आज़ादी के बाद हिन्दी कविसम्मेलन मंच के
मिजाज को जानने के लिये कुछ व्यक्तित्वों को जानना जरूरी है
– डॉ. हरिवंशराय बच्चन, पद्मश्री गोपालदास नीरज, पद्मश्री
काका हाथरसी और बालकवि बैरागी। ये चार नाम मैंने इसलिये
गिनाए क्योंकि ये चारों कविसम्मेलन की चार प्रवृत्तियों का
प्रतिनिधित्व करते हैं। डॉ.बच्चन छायावाद के बाद कविता को
एक नए रोमान और अभिमान के साथ जनता तक ले गए। नीरज जी ने
उसे लोकप्रियता का लंबा–चौड़ा शामियाना दिया। बैरागी जी ने
स्वयं को दिनकर का वंशज बताते हुए मंच की कविता का ओजस्वी
पाट चौड़ा किया और काका हाथरसी ने हास्य रस की यमुना के
किनारे घिस–घिसकर चंदन लगाया और लोगों को हँसाया।
व्यक्तित्व का मुख्य स्वर
क्योंकि पिछली बार बात काका जी पर आकर रूकी थी तो मैं इस
बार काकाजी से ही शुरू करना चाहता हूँ। मैंने पहले भी कहा
था कि काका सिर्फ कवि नहीं थे, वे संगीतकार थे, नाटककार
थे, चित्रकार थे और अभिनेता भी थे। कविसम्मेलन तो उनकी
प्रतिभा का एक बाईप्रोडक्ट था जो उनके व्यक्तित्व का मुख्य
स्वर बना गया। मैंने उनको अपने बचपन से कवि रूप में ही
जाना लेकिन समग्र रूप में जाना सन् ६४ में हाथरस आने के बाद, जब
पारिवारिक अंतरंगता बढ़ी। काका जी ही तो पिताजी को खुर्जा
से हाथरस लाए थे। मेरे पिताजी ने अपनी अठारह साल की
अध्यापकी छोड़कर सुरुचि उद्यान, बिजली मिल, हाथरस में
ब्रजकला केन्द्र चलाया था। तब मैं जाता था काका जी के घर।
काका जी उन दिनों अपने नाटकों–प्रहसनों का रिहर्सल कराया
करते थे।
मुरसान दरवाजे की काका वाली गली, ऊँचा सा चबूतरा। उस
दरवाजे से लगता ही नहीं था कि अंदर कितना विराट भवन होगा।
घर में घुसते ही एक बड़ा सा दालान और दालान के पार संगीत
कार्यालय का बड़ा हॉल, उसके पार एक बहुत बड़ा आँगन जिसके
ऊपर लोहे का विराट जाल और अंत में रसोईघर। ये सब अगर
मुख्यद्वार से घुसते ही देखें तो ऐसा लगे जैसे रसोईघर गली
के दूसरे छोर पर है। यानि खासा विस्तार घर में।
अपने नाटकों का स्वयं निर्देशन
काका जी अपने लिखे नाटकों का स्वयं निर्देशन करते थे।
मैंने कई नाटकों के रिहर्सल देखे। मेरा मन होता कि मैं भी
अभिनय करूं लेकिन मेरी एंट्री प्रायः उस समय होती जब
पात्रों का चयन हो चुका होता था। मैं तो मुकेश का दोस्त
था। रिहर्सल देखने चला जाता था। काका जी को निर्देशन करते
देखने में मुझे बड़ा मज़ा आता था क्योंकि वे छोटी–छोटी और
बारीक–बारीक बातों पर बड़ा ध्यान देते थे। 'झूला कौ झटका',
'फ्री स्टाइल गवाही', 'लल्ला कौ ब्याह', 'भंग की तरंग',
'लाला डकारचंद' और न जाने कितने प्रहसन काका ने न केवल
लिखे बल्कि सफलतापूर्वक मंचित भी किये।
अपने नाटकों के लिये पात्र भी काका जी छाँट–छाँटकर इकठ्ठा
करते थे। उनके पात्र कोई नामी–गिरामी प्रशिक्षित कलाकार
नहीं होते थे बल्कि उनके संगी–साथी, कार्यकर्ता, कर्मचारी,
अड़ौस–पड़ौस के बच्चे और रोज़ाना मिलने–जुलने वाले या साथ
टहलने वाली मित्र–मंडली के ही लोग होते थे। एक पतले से
सज्जन थे अंडागुरू और मोटे से थे मच्छर भगवान। सुरेश और
गंगा प्रसाद सेठ जी बनते थे और वीरेन्द्र तरूण बनते थे
डॉक्टर। बाल मुकुंद नाटकों के लिये सारी प्रोपर्टी और अन्य
चीजों को इकठ्ठा करते थे। घर के बड़े आँगन में किचन के आगे
बड़ी सी पल्ली; चादर टाँग दी जाती, नाटकों व प्रहसनों की
रिहर्सल होती और सामने आता था काका का कुशल निर्देशन।
एक–एक दृश्य, संवाद, प्रोपर्टीज एवं संगीत सब पर उनकी पैनी
नजर रहती। नाटकों की रिहर्सल में दूर से आने वाले सभी
लड़के–लड़कियों को काका जी रिक्शे के लिये उस समय चवन्नी
दिया करते थे। बिजली मिल की लड़कियों ने अपनी चवन्नियों से
मुझे कई बार गुलाब पहलवान की चाट खिलाई।
पैनी नजर से पात्रों का चयन
काका का निर्देशन ऐसा होता था कि प्रायः हर कलाकार की अंदर
की अनचीन्हीं प्रतिभा स्वयं निकलकर आ जाती थी। मुझे ध्यान
आ रहा है एक प्रहसन की रिहर्सल चल रही थी . . .संभवतः
'झूला कौ झटका'। उसमें एक दृश्य था कि कृष्ण का एक सखा
राधा के सामने खूब काजल लगाकर आ जाता है तो राधा को बोलना
था – 'आ गयौ है घोंटुन तांई; यानी घुटनों तक काजर लगाइकै',
मगर अपनी ही मस्ती में वो बोल गई 'आ गयौ है घोंटुन ताई
काजर पोत कै।' और बस काका ने उस बालिका की जो प्रशंसा की
वो देखने लायक थी – 'वाह बेटी! कमाल कर दियौ तैने . .
.जाकूं कहैं संवाद . . .पात्र में घुस जाऔ . . .अपने कूं
भूल जाऔ . . .वाह।
सहजता के पक्षधर
वास्तव में वे सहजता के पक्षधर थे और यही सहजता उन्होंने
अपनी कविताओं में आद्योपांत रची। काका जी इसीलिये अपने
समकालीन कवियों से और पूर्ववर्ती हास्य–व्यंग्य कवियों से
भिन्न थे क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में सहज वर्ण–मैत्री
के मुहावरों और तुकान्तों को अपनाया जैसे – 'बैठते ही
विमान में, सन्न–सन्न होने लगी कान में', 'पहिए
चूँ चूँ
करें ऊँट को मिरगी आवें।' या उनकी एक कविता जो अपनी सहजता
के कारण मुझे बहुत पसंद है –
भोलू तेली गाँव में, करै तेल की सेल
तेल लेउ जी तेल, कड़कड़ी ऐसी बोली
बिजुरी तड़कै अथवा छूट रहीं हों गोली
कहं काका कवि, कछु दिन तक सन्नाटौ छायौ
एक वर्ष तक तेली नहीं गाँव में आयौ
मिल्यौ अचानक एक दिन, मरियल वाकी चाल
काया ढीली–पिलपिली, पिचके दोऊ गाल
पिचके दोऊ गाल, गैल में धक्का खावै
तेल लेउ जी तेल, बकरिया सौ मिमियावै
हमनै पूछी जे का हाल है गयौ तेरौ?
भोलू बोल्यौ – 'काका ब्याह है गयौ मेरौ
भालू तेली की असहायता और बदहाली का वर्णन करते समय वे
स्वयं भोलू तेली की तरह मायूस चेहरा बना लेते थे। अभिनय,
सादगी, सहज अभिव्यक्ति काका जी की सबसे बड़ी ताकत थी। यही
वजह थी कि वे अपने समय के
सर्वाधिक लोकप्रिय कवि रहे। वो भी उस जमाने में जब संचार
के ऐसे सशक्त माध्यम नहीं थे। रेडियो से और पत्र–पत्रिकाओं
से ही उन्होंने इतनी ख्याति अर्जित की और ऐसी पहचान बनाई
कि आज सैकड़ों चैनल और हजारों अखबारों के बावजूद किसी को
मयस्सर नहीं हो सकती।
काका का जीवन 'ए–वन'
काका जी अपने जीवन के रंगमंच पर एवन जीवन जीकर गए। उनकी
आत्मकथा का शीर्षक भी है 'मेरा जीवन एवन'। काका जी को
क्रोध करते बहुत कम देखा गया लेकिन जब क्रोध करते थे तो
बाकायदा करते और ऐसी बातों पर करते थे जिन पर कोई रचनात्मक
व्यक्ति ही कर सकता है। उनका क्रोध ज्यादा देर तक नहीं
टिकता था, अभी बहुत गर्म हैं तो अगले ही क्षण एकदम ठंडे और
जिस पर गर्म हुए उस पर स्नेह की बरसात कर डाली। स्नेह की
बरसात कम लगी तो प्यार के ओले बरसा दिए। काकाजी के स्वभाव
पर चर्चा करते हुए मुझे अपनी एक गज़ल याद आ रही है। काकाजी
का स्वभाव फागू के मौसम जैसा था। फागू शिमला से थोड़ी
ऊँचाई पर स्थित ऐसा रमणीय स्थान है जहाँ प्रकृति 'क्षणे
क्षणे यन्नवतामुपैति' के कथन को चरितार्थ करती है। अभी
गरम, अभी नरम, अभी बारिश अभी ओले। तो हो जाए वो गज़ल।
मुलाहिजा फरमाइए।
यहाँ फागू में कुदरत ने खजाने किस कदर खोले,
अभी गरमी, अभी सरदी, अभी बारिश, अभी ओले।
किताबों में खुद अपनी ही कहानी पढ़के ऐ बंदे,
कभी मुस्का, कभी हो गमजदा हँस ले, कभी रो ले।
पहनकर बादलों के वस्त्र, आया था जो कल मिलने,
बरस कर हो गया नंगा, पहन ले फिर नए चोले।
खुली आँखों से, सपने छलछला कर गिर नहीं जाएँ,
तू सपनों की हिफाजत के लिये कुछ देर तो सो ले।
सितम होगा, कि तम होगा, कि ये होगा, कि वो होगा,
डराता है हमें क्यों कर, जो होना है अभी हो ले। |