इस वास्ते अनुरोध है
दरबारी संस्कृति में कवियों को कविता की एक पंक्ति देकर
समस्यापूर्ति कराई जाती थी। सब अपनी कल्पनाओं, भावनाओं और
बुद्धि के घोड़े दौड़ा देते थे और एक ही कथन को नई–नई कविता
बनाकर अनेक आयामों में प्रस्तुत करते थे। वाहवाही होती थी
और इनाम में अशर्फियां मिलती थीं। रत्नजड़ित मालाएं एवं
जागीरें तक मिल जाती थीं। मुशायरों में तरही मुशायरे
लोकप्रिय हुए।
शायर हज़रात दिए गए एक मिसरे से नई और निराली अर्थ–छवियां
निकालते थे। दाद और तालियां प्रायः बिना मांगे मिला करती
थीं। सबका काम स्तरीय न भी हो, लेकिन मौलिक होता था। यही
कारण है कि हमारी भाषाओं में कविता की वाचिक परंपरा आज भी
मज़बूत है। इधर सीन कुछ चेंज हो रहा है। कविसम्मेलनों के
कुछ पुराने चाहक और श्रोता आजकल के कवियों से एक प्रश्न
पूछते हुए पाए जाते हैं – 'आप बार–बार तालियों के लिए
आग्रह क्यों करते हैं? आपकी कविता में दम होगा और हमें
बजानी होंगी तो अपने आप बजाएंगे। भीख–सी क्यों मांगते
हैं?'
कवि कैसे बताए कि ये अंदर की बात है। बहरहाल, तालियां
बजवाने के पीछे जलवागरी का जाली काम होता है, जिसमें टोटके
मददगार होते हैं। पिछली बार मैंने कुछ सदाबहार टोटके बताए
थे। श्रोताओं की दुविधा दूर करने के लिए और मंचकामी कवियों
की सुविधा बढ़ाने के लिए लीजिए, कुछ और लीजिए। पहले की
भांति इस बार भी मूल टोटका–कथन के साथ टोटका–स्थिति, जनक–प्रसारक,
कथन–विस्तार, विस्तारक, टोटकायु, टोटके का घोटका अर्थात
टोटका–मथन आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। कुछ ऐसे टोटके जो
तालियां बजवाने के काम आते हैं।
ताली, साली, और दुनाली
स्थिति/ मुख्य–अतिथियों के बाद कवियों का स्वागत हो चुका
है। कवि–कंठ मालाओं से सुशोभित हैं। कवियित्री अपने पुष्प–गुच्छ
को साड़ी से दूर सरका रही हैं; कहीं दाग़ न लग जाए। माइक
संचालक को सौंपा जा चुका है।
टोटका–कथन/ काव्य प्रेमी रसिकों, घर के ताले खुलते हैं
तालियों से, जीजाओं के जी खुलते हैं सालियों से, दुश्मनों
के कलेजे खुलते हैं दुनालियों से, गुण्डों का प्यार खुलता
है आपस की आत्मीय गालियों से, उसी तरह कविसम्मेलन का द्वार
खुलता है – श्रोताओं की तालियों से।
जनक/ पं•गोपाल प्रसाद व्यास।
विस्तारक/ असंख्य।
टोटकायु/ लगभग चालीस वर्ष।
टोटका–मथन/ क– टोटका अनेकायामी और दूरगामी है। जड़ भौतिक
पदार्थ ताला–ताली से लेकर चेतन–चंचल–चपल साली तक जाता है।
देश की रक्षा में तैनात सिपाहियों की दुनालियों से लेकर
असामाजिक तत्वों के भाषा संस्कार तक को ध्वनि देता है। ख –
अंततः दूरगामी प्रभाव छोड़ता है क्योंकि दूर से दूर बैठा
श्रोता भी ताली बजाए बिना नहीं रह सकता। ग – श्रोता की
तालियों के इस प्रथम उद्दाम ज्वार का एक कारण यह भी होता
है कि वह अब तक की भाषणप्रधान स्थितियों से ऊब चुका था और
चाहता है कि कविसम्मेलन का द्वार उनके लिए और कविताओं के
लिए अविलंब खोल दिया जाए। घ – पांच परस्पर असंबद्ध वस्तुओं,
मनोभावों, व्यक्तियों और करतल–क्रियाओं को संबद्धता प्रदान
की गई है। ङ – इसे विरूद्धों का सामंजस्य भी कह सकते हैं।
निष्कर्ष/ टोटका तत्काल परिणाम दिखाता है। कभी असफल नहीं
हो सकता। असंबद्धता के प्रति हमारे लगाव को भी प्रदर्शित
करता है।
छाली, थाली एंड घरवाली मोर
स्थिति/ पहले टोटके के समान। माइक संचालक को सौंपा जा चुका
है।
टोटका–कथन/ पूर्व टोटका कथन का काव्यानुवाद – 'पूरी बेलने
को जैसे बेलन ज़रूरी होता, पूरी खाने को जैसे ज़रूरी होती
थालियां, घर वाले को ज्यों ज़रूरी होता एक घर, घरों को
ज़रूरी जैसे होतीं घरवालियां, जीजाजी को सालियां, दरोगाजी
को गालियां ज्यों, पान में ज़रूरी जैसे होती कुछ छालियां
वैसे ही हृदय का बंद ताला खोलने के लिए कवि को ज़रूरी होतीं,
श्रोताओं की तालियां।
जनक/ डॉ•उर्मिलेश।
विस्तारक/ अनेक।
टोटकायु/ लगभग बीस वर्ष।
टोटका–मथन/ क – यों तो यह टोटका–कवित्त पूर्व कथन का
विस्तार है लेकिन श्रमपूर्वक इसमें नए तुकांत और नई
स्थितियां जोड़ी गई हैं। व्यास जी का ध्यान छालियों, थालियों
और घरवालियों तक नहीं गया था, वे साली और दुनाली के
आक्रामक तेज के सामने घर की थाली और घरवाली दोनों को भूल
गए थे। ख – थाली और घरवाली के माध्यम से डॉ• उर्मिलेश ने
साहित्य में नारी–विमर्श को आगे बढ़ाया है।
निष्कर्ष/ पूर्वकथित टोटकोक्तियों को काव्य–सांचे में ढालना
अपराध नहीं है। नई उपमाओं को जोड़ने से पुरानी बात में
सौंदर्य बढ़ जाता है।
यहीं मर जाऊंगा
स्थिति/ कवि जम नहीं पा रहा है। अनेक बार तालियों की भीख
मांगने के बावजूद जब अपेक्षित तालियां नहीं बजतीं तब वह
कवित्त–टोटके का प्रयोग करता है।
टोटका–कथन/ 'दूर–दूर बैठे, घूर–घूर मुझे देखते हो, ऐसे तो
हुजूर आप से न डर जाऊंगा। तंग जो करोगे मुझे, रंग में
करूंगा भंग, ढंग से सुनोगे तो उमंग भर जाऊंगा। तालियां ना
पीटोगे तो गालियां सुनाऊंगा मैं, दाद नहीं दोगे तो फसाद कर
जाऊंगा। एक श्रोता बोला – क्या फसाद कर दोगे तुम, कवि बोला
– गीत–गाते यहीं मर जाऊंगा।'
जनक/ कविवर ओमप्रकाश आदित्य।
विस्तारक/ कुछ कुशाग्र कवि जो टोटकागति को प्राप्त इस
कवित्त के जनक के नाम का उल्लेख करते हैं।
टोटकायु/ लगभग पच्चीस वर्ष।
टोटका–मथन/ क – कवि के लोकतांत्रिक अधिकार को रेखांकित करता
है। ख – आत्महत्या की धमकी देने से विधिविरूद्ध हो जाता
है। ग – भीख में तालियां मांगने की तुलना में धमकी देकर
तालियां प्राप्त करना अधिक सरल होता है। घ – उक्ति में
हरियाणा की प्रहारक शैली है। ङ – गालियों की धमकी देने के
बावजूद श्रोता तालियां बजाते हैं। च – गालियों की ज़रूरत
पंडित गोपालदास व्यास तथा डॉ•उर्मिलेश द्वारा भी महसूस की
गई थी।
निष्कर्ष/ यह कवित्त याद होने पर ही प्रभावशाली रहेगा, यदि
पढ़कर सुनाया गया तो सहायक नहीं हो पाएगा। पढ़कर सुनाने
में एक ख़तरा और भी है कि सुनाने वाले अपमान के साथ–साथ
बिना बात कविवर ओमप्रकाश भी अपमान की चपेट में आ सकते हैं।
उठ के नहीं जाएं
स्थिति/ पहले के समान संचालक माइक पर आ चुका है। श्रोता इस
समय कविता सुनने की मानसिकता में आ चुके हैं। वे
कविसम्मेलन से बहुत आस लगाकर आए हैं, अतः संचालक की बात
पूरे मनोयोग से सुन रहे हैं!
टोटका–कथन/ महफ़िल को आज काव्य से कुछ इस तरह सजाएं, दिल से
सुनें दिलों की बात, उठ के नहीं जाएं।' बात दिल से कही जाती
है इसलिए दिलों तक पहुंचती है और बिना मांगे ही श्रोता ताली
बजाने लगते हैं।
टोटका कथन विस्तार/ 'कविगण भी उल्लसित हों और झूमकर सुनाएं,
इस वास्ते अनुरोध है फिर तालियां बजाएं।'
जनक/ यह नाचीज़।
टोटका विस्तारक/ अनेक।
टोटकायु/ लगभग पच्चीस वर्ष।
टोटका–मथन/ क – श्रोताओं के मनोविज्ञान का ज्ञान, ख – पहली
तालियां संचालक और श्रोताओं के बीच संधिपत्र पर किए गए
हस्ताक्षरों के समान हैं कि वे उठकर नहीं जाएंगे। ग – ये
तालियां संचालक के प्रति श्रोताओं के समर्थन में
स्वतःस्फूर्त होती हैं जबकि दूसरी ज़बरदस्ती मांगी जा रही
हैं।
निष्कर्ष/ कविसम्मेलन के प्रारंभ में श्रोता अच्छी कविताओं
की आस लगाए हुए पूरी तरह से कवियों के समर्थन में बैठे होते
हैं। उनके चेहरे पर उम्मीदों की किरणें झिलमिलाती हैं।
इन्हें कविसम्मेलनों की वाचिक परंपरा के प्रति श्रोताओं के
आशावाद की किरणें माना जा सकता है। कवि सम्मेलन कई बार
श्रोताओं की अपेक्षाओं से अच्छे हो जाते हैं तो अनेक बार
उनकी उम्मीदों पर पानी भी फिर जाता है।
होश और जोश
स्थिति/ ऊपर के समान।
टोटका–कथन/ 'महको तो ऐसे महको कि बहारों को होश आ जाए,
तालियां बजाओ तो ऐसी कि कवियों को जोश आ जाए।'
जनक/रामरिख मनहर
टोटका विस्तारक/ असंख्य
टोटकायु/ लगभग चालीस वर्ष।
टोटका–मथन/ क – यहां महक को बहारों से बड़ा और तालियों को
कवियों से बड़ा माना गया है। ख – बहारों में होश का आना
कवियों में जोश के आने के बराबर बताया जा रहा है। ग – छंद
की दृष्टि से दोनों पंक्तियों में मात्राएं बराबर नहीं हैं
लेकिन ये पंक्तियां छल–छंद की दृष्टि से तालियों की
मात्राएं बढ़ाने में कारगर सिद्ध होती हैं।
निष्कर्ष/ वस्तुतः महक और तालियों का कोई परस्पर संबंध नहीं
है लेकिन होश की तुक जोश से मिलाकर जो कौशल दिखाया गया है
वह तत्काल तालियां बजवा देता है। इन पंक्तियों को वीररस के
अंदाज़ में सुनाया जाए तो तालियां चौगुनी तक हो सकती हैं।
बाद की कोई गारंटी नहीं।
स्थिति/ तालियों का बजना धीरे–धीरे कम होने लगा है। कवि को
बार–बार कहना पड़ रहा है कि अगली पंक्तियों पर आपसे तालियों
की उम्मीद रहेगी। यथेष्ट तालियां नहीं बज पा रही हैं।
संचालक अगले कवि को बुलाता है और अपना कौशल दिखाते हुए उसके
सम्मान में ज़ोरदार तालियां बजवा चुका होता है।
टोटका–कथन/ मेरे सम्मान में एक बार फिर से तालियां बजा
दीजिए; श्रोता मन मारकर बजा देते हैं। ये तालियां इसलिए
बजवाई हैं कि आप लोग बाद में बजाएंगे इसकी कोई गारंटी नहीं
हैं।
जनक/ कविवर महेन्द्र अजनबी
विस्तारक/ अनेक।
टोटकायु/ लगभग पन्द्रह वर्ष
टोटका–मथन/ क – कवि का स्वावलंबन। ख – श्रोताओं की
अपेक्षाओं को पहले कम करना, फिर बढ़ाना। ग – श्रोताओं में
अपने प्रति दया जागृत करना।
निष्कर्ष/ अपनी सहजता के कारण यह टोटका तत्काल असर करता
है। इसके बाद कवि को अपना काव्यपाठ जमाने में अधिक श्रम नहीं
करना पड़ता।
कुछ और टोटकावलियां
तालियां मांगने की कुछ सैट वाक्यावलियां निम्न प्रकार हैं
–
1• आपकी करतल ध्वनि मुझे ऊर्जा देगी। थोड़ी देर बाद थोड़ी
ऊर्जा और चाहिए। श्रोता समझ नहीं पाते, मैंने कहा था ना ऐसा
ध्वनि करिए जिससे मुझमें काव्यऊर्जा का संचार हो। श्रोताओं
को याद आता है कि उन्हें तालियां बजानी हैं।
2• आशा है अगली पंक्ति पर आपका आशीर्वाद मिलेगा।
3• अपनी इस बात पर मुझे सदन का पूरा समर्थन और मंच का
सहयोग चाहिए।
4• आपका प्यार चाहिए; ताली बज चुकने के बाद आशा है ये
प्रेम बनाए रखेंगे।
5• इस एक पंक्ति पर एक–एक श्रोता का आशीष चाहिए।
6• मेरी कविता संतोषी मां की कथा की तरह मत सुनिए।
7• मरघट में नहीं सुना रहा हूं, आपके जीवित–जागृत होने का
सबूत चाहिए।
8• अपनी उपस्थिति का भौतिक और ध्वन्यात्मक प्रमाण दीजिए।
9• तालियां नहीं बजाएंगे तो यही पंक्ति सौ बार सुनाऊंगी।
10• मैंने ज़िंदगी में घास नहीं छीली, कविता लिखी है। जरा
मर्दों की तरह तालियां बजाओ।
11• पंडाल में बैठे जो श्रोता देशप्रेमी और राष्ट्रप्रेमी
नहीं हैं उससे अनुरोध है कि तालियां न बजाएं, केवल देशभक्त
श्रोता ही तालियां बजाएं और आकाश को गुंजा दें।
12• ऐसी तालियां बजाइए कि शहीदों को भी सुनाई दे जाएं।
13• बहुत दूर से आया हूं, तालियां बजा देंगे तो मेरा आना
सार्थक हो जाएगा।
तालियां मांगने के विभिन्न और निराले–निराले ढंग हैं।
ज़्यादा तालियां बज जाती हैं तो कवि गर्व से पलटकर आक्रामक
मुद्रा में अन्य कवियों को देखता है, अपनी निगाहों से
चुनौती भरा सवाल करता हुआ कि किसी में दम हो तो इतनी
बजवाकर दिखा दे। मैंने अपनी एक कविता का समापन कुछ इस
प्रकार किया था, कविता के समापन का एक मासूम सा चलन यह भी
चल पड़ा है –
ले लो कद्रदानों, मेहेरबानों!
पांच डिब्बे हैं पचास के,
मेरी कविताओं के विन्यास के।
पहले में हास्य हैं
दूसरे में व्यंग्य हैं,
तीसरे में करूणा का रंग है।
चौथा डिब्बा है मेरे शब्द चमत्कार का,
ये लीजिए पांचवां
मेरे सामाजिक सरोकार का।
अब ये आपके उपर है
चाहे तो धूप में खड़े रहने की सज़ा दीजिए,
और चाहें तो इन पांच डिब्बों के अहसासात को
मेरे जे़हन के जज़बात को
अपने दिल को किसी नन्हे से कोने में सजा दीजिए,
बहरहाल, कविता ख़त्म हो गई है
तालियां बजा दीजिए!
1 दिसंबर 2004 |