मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


7 मंच मचान

— अशोक चक्रधर

तीन तरह की बत्तीसी

'नई कविता' आंदोलन के समय मंचीय कविसम्मेलनों के कवियों और इस आंदोलन से प्रभावित कवियों के बीच एक गहरी खाई थी। डॉ अशोक चक्रधर स्वयं भी मंचीय कविसम्मेलन को हेयदृष्टि से देखते थे। इसके बावजूद वे मंच के कवि बने तो इसके पीछे सुप्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी की ही प्रेरणा रही थी। प्रस्तुत लेख में वे अपने परिवार के संरक्षक पद्मश्री गोपालप्रसाद व्यास और काका हाथरसी से अपने आत्मीय संबंधों का खुलासा कर रहे हैं।

यों तो यमुना दिल्ली से बहते हुए मथुरा की ओर जाती है पर मैं सन् बहत्तर में मथुरा से बहते–बहते दिल्ली आ गया। आया इसलिए क्योंकि एम•ए• हिन्दी में प्रथम श्रेणी तो आई लेकिन आगरा विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान नहीं पा सका। विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर आने का दर्द मुझे दिल्ली लाने में प्रेरक तत्व रहा। लेकिन दिल्ली आकर मुझे प्रथम श्रेणी के मित्र मिले। ऐसे मित्र जिनके बीच अपने–पराए जैसा कोई बोध नहीं था। वे प्रगतिशील थे, प्रगतिकामी थे, मुक्तिकामी थे। समाज रूपांतर विधियों में संलग्न, एक ऐसी बलवती आशा से लैस, जैसे कल ही क्रांति होगी और परसों से पहले समाज बदल जाएगा। दमदार दिनचर्या होती थी उनकी और शानदार सपने। मैं भी ब्रज–मंडल से आए हुए अनेक युवाओं की तरह उनकी कक्षा का रक्तालोकस्नात सपनार्थी बन गया। बाबा नागार्जुन हमारे कम्यून में हफ्तों ठहरते थे। कभी युवाओं को समझाते थे, कभी उनसे समझते थे। काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई राजसत्ता से भरोसा उठ चुका था।

कभी मेरा उपन्यास उपन्यास खेलने का मन हुआ तो आठवें दशक के पूर्वार्ध के फील्ड से बाहर निकलने की तबीयत ही नहीं करेगी। अंतर्घट क्या, पूरा अंतर्कूप घटनाओं से भरा पड़ा है। जीवन की असली रस्सा–कस्सी सत्तर से अस्सी तक के हर पल की हलचल में बसी हुई है। इकहत्तर से छियत्तर तक तो खेल क्लाइमैक्स पर ही चलता रहा।

हां तो, राजसत्ता से भरोसा उठा तो स्वतःस्फूर्त आंदोलन उठे। उठे भरोसे को बैठाने के लिए जे•पी•आए, छात्र बहुत कुलबुलाए। जगह–जगह नुक्कड़ कविगोष्ठियां होती थीं। सब जगह माइक का बंदोबस्त हो ऐसा भी नहीं था। कविताएं सुनते वक्त विश्वविद्यालय परिसरों का हुजूम इतना शांत हो जाता था कि कवियों का फुसफुसाने का अंदाज भी सुनाई देता था। यदाकदा लोग फुसफुसाते थे – 'पुलिस आई, पुलिस आई।' कुछ वहां से भाग लेते थे और कुछ घटना में पूरी तरह से भाग लेते थे और पकड़े जाते थे और छोड़ दिए जाते थे। क्रांति भी हो रही थी और मज़ाक भी जारी था। श्री राजनारायण के भाषण हास्य कविताओं से कम नहीं होते थे। कई बार पुलिस उनको डंडा–डोली करते हुए उठा ले जाती थी। पुलिस भी हंस रही होती थी वे भी हंस रहे होते थे और छात्र भी हंस रहे होते थे। गगनभेदी नारे गूंजते थे तो कई बार लाठियों के सक्रिय होने से मामला गंभीर भी हो जाता था। उन दिनों श्रीयुत राजनारायण उसी तरह के हीरो बने हुए थे जैसे आजकल लालू हैं। और हम ये क्यों भूल जाएं कि लालू जी की राजनैतिक शिक्षा–दीक्षा भी तो जे•पी•आंदोलन के विश्वविद्यालय में ही हुई। लालूजी के बहुत सारे लटके–झटके देखकर मुझे मरहूम राजनारायण खूब याद आते हैं।

हल्की–फुल्की नेतागिरी मैं भी करता था। बाबा नाच–नाचकर कविताएं सुनाते थे तो मैं कागज बांच–बांचकर सुनाता था। सफदर, काजल घोष, मनीष मनोचा और मैं मिलकर बकरी नाटक के गाने दिल्ली के कोने–कोने में गाया करते थे –

दिन में दो रोटी के हों जब देश में लाले पड़े,
हों सभी खामोश सब की जुबां पर तालें पड़े,
दिल दिमाग औ' आत्मा पर इस कदर जाले पड़े,
सूखे की शतरंज नेता खेलें दिल काले पड़े।
तोंद अड़ियल पिचके पेटों पर चलाए गोलियां,
हर तरफ फिर क्यों न निकलें क्रांतिकारी टोलियां,
फिर बताओ किस तरह खामोश बैठा जाए हैं
अब तो खौले खून रह–रहकर जुबां पर आए हैं
बहुत हो चुका अब हमारी है बारी,
बदल के रहेंगे ये दुनिया तुम्हारी।

मैं एक जोड़ी कुर्ता पाजामा झोले में लिए गिरफ्तारी से बचने के लिए यहां–वहां छुपता फिरता था। कभी मिलिटरी वाले मौसाजी के यहां तो कभी जननाट्य मंच के किसी सदस्य के घर।

पता नहीं उन दिनों कविसम्मेलन होते थे या नहीं होते थे। होते ही रहे होंगे चूंकि बागेश्री के जरिए पता चलता था कि काकाजी आज वहां जाते हुए रेल्वे स्टेशन पर मिलेंगे और वहां से आते हुए बस अड्डे पर। यानि कविसम्मेलन भरपूर चल रहे थे पर कविसम्मेलनों से मेरी दिलचस्पी तो सन् अड़सठ में ही समाप्त हो चुकी थी।

पद्मश्री गोपालप्रसाद व्यास प्रारंभ से हमारे परिवार के संरक्षकों में रहे हैं। वे मुझे चौंसठ से अड़सठ तक लगातार लाल किले के कविसम्मेलन में बुलाते रहे। सन् पैंसठ में भरतपुर के एक कविसम्मेलन में उन्होंने मुझे अपना पेन यह कहते हुए भेंट किया था कि जिस कलम से मैं 'यत्र तत्र सर्वत्र' लिखता हूं वह इस बालक को भेंट कर रहा हूं। हज़ारों लोगों की उपस्थिति में पाया हुआ वह पेन मैंने दिल्ली के संघर्ष के दौरान खत्म कर दिया या खो दिया मुझे याद नहीं पर आज भी जानता हूं कि आदरणीय व्यास जी मुझे हृदय से चाहते हैं। बहत्तर तिहत्तर में वे चाहते थे कि मैं दिल्ली आ ही गया हूं तो कविसम्मेलनों में भी जाया करूं। पर मैं उन्हें कैसे बताता कि जिन मित्रों के साथ रहता था वे और स्वयं मैं भी कविसम्मेलन की इस परंपरा को हेयदृष्टि से देखने लगे थे। हम तो नुक्कड़ गोष्ठियों और लघु पत्रिकाओं के कवि थे।

कविसम्मेलन उस समय में गेय रहे होंगे लेकिन मैं था कि अपरिमेय ढंग से विरक्त था। कविसम्मेलन की शक्तिशाली प्रमेय समझाने के लिए कोई पाईथागोरस मेरे पास नहीं था। मथुरा का गोरस छोड़ आया था। जो चीज़ पाई, माफ करिए उसे पाईथागोरस भी नहीं जानते रहे होंगे, मैं भी नहीं जानता था। मैं खोईथागोरस हो गया था यानि ऐसा ब्रजवासी जिसका गोरस खो गया हो।

क्या पाया, क्या खोया, कितना सबके सामने हंसा कितना अकेले में रोया, क्या बताऊं। उत्साहपूर्वक तीन–चार साल संघर्ष किया लेकिन अंत में हाथ लगी एक हताशाश्री और हाथरस से जगी एक आशाश्री जिसका नाम था बागेश्री। नौकरी छूट गई तो बागेश्री मिल गईं, बागेश्री मिली तो फिर से नौकरी भी मिल गई लेकिन प्रगतिवादी पर्यावरण छूट गया। कुछ पाओ तो कुछ छूटता ज़रूर है। मेरे प्रगतिवादी मित्र मुझसे आशा छोड़ बैठे। मुझे वे 'गौन–केस' मान चुके थे क्योंकि मैंने गौना करा लिया था। कुंवारा संघर्ष कर रहा होता तो शायद वे मुझे गौण न मानते। बहरहाल, मैंने वरण किया, उन्होंने कहा मरण है, मैंने कहा – नहीं, यही तो क्रांति का पहला चरण है।

मुक्तिबोध से प्रभावित

कविता हो रही थी पर कविसम्मेलन नहीं। मैं धुर बचपन से कविसम्मेलन की धुरी को पहचानता था। मुक्तिबोध और नई कविता आंदोलन के अध्ययन ने एक नई तरह की दुनियादारीविहीन समझदारी तो दी, लेकिन, कविसम्मेलन की
ईमानदारी और दुकानदारी के प्रति सकारात्मक भाव समाप्त कर दिया। उन दिनों लगता था कि गीतकार अपनी भावुकता में आकंठ डूबे हुए हैं और कंठ के भरोसे काम चल रहे हैं। वीररस जैसी चीज हास्यास्पद लगती थी और हास्य में हास्य किधर से भी नज़र नहीं आता था। अगर कभी कोई सहज हास्य वाली कविता हंसाती भी थी तो अंदर धंसी हुई पीड़ाएं हंसने पर पाबंदी लगा देती थीं। मुझे अफसोस है यह स्वीकार करते हुए कि अपनी अल्पज्ञता में एक विद्रूपभरी मुस्कान के साथ काकाजी की कविताएं सुना करता था।

काकाजी का स्नेह बचपन से पाया था। मेरे बचपन के मित्र मुकेश आर्थिक रूप से बेहतर थे और काकाजी दिल्ली आने पर टैगोर पार्क में उनके पास ठहरते थे। एक दिन मैं मुकेश के कमरे पर गया, देखा कि काकाजी वहां आए हुए हैं। काकाजी ने मुझे बीस रूपए दिए और बोले – 'लल्ला ये तुम्हारे दूध के ताईं हैं, हफ्ता दो हफ्ता चकाचक दूध पिऔ, मलाई छानौ और मौज करौ।'

दूध पीने लायक पैसे नहीं थे

मैं मूर्ख उनके स्नेह को समझ नहीं पाया। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि काकाजी मुझे दया की दृष्टि से देख रहे हैं। यह तो सही था कि उन दिनों मेरे पास खाने–पीने पहनने लायक धन नहीं था, लेकिन बीस रूपए दिए जाने को मैं पचा नहीं पा रहा था। उससे खरीदे हुए दूध को कैसे पचाता! मैं रूपए लेने से मना करके काकाजी का अपमान भी नहीं करना चाहता था। वे कोई पहली बार तो मिल नहीं रहे थे। बचपन से देखता आया हूं कि उन्होंने इसी तरह से सभी को प्रोत्साहित किया है। सुरूचि उद्यान, ब्रजकला केन्द्र के समय में हमने भी चवन्नियां ली हैं उनसे। रिक्शे की चवन्नी।

मौका पाकर मैं मुकेश के कमरे की बालकनी में गया। उस नोट के साथ एक चिट लगाई – 'बहुत बहुत धन्यवाद काकाजी। इन दिनों वाकई दूध पीने लायक पैसे मेरे पास नहीं रहते हैं, दो हफ्ते के लिए आदत क्यों बिगाडूं?' नोट में आलपिन से पर्ची लगाई और काका के तकिए के नीचे चुपचाप रख दी। अब मेरे मन पर कोई बोझ नहीं था। बहुत ही प्रसन्न था और मुझे काका की हर बात पर आनंद आ रहा था। मुक्त मन से उन्मुक्त खिलखिला रहा था। काकाजी भी मुझे गुदगुदायमान देखकर गदगदायमान थे। सहजता से बोले – 'देखौ दूध के बीस रूपइया मिल्तेई कैसी बत्तीसी खिल गईऐ छौरा की!'

मुस्कराकर आदर देते थे

मुझे और ज़ोर की हंसी आई क्योंकि मैं अपनी पर्ची के साथ रूपयों की बत्ती–सी बनाकर तकिए के नीचे पहले ही रख चुका था और व्यर्थ के अहंकार में मन ही मन सोच रहा था कि जब काकाजी तकिया हटाएंगे तो उनकी नकली बत्तीसी में असली हंसी नहीं आ पाएगी। तीन तरह की बत्तीसी वाली यह बैठक लंबी चली। वे मेरी हास्य चेतना देखकर बोले – 'लल्ला तुम्हें कविसम्मेलन में जाना चाहिए, पहले की तरह। . . .और ये जो तुम ऊटपटांग सी कविताएं लिखते हो, जो किसी की समझ नहीं आतीं, इनका पल्ला छोड़ो और कविसम्मेलन में आओ। सीधी सरल कविताएं लिखो, जो सब तक पहुंचे। ऐसी कविता से क्या हासिल जिसे कोई समझ ही न पाए। तुम जनता के आदमी कहां हुए, कैसे हुए? कोई तुम्हारी बात समझता नहीं और कहते हो जनता का भला करने निकले हो! इस तरह से जनता का भला थोड़े ही होगा। मुझे समझाओ, बात समझ में आएगी तभी मानूंगा। ऐसे थोड़े ही मान लूंगा!'

उन दिनों हम ऐसे बुजुर्ग लोगों को बहस के योग्य नहीं समझते थे। मुस्कुराकर आदर देते हुए कहा – 'काकाजी कोशिश करूंगा।' वे बोले – 'नहीं तुम टाल रहे हो भइया, टरका रहे हो हमें! जैसी तुम्हारी मर्जी, हमने तो लगा दी है अर्जी। सरल लिखो सरल। जो समझ में आए वो ही असल।'

संक्रमण का दौर

वे दिन अलग थे। मुक्तिबोध कुछ इस कदर हावी थे कि शिल्प और कविता की न्यूनतम शर्ते अगर न दिखें तो आनंद ही नहीं आता था। मुझे तो कविता में पूर्णतम परम अभिव्यक्ति की तलाश थी। सारे गढ़ और मठ तोड़ना चाहता था उन दिनों। साहित्यकार, पत्रकार, कवि, बुद्धिजीवी सब के सब मृतदल की शोभायात्रा में शरीक नज़र आते थे। लगता था कि ये जो कविताएं मंच पर सुनाई जाती हैं इनका जनमन से कोई सरोकार नहीं है। ये कविताएं जनता की किस्मत को नहीं बदल सकतीं। मनोरंजन के नाम पर जो हो रहा है ग़लत है।

अजीब से संक्रमण का दौर था। जिसमें पूरा समाज एक आपातकाल झेल रहा था। बकौल कुबेर दत्त 'पात पात अपात' या कहूं – 'काल काल दुष्काल।' कोई काला पत्ता था जो आ बैठा था सबकी चेतना की सत्ता पर। अलबत्ता एक बात पता नहीं क्यों समझ में नहीं आती थी कि जब हम लोग जनता के बीच जाते थे तब तो नाटकों के गाने गाते थे और जब कविताएं लिखते थे तो ऐसी जिन्हें हजार पांच सौ लोगों से ज्यादा लोग समझ ही न पाएं।

सिद्धातों के चाबुक

मैं अपने क्रांतिकारी साथियों से विलग हो गया, जानबूझकर नहीं, जामिआ की नई नौकरी के कारण। जामिआ मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय से दूर थी। डीयू से चलो तो लाल किले तक कई सारी बसें थीं लेकिन लाल किले से सिर्फ नौ नंबर की बस चलती थी ओखला के लिए। एक दिन में साढ़े बारह रूपए के पास को ज़िन्दाबाद करता हुआ ये बादल कितनी बसें बदलता था कुछ याद नहीं। पर अपनी बदली से मिले बिना भी तो चैन नहीं पड़ता था। इधर–उधर भटकने वाला बादल एक दिन बदली की बात मानकर बदल गया। पेशे खिदमत है एक कविता जो हाल ही में लिखी है पर पुरानी यादों से जुड़ी है। आपकी बत्तीसी न भी दिखी तो चलेगा, पर हरियाली दूब पर क्षणभर मुस्कुरा जरूर देना।

बादल से बोली बदली –

बादल से बोली बदली – ये उतावली नहीं भली!
मुझे छोड़ के भागा जाता, किस रस्ते, अनजान गली?
बादल बोला – ओ बदली! मैंने राह नहीं बदली।
तेज हवा ले जाय जिधर वो मेरी मंज़िल अगली।
बदली को आया गुस्सा, बादल को मारा घिस्सा–
दुष्ट हवा कैसे लेगी, मेरा हक मेरा हिस्सा?
मुझको अपनी कहता है, संग हवा के बहता है।
वो तेरा कुछ भला करेगी किस गफ़लत में रहता है?
प्यासा मरूथल तरसेगा, तुझसे ही तो सरसेगा।
संग हवा के लगा रहा तो क्या सागर पर बरसेगा?
मुझको अंग लगा ले तू, अपने संग मिला ले तू
हिला न पाएगा कोई भी, अपना वज़न बढ़ा ले तू।
बदली जी को जम गई बात अकल की थमा गई
बाहें फैलाईं बादल ने बदली उसमें समा गई।
दोनों गए स्नेह में डूब, दोनों मिलकर बरसे खूब
फिर कुछ दिन के बाद दिखी मरूथल में हरियाली दूब।
 
पृष्ठ  1.2.3.4.5.6.7.8.9.10.11.12.13.14.15.16.17.18.19.20.21.22.23.24.25.26

आगे—

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।