यवस्था की प्रणालियां,
टैक्स की, सैक्स की, फाइनैंस की, गवर्नेस की,
अधिकार की, कर्तव्य की, जीवन के सत्य की,
सब की सब दुरूस्त करें।
अंदर के सिस्टम को चुस्त करें।
साफ़ करें उसको जो कूड़ा है, कचरा है, सस्ता है।
क्योंकि हम सबके अंदर हमारा देश बसता है।
हाय रे! हम चाहते हैं छान डालें,
बाहर का पूरा ब्राह्मांड।

9 अक्तूबर 2005
 

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