कवि सम्मेलनों के 'ऋषि' गोपालदास नीरज अठहत्तर साल के
नौजवान हैं। आज भी उनके प्रशंसकों की तादाद जबर्दस्त है।
उनका प्रदेय यह है कि उन्होंने मंच के माध्यम से व्यापक
हिंदी जनमानस को प्रेम और इन्सानियत में घोल 'अध्यात्म' का
संदेश दिया है।
पचास से साठ वाली रेंज में आते ही साहित्यकार मुड़–मुड़कर
देखने लगता है। इन दिनों मैं भी मुड़ मुड़कर देखने लगा
हूं। देखता हूं तो तरह–तरह की सोहबतें याद आती हैं,
मोहब्बतें याद आती हैं।
सत्संग से सुख मिलता है, कुसंग से दुख। कविसम्मेलन
उदारतापूर्वक दोनों प्रदान करता है। कुसंग की चर्चाएं तो
नब्बे से सौ वाली रेंज में पहुंचकर करूंगा, अगर तब तक बचा
रहा और माशाअल्ला रत्ती–माशा स्मृतियां भी बची रहीं।
फिलहाल तो इस प्रकार की एजेंडा–धर्मिता रखता हूं कि आगामी
कुछ वर्षों तक केवल सत्संग की ही चर्चाएं करूं।
प्रिंसिपल की कंपकंपी छूट रही थी।
कविसम्मेलनों में एक ऋषि का सत्संग निरंतर करता रहा हूं,
वे हैं श्रीयुत गोपालदास नीरज। नीरजजी को पहली बार उन्नीस
सौ बासठ में खुर्जा के एस•एम•जे•ई•सी• इंटर कॉलेज में देखा
था। यहीं मेरे पिता श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ' पढ़ाते थे और
कॉलेज में प्रतिवर्ष एक कविसम्मेलन आयोजित किया करते थे।
नीरजजी जिस समय कॉलेज के प्रधानाचार्य श्री एल•एन•गुप्ता
के कक्ष में आए, मैं वहीं था। आखिरकार कवियों की सूची में
बालकवि अशोक शर्मा के रूप में मेरा भी नाम था। बाव़फायदे
न्यौतित कवि! उस समय मेरे लिए हैरानी की बात ये थी कि हम
सबके लिए सबसे ज्यादा आदरणीय एवं हृदय–लोक में सर्वोच्च
पदासीन व्यक्ति, यानि प्रधानाचार्य जी, नीरजजी को साक्षात
देखकर परम रोमांचित हो उठे। आंतरिक स्नेहावश में उनकी
कंपकंपी सी छूट रही थी। यह देखकर मैंने पहली बार नीरजजी को
जरा ध्यान से देखा।
छरहरा लंबा शरीर, गालों पर हीमैन वाले गड्ढ़े, बंद गले के
कोट में भारतीयता की एक गरिमा, सम्मोहक मुस्कान, सबके प्रति
सौहार्दपूर्ण व्यवहार, निरभिमानी आत्मीय संवाद। उनके आते
ही सब खड़े हो गए थे। मैं इतना छोटा था कि लोगों के बीच
किसी तरह से घुसकर आगे निकल आया था और चेहरा ऊपर उठाकर उनके
मुख से झरते शब्दों को समझने की चेष्टा कर रहा था।
जलवा हुआ करता था नीरजजी का। 'काई–सी फट जाना' एक मुहावरा
है, नीरजजी जब किसी सभा में पहुंचते थे तो इस मुहावरे का
अर्थ समझ में आता था। ये वो दौर था जब लोगों को साहित्य की
खुराक या तो कविसम्मेलनों से मिलती थी या अपने कस्बे के
वाचनालय से। सब लोग अखबार या पत्रिकाएं खरीदें, कहां
मुमकिन होता था। स्वास्थ्य–चिंता अथवा मित्र–मिलन के
उद्देश्य से कुछ पढ़े–लिखे लोग टहलने जाते थे और लौटते समय
वाचनालय में थोड़ा समय बिताते थे। शहर में कविसम्मेलन होना
हो तो पूरा शहर उस रात का इंतज़ार करता था। वह रात उस शहर
के लिए साहित्य की रात होती थी। बिना शक कहा जा सकता है कि
शहर की साहित्य–सुरूचि का कामना–केन्द्र कविसम्मेलन होता
था, कविसम्मेलन के केन्द्र में हुआ करते थे गीत और गीत के
केन्द्र में थे नीरजजी।
हमारे कॉलेज के कविसम्मेलन की अध्यक्षता श्री सोहनलाल
द्विवेदी ने की थी। नीरज जी ने क्या सुनाया था मुझे बिलकुल
याद नहीं क्योंकि मैं तो अपनी ही कविता के नशे में था। वैसे
भी कविगण एक दूसरे की कविता सुनते ही कहां हैं। दाद देना
या वाह वाह करना प्रायः अवचेतन का अभ्यासजन्य कौशल होता
है।
बच्चन जी से प्रभावित
कुछ अरसे बाद बुलंदशहर की नुमाइश के कविसम्मेलन में पुनः
नीरजजी के दर्शन हुए। वहां मैंने भी कवितापाठ किया था। मेरी
कविता पर नीरजजी मुग्ध हुए और उन्होंने सार्वजनिक रूप से
घोषणा कि वे अपनी किताबों का पूरा सैट इस बालक को पुरस्कार
स्वरूप भेजेंगे। मैं परम प्रसन्न। यह बात मैं सबको बताता
घूमता था कि नीरजजी की किताबों का सैट बस आने ही वाला है।
पर अफसोस कि नीरजजी सैट की बात भूल गए। किताबों का सैट
नीरजजी की पूर्व स्मृति से राइज होने के बजाए विस्मृति के
पश्चिम में सन की तरह सैट हो गया। खैर, नीरजजी भूले पर मुझे
तो याद रहा।
1965 में हाथरस में एक कविसम्मेलन में मेरी कविता से
प्रभावित होकर एक सेठजी ने मुझे इक्कीस रूपए पुरस्कार रूप
में दिए। मेरे मन में तब यह भाव था कि मैं कवि हूं मुझे
पैसों की क्या ज़रूरत। नीरजजी की किताबों के सैट की तरह
पुस्तकें मिलें तो स्वीकार भी करूं। मैंने इक्कीस रूपए तभी
बाढ़–पीड़ितों के लिए दान स्वरूप तहसीलदार महोदय को दे दिए
और मंच पर बैठे नीरजजी को पुस्तकों के सैट की याद दिलाई।
फिर नीरजजी को 1968 में देखा मथुरा में। वे आकाशवाणी के
कविसम्मेलन में किसी सुंदर सी मित्रा के साथ आए। तब तक
नीरज जी के सत्संग के किस्से बहुत मशहूर हो चले थे। मैं उन
दिनों अपना कैशौर्य पार कर रहा था। मैंने उन्हें प्रणाम
किया पर वे मुझे पहचान नहीं पाए कि यह वही बालक है जिससे
उन्होंने कभी कोई वादा किया था। यहां मैं सिर्फ श्रोता की
हैसियत से था। शायद पहली बार मैंने नीरजजी को ध्यान से सुना।
वे बच्चनजी से गहरे प्रभावित थे। बच्चनजी की उस मधुशाला से
जिसमें शराब कम थी पर नशा ज्यादा था। उनकी कविताओं में जहां
एक ओर जन–मन के प्रति एक व्यापक मानवतावादी सोच दिखी वहीं
दूसरी ओर आशा और निराशा के बीच झूलती हुई मृत्यु की अनेक
परिभाषाएं। सरल–सहज भाषा में जीवनानुभूति, प्रेमानुभूति और
सौंदर्यानुभूति का सांगीतिक सम्मिश्रण।
बहरहाल, मैं तो 1968 के बाद अलग सी राह पर निकल पड़ा और कवि
के रूप में मुझे मुक्तिबोध मिल गए। थैंक्यू सुधीश पचौरी!
मैं आधुनिक भावबोध के कवि मुक्तिबोध में इतना डूबा कि फिर
मुझे किसी और कवि अथवा किसी और किस्म की कविता की ओर
आकर्षण नहीं जान पड़ा। दस साल निकल गए। 1968 से 1978 के
बीच मैं कविसम्मेलनों में भी नहीं गया। नीरजजी तब तक मुंबई
में फिल्मों के बतौर गीतकार अपना नाम और काम जमा चुके थे।
नीरजजी के ग्लैमर में फिल्मी कीर्ति और जुड़ चुकी थी। पर
एक अलग तरह की बात हुई जिसकी चर्चा उनके समकालीन कवियों ने
ज्यादा की कि जिन फिल्मों में नीरज जी गीत लिखते हैं वो तो
फ्लॉप हो जाती हैं पर गीत हिट हो जाते हैं। 'मेरा नाम जोकर'
इस बात का एक उदाहरण थी। कहा जाता था कि नीरजजी इस तरह की
बातें सुन–सुनकर परेशान हो गए और मुंबई छोड़कर वापस अलीगढ़
आ गए। और मजे़ की बात ये कि उनके वापस आते ही वह फिल्म हिट
हो गई जिसके गीत लिखकर वे लौटे थे। इस फिल्म का नाम था 'शर्मीली'।
संचालन के लिए क्लीन चिट
नीरज जी से अगली मुलाकात 1979 में कासिमपुर पावर हाउस,
अलीगढ़ के एक कविसम्मेलन में हुई। इस कविसम्मेलन के आयोजक
श्री देशराज मुझसे संचालन करवाना चाह रहे थे क्योंकि
दरियागंज के एलाएंस कविसम्मेलन में उन्होंने मेरा संचालन
देखा था। नीरजजी मुझे पहचाने नहीं। यद्यपि मेरे पिता भी वहां
थे लेकिन उन्होंने पुत्र रूप में मेरा उनसे परिचय कराया नहीं।
इधर मेरा नाम भी बदल चुका था। मेरी उपस्थिति में ही
उन्होंने देशराज जी से कहा – 'कोई चक्रधर वक्रधर नहीं सीधा
सोम से कराओ।' देशराज जी ने उनकी चिरौरी की – 'दद्दा दद्दा!
अरे आप देखिए तो सही, चक्रधर जी यूनिवर्सिटी में पढ़ाते
हैं। सोम जी का संचालन तो सैकड़ों बार सुना होगा, नयों को
भी तो मौका मिले।' नीरजजी ने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा,
धुआं नीचे की तरफ छोड़ा और और जब धुआं वापस उन्हीं के नथुनों
में आने लगा तो उन्होंने गर्दन ऊपर की ओर घुमाई, छत की ओर
देखने लगे। खांसी आई तो एक हाथ गर्दन तक चला गया। देखते छत
की ओर ही रहे जैसे वहां कोई रचनाकर्म में तल्लीन मकड़ी
विचारों का जाला बना रही हो। ऊपर देखते–देखते ही बोले –
'जो इच्छा करिए देशराज जी! . . .वैसे सोड़ा मंगा लिया या
नहीं?' देशराजजी मुदित मन बोले 'जी हां, जी हां। इन्तज़ाम
सारे पक्के हैं।' उन्हें नीरजजी की ओर से क्लीन चिट मिल
चुकी थी।
झूमते भी हैं और झुमाते भी हैं
मैं अंदर ही अंदर मगन था और संचालन के लिए होमवर्क करना
चाहता था ताकि मेरे संचालन के बाद जब परिचय हो तो नीरजजी
को कोई मलाल नहीं साले। नीरजजी के लिए एक विशेषणमाला मैंने
तभी गढ़ी – 'और लीजिए अब पुकारता हूं गीत सम्राट को, जिनकी
बानी प्रेम की बानी है, जिनका शब्द–शब्द प्यार की कहानी
है। कहानी जो भावनगर से अर्थनगर तक जाती है, हालांकि कई
बार अर्थजगत की तलाश में अलीगढ़ से बंबई जाकर रूक जाती है।
लेकिन चूंकि ठाठ फकीरी का है, मामला आंसू के सम्मान का है,
सरोकार देश के सबसे गरीब इंसान का है इसलिए वे कहते हैं चल
रे, चल रे बटोही वापस चल। शोखियों में फूलों का शबाब घोला
जा चुका है, उसमें शराब भी मिलाई जा चुकी है। तैयार होने
वाले नशे को प्यार का नाम भी दिया जा चुका है। विडंबना है
कि बंबई में स्वप्न फूलों की तरह झरने लगे हैं, मीत शूलों
की तरह चुभने लगे हैं। चल कवि नीरज वापस कविसम्मेलनों की
ओर चल। और दोस्तो, आज नीरजजी हमारे बीच में हैं कविसम्मेलन
की सशक्त वाचिक परम्परा के साथ। मैं नीरजजी के रूप में गीतों
के पूरे एक कारवां को पुकारता हूं। श्रोता मित्रों, तालियों
का ऐसा गुबार निकालो कि नीरजजी देखते रह जाएं।'
स्नेह की सघन बरसात
धुआंधार तालियां बजीं, नीरजजी धुआंधार जमे। कविसम्मेलन में
श्रोता भी रात भर रमे। बाद में जब नीरजजी को मेरा संपूर्ण
परिचय मिला तो वे मेरे लिए स्नेह की सघन बरसात में बदल गए।
मैंने याद दिलाया लगभग सोलह साल पुराना वादा किताबों के
सैट का। उसके बाद तो निरंतर उनका सत्संग रहा पर बता दूं कि
आगे आने वाले सोलह साल तक भी सैट नहीं मिला।
मैं कविसम्मेलनों में उन्हें बराबर उनके वादे की याद दिलाता
रहा। बेशर्म होकर कई मंचों से भी नीरजजी की वादाखिलाफी की
चर्चा की। वे मुस्कुराकर रह जाते थे। एक मंच पर उन्होंने
भी सार्वजनिक रूप से कहा कि तीन खंडों में मेरी रचनावली आने
वाली है, आते ही अशोक को दे दूंगा। सन चौरानवें में रचनावली
भी छप गई, पर मिली मुझे सन 2000 में। यानि वादे के लगभग
छत्तीस साल बाद। विलंब तो हुआ लेकिन भेंट के संबोधनों में
उन्होंने पुरानी सारी कसक और कसर निकाल दी। रचनावली के पहले
खंड में उन्होंने मुझे 'अप्रतिम व्यंग्य नक्षत्र' कहा,
दूसरे खंड में 'हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार' और तीसरे
में 'व्यंग्य का अद्भुत कवि' लिखा। मैं संकोच में खड़ा
उन्हें लिखते देख रहा था और सोच रहा था कि ये विशेषण हैं
अथवा मूलधन के साथ ब्याज।
अठहत्तर साल के इस युवा के बारे में तमाम तरह की किंवदंतियां
प्रचलित हैं, जिनमें से अधिकांश सुरीली हैं क्योंकि उनका
संबंध सुरा और सुंदरियों से हैं। नीरज जी की एक कविता में
बड़ा रोचक प्रसंग है कि वे एक चूड़ी बेचने वाली मनिहारिन
के यहां तरह–तरह की चूड़ियां देख रहे हैं और सोच रहे हैं
अपनी पत्नी के लिए कौन सी चूड़ी खरीदें कि तभी एक कंगन उनकी
तरफ चला आता है। वे कहते हैं –
पर जब तब मैं कुछ मोल करूं उससे तब तक,
खुद मुझे खोजता कोई कंगन आ पहुंचा।
जब तक कुछ अपनी कहूं सुनूं जगके मन की,
तब तक ले डोली द्वार विदा–क्षण आ पहुंचा।
नीरजजी कंगन को एक प्रतीकार्थ देना चाह रहे हैं। पर मैंने
कविसम्मेलन की असंख्य यात्राओं में देखा कि तमाम तरह के
कंगन उनकी ओर खींचे चले आते हैं। मैं दावे से कह सकता हूं
कि बीसवीं सदी में किसी कवि को महिलाओं का इतना निश्छल
प्रेम–स्नेह प्राप्त नहीं हुआ होगा, जितना नीरजजी ने हासिल
किया।
मैंने देखा कि नीरजजी को उनकी महिला–मित्रा एक अद्भुत
सखाभाव से देखती हैं। नीरजजी को अपना ऐसा सखा मानती हैं,
जिससे अपने जी की तमाम बातें की जा सकती हैं। सखी होने की
पूरी लिबर्टी लेती हैं। आत्मीयता से अपने सखा को
अधिकारपूर्वक डांटती हैं – एक परांठा तो खाना ही पड़ेगा। .
. .अब और बीड़ी नहीं पीने दूंगी। . . .बहुत देर से बातें
कर रहे हैं अब सो भी जाइए, वगैरा वगैरा। ऐसी स्नेहपूर्ण
डांटें वे निरंतर खाते रहते हैं। कोई–कोई सखी अचानक
एकाधिकारिणी भी हो उठती हैं और नीरजजी मुस्कुराते हुए
निरीह आज्ञाकारी।
वैसे वे ज्योतिष के परम ज्ञाता हैं पर मैंने कभी भी उन्हें
किसी महिला का हाथ देखते हुए नहीं पाया। महिलाएं ही उनका
हाथ पकड़कर उन्हें डांटती–समझाती रहती हैं। अलग–अलग नगरों
में मैंने नीरजजी की अलग–अलग सखियां देखीं। सभी गंभीर,
दायित्वबोध से परिपूर्ण, अपनेपन की आत्मीय प्रतिमाएं। मैंने
नीरजजी के सखाभाव में एक साख पाई। नीरजजी के सुरापान के
बारे में मैं साफ कर दूं कि वह जितनी पीते नहीं हैं, उससे
ज्यादा झूमते और झूमाते हैं।
मंच को नीरज का प्रदेय यह है कि उन्होंने मंच के माध्यम से
व्यापक हिन्दी जनमानस को प्रेम और इंसानियत में घोलकर
अध्यात्म का संदेश जमकर दिया है। वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति–पांति
से उठकर बृहतर मानवीय सरोकारों को उन्होंने बराबर रेखांकित
किया है। इंसानियत के तमाम सकारात्मक तत्वों के प्रति वह
बहुत ही आशावान रहते हैं। तीसरा युद्ध नहीं होगा, उनकी
बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। कारवां गुजर गया तो उनकी ऐसी
रचना है, जो दशकों से दर्शक उनसे सुनते ही सुनते हैं।
पर नीरजजी से मेरी एक वाजिब शिकायत है। नीरजजी को पता ही
नहीं है कि वे नीरजजी हैं। उन्हें अपनी प्रभावान्विति और
अपार क्षमताओं का बोध नहीं है। ऐसा इसलिए लगता है कि मंच
पर चल रही तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रति वे एक
चुप्पी का सा रूख अपना लेते हैं। मैं जानता हूं कि मंच की
विकृतियां उन्हें पचती नहीं हैं ऐसे में वे क्या करते हैं
कि मंच पर जाते ही कहते हैं कि उनका स्वास्थ्य खराब है, सो
उन्हें जल्दी कवितापाठ करके जाने की इजाजत दी जाए। मंच के
तमाम दुर्गुणों को सह न पाने की वजह से यह पलायन का रवैया
है। मंच का स्वास्थ्य खराब बताने के स्थान पर वे स्वयं को
अस्वस्थ बताते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि हास्य कविताओं
के इस होहल्ले में गीत भला कहां जम पाएगा। पहला गीत जमते
ही वे भरपूर स्वस्थ दिखने लगते हैं और फिर घंटों सुना सकते
हैं।
सखा भाव की साख
मंच का स्वास्थ्य खराब होने के लक्षण देखने के बाद नीरजजी
को उनसे किनाराकशी नहीं करनी चाहिए बल्कि स्वस्थ कविता के
लिए आह्वान करना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि उनके पास एक
बहुत बड़ी फौलोइंग हैं। उनके आह्वान से स्थितियां सुधर सकती
हैं। अठहत्तर साल का यह नौजवान बहुत कुछ कर सकता है, पर वह
करता नहीं हैं और भाग जाता है। मंच की मचान से अगर वह कोई
बात कहेंगे तो मेरा विश्वास है कि बाकी लोग उसे क्लास के
छात्रों की तरह सुनेंगे। पर वह कहें तो। फिलहाल मैं उनके
लिए कहता हूं–
दहकी दर्द सलाख मिलेगी नीरज में,
अरमानों की राख मिलेगी नीरज में।
तितली कलियां गलियां गिनना बंद करो,
सखा भाव की साख मिलेगी नीरज में।
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