कविसम्मेलन के मंच पर जब, कविता के दम
पर, बिना मांगे ताली मिलती है तो कवि भी ख़ाली नहीं रहता,
अंदर तक प्रसन्नता से भर जाता है। दुगने आवेग और उत्साह
में तन्मय होकर श्रोताओं से जुड़ जाता है। प्रशंसा का
तत्काल लाभ उठाता है। उसकी प्रस्तुति में आत्मविश्वास बढ़ता
जाता है। प्रस्तुति के समापन पर बजने वाली तालियों से अच्छा
उस समय उसे कुछ नहीं लग सकता। हां, बाद में मिलने वाला
लिफ़ाफ़ा उसकी प्रसन्नता में इज़ाफ़ा ज़रूर कर देता है।
मेरा आनंद तेरा कष्ट
आनंद के कुछ और क्षण भी होते हैं, जैसे– बाद में श्रोताओं
से घिर जाना। ऑटोग्राफ़ देना, फ़ोटोग्राफ़ देना। तो उसकी उमंगों
का ग्राफ़ ऊंचाइयां छूने लगता है। उसे किंचित संकोच के साथ
मीठा–मीठा गर्व होता है। वह बहुत देर तक मुस्कुराता रह सकता
है। जनता के बीच खुद को असाधारण रूप से साधारण बनाते हुए
प्रशंसाओं की सुगंधित बौछार में भीग–भीग जाता है। उसे घिरा
देखकर कुछ आयोजक अपनी महता जताते हुए भीड़ चीरकर आते हैं
और बांह पकड़कर बचाते हुए निकालकर ले जाते हैं। तब कवि को
बुरा लगता है। श्रोताओं से जो स्नेह मिल रहा होता है उससे
वह वंचित नहीं होना चाहता।
ठीक इसी समय कार में बैठे हुए अन्य प्रतीक्षारत कवि उसे
गाली दे रहे होते हैं। उन्हें होटल पहुंचने की हड़बड़ी होती
है। दिमाग़ में न जम पाने के कारण थोड़ी गड़बड़ी होती है।
वे इसरार करते हैं कि हमे छोड़ आइए वो आते रहेंगे। किसी का
आनंद किसी के लिए कष्ट बन जाता है। इसके विपरीत किसी का
कष्ट किसी के लिए आनंद बनते हुए भी देखा जाता है।
कुछ कवि कष्ट
कुछ कष्ट ऐसे हैं जिनका सामना मंच के हर कवि को प्रायः करना
पड़ता है। इन कष्टों का विधिवत वर्गीकरण किया जा सकता है।
फिलहाल सुविधा के लिए एक सूची बनाते हैं।
कवि कष्ट नंबर एक : अच्छी कविता के लिए अच्छे श्रोता न
मिलना।
कवि कष्ट नंबर दो : अच्छे श्रोताओं के लिए स्वयं पर अच्छी
कविता न होना।
कवि कष्ट नंबर तीन : आयोजकों द्वारा विभिन्न कारणों से उसे
सम्मान सहित अपमानित करने का प्रयास करना।
कवि कष्ट नंबर चार : मनोनुकूल यात्रा सुविधाएं न मिलना।
कवि कष्ट नंबर पांच : मनोनुकूल यात्रा सुविधाओं में,
मनोनुकूल सहयात्री न मिलना।
कवि कष्ट नंबर छः : ठहरने की व्यवस्था मनोनुकूल न होना।
कवि कष्ट नंबर सात : दूसरे कवियों का अधिक सुनाना और अधिक
जमना।
कवि कष्ट नंबर आठ : दूसरे कवियों को अधिक पारिश्रमिक मिलना।
कवि कष्ट नंबर नौ : प्रस्तुति से पहले भूखा रहना।
कवि कष्ट नंबर दस : प्रस्तुति के बाद रात्रि में भोजन का
जुगाड़ न होना।
कवि कष्ट नंबर ग्यारह : आयोजकों द्वारा द्रव एवं द्रव्य
संबंधी अपेक्षित इच्छाएं पूर्ण न किया जाना।
कवि कष्ट नंबर बारह : विदाई के समय स्वयं के अतिरिक्त किसी
को रूलाई न आना।
कवि कष्ट नंबर तेरह : किसी कवि का किसी कवि से अन्य आयोजकों
के बारे में संवाद करना।
कवि कष्ट नंबर चौदह : अपारे कष्ट संसारे . . .बस, रेल,
हवाई जहाज़ और साहित्य में स्थान न मिलना।
मंच के इस कवि को कई बार कंटीले कष्टों के मार्ग से गुज़रना
होता है। कई बार जीते जी मरना होता है। दिन में तारों भरा
आकाश नज़र आने लगता है। कई बार उसकी चेतना पातालवासी हो
जाती हैं। क्यों? क्योंकि, थल पर उसके साथ वैसा सुलूक नहीं
होता जिसकी वह अपेक्षा करता है।
तालाब में पहला गोता
कुछ अपने ही कष्टों का खुलासा करता हूं। आशा करता हूं कि
मेरे द्वारा भोगे गए ये कष्ट आपको ज़रा भी कष्ट नहीं
पहुंचाएंगे। आप कष्टों की लिस्टों से मुस्कुराएंगे। इतना
भर अवश्य सोचकर देखिएगा कि यदि यह आप पर बीते होते तो कैसा
होता। तो लगाता हूं कवि–कष्ट नामक तालाब में पहला गोता।
तो हे पाठक–श्रोता! मौका–ए–कांड– यह ब्रह्मांड। लोक–भूलोक।
देश– भारत, जहां होते रहते हैं महाभारत। प्रांत हरियाणा,
जहां दूध–दही का खाणा। थल का नाम– कैथल।
कविसम्मेलनों की दूसरी पारी में मैंने अभी जाना शुरू नहीं
किया था। यदाकदा गोष्ठियों में जाता था। कुछ लघु–पत्रिकाओं
में कविताएं छपती थीं। कैथल का एक बालक पता नहीं मेरी कौन–सी
कविता को सुनकर या पढ़कर मुग्ध हो गया कि उसने मुझे पत्र
लिखा। कविता उसे अच्छी लगी, पत्र में इस प्रथम प्रकरण के
बाद उसने दूसरे प्रकरण के अंतर्गत बताया कि वह कैथल में
छात्र है और उनकी दवाइयों की एक बड़ी दूकान है। तीसरा
प्रकरण सूचनादायक था कि अगले सप्ताह उसकी शादी होने जा रही
है और जिस कन्या से उसकी शादी हो रही है वह भी अभी छात्रा
है। पत्र का चौथा प्रकरण था कि वह अपने विवाह में मुझे
सशरीर उपस्थित चाहता था। कविता सुनाने जैसा कोई आग्रह,
आदेश या पाबंदी नहीं थी, बस शोभावृद्धि के लिए बुलाना चाहता
था। उसका मानना था कि वह तर जाएगा अगर मैं उसकी शादी में आ
जाऊं। मुझे पहली बार एक अलग तरह का चौंकाऊं आनंद आया कि
मैं किसी के विवाह में शोभावृद्धि के लिए भी बुलाया जा सकता
हूं और अपनी उपस्थिति से किसी को तार सकता हूं। पत्र का
अंतिम प्रकरण था कि वह मुझे और तो कुछ नहीं पर किराये–भाड़े
के रूप में सौ रूपए प्रदान करेगा। पत्र का शिष्ट–परिशिष्ट
था कि आना परम अनिवार्य है। मैंने मन ही मन उसे उतर दिया–
क्या बात कर दी यार! सौ रूपए की कोई बात नहीं। मिले तो ठीक
न मिले तो ठीक। हम पहुंचेंगे, ज़रूर पहुंचेंगे।
शादियों में सम्मिलित होने के ढेर सारे अनुभव मेरे पास थे।
गांव कस्बों की कितनी ही बारातों में तीन–तीन रातों तक मज़े
किए थे। बारातियों और घरातियों के मिलन संस्कार समारोहों
में अनेक बार कविताएं भी सुनाईं, एकल अभिनय भी किए पर कैथल
का अनुभव तो निराला था। ये ऐसी शादी थी जिसमें न कोई मुझे
जानता था न मैं किसी को जानता था। दूल्हे की हैंड राइटिंग
पहचानता था पर मिलना तो दूर फ़ोटो तक नहीं देखा था। और जी
पहुंच गए कैथल।
बताए गए पते के अनुसार पहुंच गया अमुक गली की तमुक धर्मशाला।
जाकर मैंने परिचय दिया और पूछा कि ठहरने का इंतज़ाम कहां
है। बताया गया – हॉल नंबर तीन। हॉल नंबर तीन में लगभग
पंद्रह गद्दे और तीस लोड पड़े हुए हैं। जिसने वहां पहुंचाया
वह कोई महत्वपूर्ण परिवारी था। सब उसे ताऊ कहकर आदर से
पुकार रहे थे। ताऊ ने ऊंचे स्वर में बताया – 'कवि हैं।
दिल्ली से आया है। दूल्हे ने अपनी ख़ास पसंद से बुलाया
है।' लेटे खड़े बैठे और पड़े लोगों ने विचित्र–सी दृष्टि
मेरी ओर डाली। ताश खेल रहे लोगों ने तो इतना भी नहीं किया।
किसी ने मेरी आगमन पर कोई उत्साह नहीं दिखाया और न मेरे
लिए कोई स्थान बनाया।
जो इकलौता व्यक्ति मुझे पहचान सकता था उस पर हल्दी चढ़ी
हुई थी। किसी को कोई जल्दी नहीं थी। जल्दी मुझे थी उस
बेगाने वातावरण से जैसे–तैसे लौटने की। मैं खिसकने की योजना
बना ही रहा था कि ताऊ आ गए। उन्होंने बताया कि बैंड वाला आ
गया है। घोड़ी भी आ गई है। अनार फोड़ने वाला और घोड़ी के
आगे तासे पर नाचने वाला नचनिया भी आ गया है। सारी तैयारी
है मैं तैयार क्यों नहीं हूं। मैं अवाक था। किसी तरह
हिम्मत करके पूछा – 'दूल्हा कहां है?' ताऊ ने उतर दिया – 'अभी
ना मिलने का। मेरी ड्यूटी लगाई है तेरे ऊपर। कोई तकलीफ़ नहीं
हो, तेरा सारा ख्याल रखूंगा। तू म्हारे बरातियों को खुश कर
दे।'
मेरे पैरों तले की ज़मीन इक्वेटर से कई मीटर खिसक गई। कोई
दूसरा ताऊनुमा आया। तो ताऊ ने नुमा को बताया– 'कवि है।
बिट्टू ने बुलाया है।' नुमा ने शंका जताई– 'पहले तो हमने
किसी कविसम्मेलन में देखा नहीं।' ताऊ बोले – 'लड़के की
डिमांड पर बुलाया है ना! कविता सुनाएगा।' नुमा ने पूछा – 'छपवाके
लाया है सेहरा वेहरा? मैंने कहा – 'जी, मैं तो कुछ नहीं
लाया।' नुमा कुछ तैशनुमा हुआ – 'फिर काहे को आए हो भइया।'
ताऊ ने नुमा को आश्वस्त किया– 'सौ रूपए देंगे, तो काम तो
कुछ न कुछ दिखाएगा।'
लड़के का निर्देश था कि मेरा ख़ास ध्यान रखा जाए। ताऊ ने
दूध से भरी बाल्टी मंगा दी और एक नौजवान मेरे साथ लगा दिया–
'ये कवि जहां भी जाए, इसे दूध पिलाते रहना और ध्यान रखना
था कि ये इत–उत न हो जाए।' मेरी दशा देखकर नौजवान समझ गया
कि इसे दूध पिलाना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि इस
बात का ध्यान रखना कि ये इत–उत न हो जाए। उसने मेरे कंधे
पर टंगा थैला अपने कब्ज़े में कर लिया और दूध का एक गिलास
मेरी ओर बढ़ाया। मैं मूर्ति के समान जड़वत था। मुझे दूध
पिलाया नहीं जा सकता था, मुझ पर चढ़ाया जा सकता था।
बहरहाल, दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ाया गया। मैं उसके पास नहीं
पहुंच सकता था। पर वो मुझे दूर से पहचान गया। उसकी एक
मुस्कान ने मेरे सारे कष्ट दूर कर दिए। वो किसी को बुलाकर
कुछ कहना चाहता था। किंतु रस्म–रिवाज़ की अपेक्षाओं के
कारण वह खुद ही जड़ीभूत व्यंग्य हो चुका था। किसी ने उसकी
बात सुनी नहीं। जब दूल्हे की नहीं सुनी जा रही तो हमारी
कौन सुनता? ताऊ ने कहा – 'चल बैंड के आगे–आगे कविता सुनाते
हुए चल। सेहरा लिखकर नहीं लाया तो सुनाता हुआ चल। तेरे सौ
रूपए मेरे पास हैं।'
अभी तक तो आप आनंद ले रहे हैं। आगे वर्णन किया तो शायद आप
ज़्यादा आनंद लेने लगें। अपने कष्ट से जनित उतना आनंद
फिलहाल में आपको नहीं देना चाहता। सिर्फ़ इतना बताऊंगा कि
मेरा बैग मेरे पास नहीं था। दूध की बाल्टी के पास था। दूध
की बाल्टी जिसके पास थी वह बलिष्ठ था। मेरे सामने बैंड दल
की शोभायात्रा थी और मेरे ऊपर आत्मग्लानि का अनिष्ट था। पता
नहीं मैं किस विधि से बसस्टैंड पहुंचा। ग़नीमत है कि किराए
लायक पैसे जेब में थे। मैं वहां से खिसक लिया।
जब कविसम्मेलनों का सिलसिला शुरू हुआ तब मैंने मन ही मन
ठान लिया कि मुंडन, सगाई, छोछक, विवाह, जन्मोत्सव जैसे किसी
समारोह में कविता सुनाने नहीं जाऊंगा। अफ़सोस कि अपने ठाने
हुए को पूरी तरह से निभा नहीं पाया। कई जगह गया और प्रायः
पछताया। इस तरह के कार्यक्रमों के लिए पारिभाषिक शब्द है–
झनझनझोला। मौका मिला तो अगली बार बताऊंगा आपको दास्ताने–झनझनझोला।
दिल की बातें दिल में ही रहना मुश्किल है
उन बातों का भाषा में बहना मुश्किल है।
खट्टा–मीठा दर्द उठा करता जो अंदर
सहना है आसान, मगर कहना मुश्किल है।
16 अप्रैल 2006
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