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14 मंच मचान  

— अशोक चक्रधर

शरद जोशी और जीप पर सवार खिल्लियां

जीप बिलासपुर से रायपुर जा रही थी। जीप का क्या है, रायपुर से बिलासपुर भी जा सकती है। ये दोनों शहर न भी हों तो कहीं से कहीं भी जा सकती है। पहले शहर का नाम 'कहीं', दूसरे का 'कहीं भी'। 'कहीं' से 'कहीं भी' तक या 'कहीं भी' से 'कहीं' तक। कहीं–कहीं मेरे दिल में ख़्याल आता है कि कहीं भी कभी भी मेरे दिल में ख़याल आ सकता है। जीप सोचती है।

ड्राइवर ने पूछा, "जीप चलती है तो क्या होता है?" सवारी ने गर्दन उठाकर कहा, "गर्द उठती है।" ड्राइवर ने बात आगे चलाई, "कुछ लोग ज़िंदगी से भी उठ सकते हैं।" सवारी ने सहमति जताई, "जी हां, ड्राइवर चाहे तो उठ सकते हैं।" सड़क के मध्य का गड्ढ़ा बचाते हुए ड्राइवर बोला, "ख़ासकर वहां जहां सड़कें अच्छी नहीं होतीं।" सिर बचाते हुए सवारी ने कहा, "अर्थात मध्य प्रदेश में।" ड्राइवर ने दार्शनिक अंदाज़ में पुनः प्रश्न किया, "गर्द उठती है तो बैठती भी होगी?" "जी हां, क्यों नहीं। एक बार उठेगी तो बैठेगी भी। आख़िर कब तक उठी रहेगी। ज़्यादा देर कौन उठा रह सकता है! अच्छे–अच्छे बैठ जाते हैं साब!"

ड्राइवर ने टोका। ठोका नया प्रश्न, "गर्द कहां बैठती हैं?" गांव के बच्चों की तरह पहले तो गर्द जीप के पीछे–पीछे दौड़ती है। फिर, जिस प्रकार कुछ बच्चे बैठने में सफल हो जाते हैं उसी प्रकार कुछ गर्द भी जीप पर बैठ जाती है। ड्राइवर ने स्पीड़ तेज़ की– और जिस तरह बच्चे गिर जाते हैं उसी तरह गर्द भी गिर जाती है। सड़क अचानक बच्चों की तरह कच्ची हो गई। जीप गर्द से बुरी तरह घिर गई।

लेखन की यह शैली शरद जोशी जी की है। बात जीप से शुरू होगी तो गर्द तक जाएगी ही जाएगी। वे ज़माने के ईद–गिर्द की गर्द के कणों को बारीकी से देखते थे। व्यंग्य की फूंक मारकर उसे हटाना चाहते थे। ज़ाहिर है ज़माने के उपर गर्द ही गर्द है लेकिन लेखक की फूंक को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। मैं एक किस्सा बयान करना चाहता हूं, जिसमें ज़िक्रे–जीप भी है, ज़िक्रे–गर्द भी। गर्द जो दिमाग़ के चलने से उठी थी और जीप पर आकर बैठ गई थी, खिल्लियों की तरह।

हास्य–व्यंग्य का मेला
बात अस्सी–इक्यासी की होगी। रायपुर में एक मस्त–मौला नौजवान आनंद चौबे 'रचना' के तत्वावधान में हास्य–व्यंग्य का दो दिन का मेला लगाते थे। इस मेले में नाटक–मंडलियों के प्रहसन होते थे। शहर के बच्चे कार्टून प्रतियोगिता में भाग लेते थे। निर्णायकों के रूप में देश के प्रतिष्ठित कार्टूनिस्ट आते थे। हास्य–व्यंग्य पर गंभीर चर्चाएं करने के लिए दूर–दूर से कवि और लेखक आते थे। मेले का केंद्रीय आकर्षण हुआ करता था– कविसम्मेलन। यह कविसम्मेलन आम कविसम्मेलनों की तरह नहीं होता था। छतीसगढ़ी लोकवाद्यों की अनुगूंजों, अबीर–गुलाल के गुबारों और तिलक–चंदन की उत्सवधर्मिता से प्रारंभ होता था। कई वर्ष यह आयोजन रायपुर में हुआ। आनंद चौबे जबलपुर आए तो वहां होने लगा। उनके निधन के बाद शायद एक–दो वर्ष और हुआ फिर आठ–दस साल तक नहीं हो सका। इस वर्ष से जबलपुर में आनंद की स्मृति में फिर से उस मेले की शुरूआत हुई है।

शरदजी इस मेले में प्रतिवर्ष जाते थे। मैं पहली बार गया था। मेरा और शरदजी का मिलन बिलासपुर के रेलवे स्टेशन पर हुआ। वे बंबई से आए थे, मैं पहुंचा था दिल्ली से। दिल्ली से ही चार नौजवान रंगकर्मी भी साथ में थे। आनंद ने हमें लेने के लिए एक जोंगा जीप भेजी थी। ड्राइवर के अलावा तीन लोग और थे जो हमें लेने आए थे।

उन लोगों ने प्लेटफार्म पर ही शरदजी के गले में मालाएं डालीं। शरदजी ने मेरा परिचय कराया तो एक माला मेरे हिस्से में भी आ गई। रंगकर्मियों के स्वागत के लिए मालाएं बची ही नहीं थीं। बहरहाल, सब बाहर निकलने लगे। शरदजी का और मेरा सामान रायपुर के मित्रों ने उठा लिया। रंगकर्मी स्वयंसेवा कर रहे थे। शरदजी ने उनकी स्थिति देखकर कहा– "एक कुली कर लेते हैं न!" रंगकर्मी ने कुढ़कर कहा– "हम ज़मीन से जुड़े लोग हैं सर! वज़न उठाना जानते हैं।" शरदजी ने अपने मोटे लैंस में से रंगकर्मी को प्यार से देखा।

ज़िक्रे–जीप और ज़िक्रे–गर्द
उसी मोटे लैंस से जब शरदजी ने जीप को देखा तो कह उठे– "हम सब के सब इसी एक जीप में जाएंगे क्या?" ड्राइवर ने गर्व से कहा– "इसमें तो बीस से ज़्यादा मानुस आ जाते हैं।" शरदजी चुप थे। जो लेने आए थे वे भी चुप थे। उन्हें देखकर हम दोनों एक ही बात सोच रहे थे– "तीन–तीन लोगों को रिसीव करने आने की क्या ज़रूरत थी भला।"

हमारा सामान पीछे रखा जा चुका था। रंगकर्मी सामान के साथ स्वयं भी स्थापित हो चुके थे। शरदजी और मुझसे कहा गया कि हम दोनों आगे बैठें। शरदजी बोले– "नहीं हम पीछे ही बैठेंगे। गपियाते हुए जाएंगे।"

जीप में बैठने की व्यवस्था कुछ इस तरह से थी– आगे ड्राइवर के साथ, तीन हमारे लेखक। पीछे की आमने–सामने वाली सीटों पर हम तीन–तीन हास्य–व्यंग्य–सेवक। कहना कठिन था कि कौन अधिक सुविधा में हैं। हमारी सीट लंबी थीं तो सामान के कारण टांगे लंबी नहीं हो सकती थीं। आगे टांगें लंबी हो सकती थीं तो चार मानुसों के कारण सीट छोटी पड़ रही थी।

तो जीप बिलासपुर से रायपुर जा रही थी। शरदजी बताने लगे कि बंबई में वे इन दिनों कितने व्यस्त हैं। प्रोड्यूसर उन्हें आने ही नहीं दे रहा था। कोशिश की गई कि रायपुर की फ्लाइट मिल जाए लेकिन प्लेन में जगह नहीं थी। दो दिन, दो रात लगातार लिखते रहे और किसी तरह इतना समय निकाला कि रेल से आ सकें।

रास्ता बहुत अच्छा नहीं था। ब्रेक लगने पर धूल अंदर आ जाती थी। शरदजी ने नाक ढकने के लिए रूमाल निकाल लिया पर बोलना जारी था। वे बंबई नगरी के विभिन्न चरित्रों के बारे में दिलचस्प किस्से सुना रहे थे। अचानक उन्हें लगा कि रंगकर्मी नौजवान बातचीत में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं कर रहे हैं। उन्होंने पूछा– "भई आप लोग ठीक से तो बैठे हैं न?" एक रंगकर्मी जो मेरा पहले से परिचित था, असहज होते हुए बोला– "हमारी चिंता न करिए, आप ठहरे सुविधाभोगी बुर्जुआ लेखक! आपको ज़्यादा तकलीफ़ हो रही होगी। हम लोग इस धूल–धक्कड़ के आदी है।" शरदजी थोड़े से आहत हुए लेकिन वातावरण को सहज बनाने की गरज से बोले– "तकलीफ़ तो तकलीफ़ है, सर्वहारा और बुर्जुआ का सवाल है! ऐसा करते हैं अटैची को सीट के नीचे लगाते हैं, पैर रखने की जगह हो जाएगी।"

रंगकर्मी ने इस बार कटुता से कहा– "आपके पैर तो ठीक रखे हैं न?" शरदजी ने सहज रहते हुए कहा– "मैंने तो भाई अपने बैग पर रख लिए है।" रंगकर्मी ने व्यंग्यकार पर व्यंग्य करते हुए ग़ैरपाकीज़गी से कहा– "इन्हें ज़मीन पर मत रखिएगा मैले हो जाएंगे।" इस पर बाकी के तीन रंगकर्मी हंस दिए। यह तो हद हो गई। मैं देख रहा था कि श्रीमानजी प्लेटफार्म से ही शरदजी के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं।

शरदजी ने बिना उतेजना वाले क्रोध में कहा– "आप कहना क्या चाहते हैं?"
रंगकर्मी ने बिना संकोच की आक्रामकता में कहा– "आप निरंतर हमारे कष्ट की छद्म चिंता कर रहे हैं। ये आपकी पैटीबुर्जआ मानसिकता है। वस्तुतः आपको किसी के कष्ट से कोई सरोकार नहीं है। आप हवाईजहाज में उड़ने वाले लेखक हैं। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिकाओं में छपते हैं। फ़िल्मी प्रोड्यूसरों के चहेते हैं। उनकी चिंता करिए।"

शरदजी उतेजित हो गए– "मैं अगर हवाईजहाज से आता–जाता हूं तो तुम क्या समझते हो, सुविधाभोगी हूं। एक चीज़ होती है समय। उसकी रक्षा के लिए जाता हूं। मुझे अफ़सोस है कि मैं उतना क्रोध नहीं कर रहा जितना मैं तुम्हारे आचरण पर कर सकता हूं। मुझे इस बात का भी अफ़सोस है कि मैं व्यर्थ ही डिफैन्सिव पर हूं। डिफैन्सिव पर इसलिए हूं क्योंकि तुम लोग नौजवान हो। हवाईयात्राओं से वक्त बचता है। वक्त की कीमत होती है। मैं बंबई से कलमघसीटी करके आ रहा हूं। लेखन मेरी आजीविका है। रायपुर से लौटकर जाऊंगा तो फिर कई पत्रिकाओं के लिए स्तंभ लिखने हैं। संपादकों को वचन दिया है मैंने। उनसे मेरी प्रतिबद्धता है। हवाईयात्रा कोई विलास नहीं है मेरे लिए।"

रंगकर्मी पर कोई असर नहीं पड़ा– "आप किस प्रतिबद्धता की बात कर रहे हैं। धन–पशुओं, धनकुबेरों, शोषकों और पूंजीपतियों के मनोविनोद के लिए लिखते हैं न! वक्त की पूरी कीमत वसूल करते हैं।"

मिट्टी से गहरा वास्ता
जीप में एक अदृश्य गर्द बढ़ने लगी। शरदजी ने इस गर्द के लिए संयम का रूमाल नहीं निकाला। वे अंदर तक आहत हो चुके थे। रंगकर्मीजी के चेहते से टपकता स्थाई अनादर उन्हें व्यथित कर रहा था। शरदजी को उतने क्रोध में मैंने कभी नहीं देखा। उनका स्वर खटारा जीप की अनपेक्षित ध्वनियों के बावजूद स्पष्ट सुना जा सकता था– "हम आकाश में जाते हैं तो हमारे पास उतनी मिट्टी होती है, जितनी तुम्हारे पास मिट्टी पर चलते हुए नहीं होगी। हम मिट्टी से पैदा हुए हैं, मिट्टी से गहरा वास्ता रखते हैं। तिलक लगाते हैं मिट्टी का। तुम तिलक लगाने वाली प्रथा को नहीं समझ सकते क्योंकि भारतीय चिंतन और दर्शन को जाने बिना मार्क्सवादी लेनिनवादी हो गए हो। तुम्हारे चेहरे पर अपने से बड़ों के प्रति सम्मान का ज़रा–सा भाव नहीं है। मेरे संघर्षों को जाने बिना तुम मुझ पर कोई टिप्पणी कैसे कर सकते हो?"

खिल्लियां जीप पर सवार
रंगकर्मी पर शरदजी की बातों का कोई असर गोचर नहीं था। उसका पाषाणी चेहरा शरदजी की खिल्लियां उड़ा रहा था। वे खिल्लियां जीप पर सवार थीं। मैं लगभग भूमिकाहीन था। रंगकर्मी नौजवान समझता था कि मैं उसके पक्ष में हूं क्योंकि मैंने मुक्तिबोध पर किताब लिखी है। शरदजी समझ रहे थे कि मैं उनके पक्ष में हूं क्योंकि मैं कविसम्मेलनों का एक मंचीय कवि हूं। मेरे एक तरफ़ पुस्तकजन्य जनवाद का अहंकार था तो दूसरी ओर जीवन से जुड़े एक अनुभवी लेखक का ईमानदार आत्मस्वीकार। एक ओर वामपंथ की भावशून्यता थी तो दूसरी ओर भावनाओं का वामपंथ। गर्द हट भी रही थी और बढ़ भी रही थी।

बात को आगे बढ़ाने से पहले इतना बता दूं कि रंगकर्मी श्रीमानजी को मैं अच्छी तरह जानता था, जानता हूं। यहां नाम नहीं ले रहा उनका। नाम बताने का कोई फायदा नहीं, क्योंकि यह किसी व्यक्ति –विशेष का आचरण नहीं था, उस समय के कुछ नौजवानों के अंदर का नक्सलवादी आवेग था, जो रंगीन पत्रिकाओं में छपने वाले लेखकों के प्रति आदरभाव नहीं रखता था। श्रीमान जी उन दिनों अल्ट्रा लैफ्ट थे। अभी दो–तीन साल पहले मुंबई में, एक टेलीविजन चैनल के सैट पर, उनसे मुलाकात हुई। वे डायरेक्टर के परम आज्ञाकारी स्क्रिप्टराइटर के रूप में सक्रिय थे। लेखनी से शानदार आजीविका चला रहे थे। एक के बाद एक विदेशी सिगरेट फूंक रहे थे और किसी नफीस सैंट से महक रहे थे।
फिलहाल मुझे अपनी एक ग़ज़ल के चंद शेर याद आ रहे हैं–

क्या बतालाऊं सुविधाओं में कैसे–कैसे ज़िंदा हूं
गुलदस्ते में फूल सजाकर फूलों से शर्मिंदा हूं।

खुश होते हैं, जब मिलते हैं, कौली भी भर लेते हैं,
मुड़ते ही जो आए लबों पे, मैं अपनी ही निंदा हूं।

इस माथे पर शिकनें लाखों, कुछ अपनी कुछ दुनिया की,
जिसके दोनों ओर नदी हों, उस तट का बाशिंदा हूं।

ये मत करना, वो मत करना, आहत हुआ नसीहत से,
भूतकाल वे आइने में खड़ा हुआ आइंदा हूं।

9 मार्च 2005
 

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