रूवल्लुवर ने कहा था कि अभी मुठ्ठी
बराबर सीख है धरती बराबर शेष है। जहां तक अपनी बात है, अपन
मुठ्ठी बराबर का तो नहीं, चुटकी बराबर का दावा तो कर ही
सकते हैं – 'जो सीखा चुटकी भर सीखा धरती भर है बाकी, उस पर
अहंकार दिखलाना है ये सीख कहां की?' चुटकी बजाने के दौरान
वो ज्ञान भी खिसक न जाए, इसलिए जी हमने बांटना शुरू कर दिया।
जैसे–जैसे और जितना–जितना मिलता गया, बांटते गए। इस लालच
में कि बांटने से बढ़ता है।
लेकिन चेले खिसक लेते हैं
एक योग्य शिष्य ने पूछा – 'गुरू जी, ऐसा क्यों होता है कि
चेले आपके पास कुछ समय रहते हैं और फिर धीरे–धीरे खिसक लेते
हैं? लगता है आपकी सिखाने की पद्धति में खोट है।' मैंने कहा
– 'वत्स! जितनी विद्या मुझे आती है मैं उन्हें उतनी भर का
ज्ञान देने की पुरज़ोर कोशिश करता हूं। थोड़ा सा
काव्यशास्त्र पढ़ा है और थोड़ा–बहुत बुजुर्गों से सीखा और
गुना है। इसके आधार पर, और कुछ अपने अर्जित अनुभवों से,
उन्हें समझाता हूं कि कविता कैसी होती है और कैसी होनी
चाहिए। शिष्यगण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से
सीखते हैं। कविताएं लिखते हैं। प्रसन्न होते हैं, आभार
ज्ञापित करते हैं। लेकिन, . . .लेकिन तुम्हारा ये प्रश्न
तो ज्यों–का–त्यों खड़ा है कि खिसक क्यों लेते हैं। मेरी
समझ से इसका कारण ये है कि उनकी समझ में एलपीएम और सीपीएम
का गणित आ जाता है।'
एल पी एम और सी पी एम
'एलपीएम' का मतलब है 'लाफ्टर पर मिनट' और 'सीपीएम' का मतलब
है 'क्लैपिंग पर मिनिट'। जिसके पास 'एलपीएम' जितना ज़्यादा
होगा वह कविसम्मेलन में उतना ही ज़्यादा जमेगा। जिसके पास
'सीपीएम' जितना ज़्यादा होगा उतना ही कविसम्मेलनों में
ज़्यादा बुलाया जाएगा। इस बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि
जिसको 'एलपीएम' अर्थात 'लाफ्टर पर मिनिट' का खेल समझ में आ
जाता है उसका 'एलपीएम' बढ़ जाता है। दूसरे 'एलपीएम' का
मतलब है 'लिफ़ाफ़ा पर मिलीमीटर', मोटाई में। जिसको 'सीपीएम'
अर्थात 'क्लैपिंग पर मिनिट' का खेल समझ में आ जाता है उसका
'सीपीएम' बढ़ जाता है। दूसरे 'सीपीएम' का मतलब है 'कॉल्स
पर मंथ'। यानि कविसम्मेलनों में उसकी मांग ज़्यादा बढ़ जाती
है।
कविता और सिर्फ़ कविता सुनाओगे तो 'एलपीएम' और 'सीपीएम' दोनों
कम रहेंगे। कविताएं सुनाने से तो 'एलपीएम' मात्रा में अधिक
होगा नहीं। 'लाफ्टर पर मिनिट' बढ़ाने के लिए 'लतीफ़ा पर
मिनिट' बढ़ाओ। लतीफ़े पर किसका कॉपीराइट। लतीफ़ा उसका जो उसे
सुनाए। मौलिकता सुनाने के अंदाज़ की होती है। लतीफ़ों को इस
तरह सुनाया जैसे वे प्रसंग उनके जीवन में ही घटे हों।
पात्र–चरित्र वे ही बना लिए जो मंच पर विद्यमान हों। अपनी
शिष्य–मंडली के अधिकांश कवि कविताएं छोड़कर लतीफ़ापंथी हो
गए। घूमफिर कर वही पचास–साठ लतीफ़े हैं जिन्हें सब के सब
सुना रहे हैं। चुनौती कौन देगा भला! नया शहर, नये श्रोता।
जिसका दाव लगा उसने पहले सुना दिए। कोई नहीं टोकता कि ये
मेरा था। कोई नहीं रोकता कि हम इसे पहले भी सुन चुके हैं।
तीस मिनिट लतीफ़े और अंत में डेढ़ दो मिनिट की कविता।
कौन सुनता है कविता
शिष्यगण कहते हैं – 'कविता की ज़रूरत ही कहां है? कौन सुनता
है कविता? हां, छपवाने के लिए ठीक है। गुरूजी अथवा भाईसाहब!
मेरी पांडुलिपि तैयार है। भूमिका आपको ही लिखनी है।' इन
दिनों मैं इन 'एलपीएम' वादी कवियों की पुस्तकों का भूमिका
लेखक बनकर रह गया हूं। उनसे आत्मीयता के नाते रहे थे, हैं,
और आगे भी रहेंगे, इसलिए, भूमिका में निंदा तो की नहीं जा
सकती, कविताओं में जितना दम होता है उसमें थोड़ी अतिरंजना
मिलाकर आशीर्वादीलाल हो जाता हूं।
अपनी बारी की प्रतीक्षा
अच्छी और स्वच्छ–सच्ची हंसी अंतर्तल से निकलने वाली तालियां
ऐसे ही नहीं मिलतीं। उसके लिए कवि को तन–मन–प्राण और आत्मा
की आहुति देनी पड़ती है। अभिव्यक्ति को हृदयग्राही बनाने
के लिए स्वयं को सुपठित–सचेतन–सहज रखना होता है। प्रस्तुति
के दूसरे कौशलों की भी दरकार होती है जो लेखन से इतर हैं,
जैसे– स्वरों का आरोह–अवरोह, गायन, अभिनय और रूप–सज्जा, आदि।
मंच का कवि, जिसे तथाकथित साहित्यकार आमतौर से प्रपंच का
कवि मानते हैं, कई तरह के दबावों में रहता है। मंच पर बैठे
हुए वो अपनी बारी की प्रतीक्षा करता है। संचालक की ओर
निरीह निगाहों से देखता रहता है कि शायद कोई संकेत मिले।
संचालक उसकी उतावली भांप लेने के बावजूद उसे अनदेखा करता
है। और जब सब वाह–वाह कर रहे होते हैं, वह कवि भी आदतन वाह–वाह
करने लगता है। इरादतन हंसने लगता है, जब सब हंस रहे होते
हैं। दूसरे कवियों की कविताएं वह प्रायः तब तक ध्यान से नहीं
सुनता जब तक वह स्वयं सुनाकर निश्चिंत नहीं हो जाता। सचमुच
परेशान रहता है, कब उसकी बारी आएगी। अगर उसे उसके उचित
स्थान पर बुला लिया जाए तो प्रसन्न होता है वरना तनाव से
घिर जाता है।
ऐसे भी बहुत सारे कवि हैं जो इस मामले में दिल–दिमाग़ का
ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करते। वे जानते हैं कि उनके पास जो
सामग्री हैं उन्हें यथावत सुनानी है। ज्यों कि त्यों। उतनी
की उतनी। वैसी की वैसी। यथास्थान अल्पविराम, पूर्णविराम या
अविराम। कविता के हर बंद हर अंतरे के साथ लतीफ़े पूर्वफिटित
हैं। उन्हें पता रहता है कि कहां हंसी आएगी, कहां ताली
बजेगी। वे बड़े निश्चिंत रहते हैं, उनके चेहरों पर बड़ी आभा
रहती है। उनके कुर्ते का कलफ़ ख़राब नहीं होता। ख़राब होते
हैं तो वे गावतकिये जिन्हें वे अपना पूरा वज़न डालकर पिचका
चुके होते हैं।
सहारा मिल्टन की बोतल का
लेकिन जो कवि लतीफ़ेबाज़ नहीं हैं, तालियों के टोटके घोटके
नहीं आए, वे तनाव में रहते हैं और उस तनाव के रहते अचानक
पीछे जाकर अपना कंठ तर कर आते हैं। हालांकि वे जानते हैं
कि मंच के पीछे जाना और पीना कोई अच्छी बात नहीं है, लेकिन
जाते हैं, क्योंकि आत्मविश्वास डगमगाया हुआ होता है। कई
बार ये काम मंच पर बैठे–बैठे ही कर लेते हैं। चाय के कप
में या कुल्हड़ में। मिल्टन बोतल में वे सिर्फ़ पानी नहीं
रखते।
मान लीजिए, दादा प्रतीक्षा कर रहे हैं। संचालक को चार बार
घूर कर डांटा, बारी फिर भी नहीं आई। घट में पुनः उतारे दो
घूंट। सामने माइक पर खड़ा कवि, कविता का पूरा घूंघट उतार
कर अपना 'एलपीएम' रेट बढ़ा रहा है। घूंघट क्या, इसने तो
कविता की नथ भी उतार दी सरेआम। अब दादा को माइक पर जाकर
कविता की इज़्ज़त बचानी है। वे अपने अच्छे गीत, अच्छी
ग़ज़लें, अच्छी कविताएं ही सुनाएंगे। आत्मविश्वास–अर्जन के
लिए मिल्टन की बोतल से फिर एक घूंट।
विषलहरी का प्रभाव
जनता भी समझ जाती है कि मिल्टन की बोतल में ख़ालिस पानी नहीं
है। बिसलेरी नहीं है, विषलहरी है। विषलहरी अपना प्रभाव छोड़
चुकी है। दादा पूरे मूड़ में हैं। अब सचमुच उनकी बारी आएगी।
माइक तक आने से पहले एक घूंट विषलहरी और। वे अब अपनी बमलहरी
के लिए एकदम तैयार हैं। पैंट ऊंची करते हैं। शर्ट नीची करते
हैं। उन्हें थोड़ा–थोड़ा अंदाज़ा है कि जीभ और जांघ दोनों
लड़खड़ा सकती हैं।
बैठे थे तो विषलहरी भी बैठी हुई थी, उठे तो वह भी उठ गई।
वे किसी तरह माइक तक आते हैं। देखते हैं कि श्रोताओं में
से दस–पांच लोग अंगड़ाई लेते हुए उठ रहे हैं। दादा के सामने
चुनौती है कि अब उन लोगों को उठने न दिया जाए जो उठने की
योजना बना रहे हैं। अच्छी कविताएं सुनाने का इरादा चकनाचूर
हो चुका है। वे अपनी वही कविता सुनाते हैं जिसे कम से कम
हज़ार बार सुना चुके हैं। उस कविता के 'एलपीएम' और 'सीपीएम'
पर उन्हें भरोसा है।
बची–खुची दो–चार बूंद
कविगण आमतौर से कविसम्मेलन के बाद ही भोजन करते हैं। रात
को कविताएं सुनानी हैं यह सोचकर दादा ने दिनभर भोजन नहीं
किया था। वे होटल में भोजन रखनेके लिए बोलकर तो आए थे, रखा
होगा, लेकिन भोजन ठंडा मिलेगा, ये भी मालूम है।
और इस तरह मंच का एक अदद शानदार कवि सफलताओं के भ्रम को
समझता हुआ, तनावों से ग्रस्त, आत्मग्लानि से भरा हुआ,
बड़बोले छुटभइये कवियों की बातों को इस कान से सुनकर उस
कान से निकालने की निरर्थक कोशिश करता हुआ, धम्म से बैठ
जाता है। मिल्टन की बोतल में अभी भी बची–खुची दो–चार बूंद
हैं। आकाश की ओर मुंह उठाकर बरसात सी करता है कंठ के
रेगिस्तान में।
कंठ सूख रहा है और उसके सामने हैं सूखी रोटियां। रायते के
ऊपर झाग आ चुके हैं, खट्टा हो चुका है। दाल एकदम ठंडी और
सिकुड़ी हुई सलाद। खाने का मन नहीं हो पा रहा। ठूंस लेते
हैं पेट में किसी तरह और उस टैक्सी में आकर बैठ जाते हैं
जो चार लोगों ने मिलकर की थी। अनुज बने हुए 'एलपीएम' 'सीपीएम'वादी
कवियों में से एक पूछता है – 'दादा कुछ और चाहिए क्या?' ऐसी
स्नेहभरी अभ्यर्थना को वे ठुकरा नहीं पाते, दो घूंट और सही।
अब वे इस हालत में नहीं हैं कि आशीर्वाद भी दे सकें। पिछली
सीट पर पसर जाते हैं। अनुज कवि फुसफुसाते हैं – –'दादा सो
गए हैं।'
–'हम कहां बैठेंगे?' –'यार बिठा दो न इनको।' दादा चाहते तो
अनसुना कर देते लेकिन उनके मन में छोटों के लिए बड़ा लिहाज़
है। वे बैठ गए, दो कवि पीछे, दो आगे। अंधकार से पांचवा कवि
प्रकट हुआ –'गजरौला तक छोड़ दोगे क्या?' छोटे कवि कहते हैं
–'अब जगह नहीं है।' –'दादा को तकलीफ़ . . .।' दादा कहते
हैं– 'नहीं, आ जाओ, पीछे बैठ जाओ मेरे पास। तुम्हारी ग़ज़ल
भी ठीक कर दूंगा। वज़न में बराबर नहीं थी।' अचानक दादा को
याद आया –'अरे वो कहां है . . .वो फ़ोटोग्राफ़र, जो मेरे साथ
आया था।'
दादा सोने जा रहे हैं
पीछे चार लोग हो गए। दादा गाड़ी रूकवाते हैं। अपने बाएं
बिठाए हुए व्यक्ति को उतरने के लिए कहते हैं। सड़क के
किनारे जाकर बड़ी ज़ोर से उल्टी करते हैं। सहज होने की
कोशिश करते हुए हंसते हैं– 'हल्का हो गया, घिचपिच महसूस कर
रहे थे न तुम लोग! लो आ जाओ। ढंग से बैठो।' किसी ने पूछा
–'दादा! अपने साथ फ़ोटोग्राफ़र लेकर क्यों घूमते हो?' दादा
बोले –'पता नहीं कौन सा फ़ोटो अंतिम फ़ोटो हो जाए।'
भोर होने को है। सूरज जगाने आया है लेकिन दादा सोने जा रहे
हैं। भरपूर उजाले में दादा सोएंगे। और . . .दादा सो गए। –'दादा
तुम उठ क्यों नहीं रहे?' –'दादा को अस्पताल ले चलो।' पांचवा
कवि बोला –'इससे तो मैं बस से ही निकल जाता।' –'क्या? दादा
को ब्रेन हैमरेज हुआ!'
दादा जिस फ़ोटोग्राफ़र मित्र को अपने साथ लाए थे वही अपना
निकला। कवि अपने–अपने रास्ते हो लिए। सबको दूर जाना था।
दादा ज़रा ज़्यादा दूर निकल गए। –'यार क्या करें?'
एलपीएम – 'लो फंसे मियां!'
सीपीएम – 'चलो फिर मिलेंगे।'
9 मई 2006 |