कुछ समय पहले एनडीटीवी इंडिया ने 'क्या
हम हंसते कम हैं' विषय पर 'मुकाबला' नामक एक कार्यक्रम
कराया। विशेषज्ञों के रूप में हास्य अभिनेता साजिद,
विज्ञापन 'ठंडा माने कोकाकोला' जैसे विज्ञापनों के लेखक–निर्माता
प्रसून जोशी और मुझे बुलाया। पटना से सैटेलाइट द्वारा
हास्य–कवि सुरेन्द्र शर्मा को बड़ी स्क्रीन पर उपलब्ध कराया।
विशिष्ट प्रश्नकर्ताओं के रूप में पत्रकार बालमुकुंद और
आलोक पुराणिक को बिठाया। दर्शकों के चहेते संचालक दिव्यांग
ने सबका परिचय कराया। (तालियां) स्टूडिओ में सीढ़ी–दर–सीढ़ी,
बैठी थी प्रायः–प्रायः युवा पीढ़ी। निमंत्रण पाकर मन अंदर
से खिल गया था, लेकिन क्या बताऊं उस दिन मैं तो हिल गया
था।
सातों वार चैनल–वार
यह 'मुकाबला' देखकर बहुतों का दिल बहल गया होगा। लेकिन
शायद उन्हें नहीं पता होगा कि मेरा दिल दहल गया होगा।
सप्ताह में सात वार होते हैं, टी•वी• चैनलों में सातों दिन
'वार' (युद्ध) होती है। हर चैनल की कामना है कि कमर्शियल
ब्रेक और व्यूअर प्रत्येक, उन्हीं की चैनल पर बने रहें।
इसलिए वे कुछ नया और अजूबा दिखाएं और कहें। इस गर्दन–मर्दन
प्रतियोगिता के युग में इसीलिए चैनल–चलावक चाहते हैं
समाचार को चटपटा अचार बनाना। उसका मीठा मुरब्बा बनाना। हाय–तौबा
दिखाकर उसे हाय–ओ–रब्बा बनाना। वस्तुतः वे चाहते हैं स्वयं
को दूसरी चैनल का अब्बा बनाना।
अब्बा बनने के लिए कुछ सज्जा–खब्बा तो करना ही पड़ेगा।
विषय हंसी हो या आंसू, प्रोग्राम होना चाहिए धांसू। ज़िंदगी
में हंसी की कमी क्यों हैं, आंसुओं की नमी क्यों हैं और
क्या हम हंसते कम हैं, इस पर गंभीर बात होनी थी। लेकिन होनी
को तो कुछ और ही मंजूर था, 'मुकाबला' अपने विषयों से कोसों
दूर था। विषय होना चाहिए था – 'हंसाने वाले एक दूसरे को
कोसते ज़्यादा, पोसते कम हैं'।
बहस हंसाने के लिए
संचालक दिव्यांग ने पहला सवाल सुरेन्द्र शर्मा से किया – 'आपको
अपनी चार सबसे अच्छी कौन–सी लगती हैं?' सुरेन्द्र जी ने
अपने विशेष अंदाज़ में उतर दिया– 'जो मैंने आजतक लिखी नहीं
हैं।' (तालियां) इस उतर में सुरेन्द्र जी की सहजता थी और
सौमनस्य था। उनसे पुनः कामना की गई कि वे चार लाइनें सुनाएं,
उन्होंने अपनी चिर–परिचित पत्नीपरक चार लाइनें सुना दीं –
इन चारों लाइनों में पत्नी मेरे से कह रही है – 'ए जी, मेरी
गोदी में सर रखकर लेटा हो, या कईंया को लाग रह्या है, मैं
बोल्यो – मनैं तो आईंया लाग्गै है, जैसे विष्णु भगवान
शेषनाग पै आराम कर रह्या है।' (तालियां)। दिव्यांग जी ने
कभी हमारी ओर रूख़ किया, कभी श्रोताओं की ओर मुख किया। अपन
की समझ में आ रहा था, कार्यक्रम हंसी की सामाजिकता पर बहस
के लिए नहीं, दर्शक–समाज को हंसाने के लिए किया जा रहा था।
पेस्ट के ज़माने में मंजन
तीन थे हम लोग, जो खड़े थे मुकाबले के लिए, वास्तव में उस
श्रोता–दर्शक बावले के लिए, जो चैनलाचार्यों के अनुसार
चाहता है सिर्फ़ रंजन! शुद्ध मनोरंजन, न कि मन–मंजन। अजी
मैं भी कहां की बात ले बैठा? पेस्ट के ज़माने में मंजन!
टाइम वेस्ट कर रहा हूं।
मुद्दा समझ में आना चाहिए कि मनोरंजन एक उद्योग है,
उपभोक्ता समाज का एक उपभोग है। हंसी के उत्पादन में किसका
कितना मौलिक योग है, ये देखने की किसको दरकार है। हंसी को
बेचने के मामले को लेकर ही तो तकरार है। हंसी के पीछे छिपे
दर्द से क्या वास्ता है? हंसी तो पैसा कमाने का रास्ता है।
इस वास्ते में समाचार भी बड़े रोचक हो रहे हैं, मनोरंजक हो
रहे हैं। एक स्तर पर हमारे लिए सोचक भी हो रहे हैं। हम कम
हंसते हैं, कम से कम इसलिए तो समाचार रोचक नहीं हुए,
वस्तुतः, हंसी के बाज़ार में हम भौंचक हो रहे हैं।
ज़रा सकते में आए
मैं बड़ा प्रसन्न था कि मिलूंगा साज़िद ख़ान से। हास्य के
अभिनेता महान से। वो आए, उन्होंने जब अपने विचार सबके सामने
बताए, तो अपन ज़रा सकते में आए –
मुझे हास्य कविताएं समझ में आती ही नहीं! . . .कविसम्मेलन
में मैं कभी नहीं गया हूं और मुझे जाने का कोई शौक भी नहीं
हैं क्योंकि मेरे पास टाइम नहीं है। (हैरानी) . . .ये 'हैज़
बीन' हो गए हैं। (तालियां)। आज की जैनेरेशन चेंज हो गई है।
इनका जो ह्यूमर है, ये हमारे बाप–दादाओं के लिए अच्छा था,
अब नहीं। (तालियां) . . .मैं कभी हास्य कवियों के जोक्स पर
हंसता हूं, क्योंकि मेरी समझ में नहीं आते हैं। . . .मैं
एक बात पूछना चाहता हूं कि ये इतने पौपुलर हैं तो आज तक
सैटेलाइट चलते हुए दस साल हो गए हैं, एक टी•वी• शो नहीं
देखा मैंने इनका। एक पोस्टर या होर्डिंग नहीं देखी इनकी कि
कविसम्मेलन है, कि टिकिट ब्लैक में बिक रही हैं। (सन्नाटा)।
. . .हमारे देश में इल्लिट्रेसी और जहालत कितनी है! अब
जाहिल आदमी को हंसाना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि जाहिल
आदमी आपकी भाषा को समझेगा नहीं। (सुपर सन्नाटा)।
भोले अज्ञान की रंगोली
अरे! साजिद नहीं जानते हैं कि कविसम्मेलन क्या है और क्यों
होता है! क्यों उसकी ज़रूरत है! वो तो कोई चीज़ विगत है।
अब तो ज़माना मार्केट का है। जनता के प्रत्यक्ष आखेट का
है। सारी मिमिकरी जो वे करते आए हैं या उन्होंने उस
कार्यक्रम में करी, वह भी बड़ी भोली थी। उसमें बड़बोले
अज्ञान की रंगोली थी। फिर भी मैं उनकी ईमानदार–सी लगने वाली
अभिव्यक्ति का कायल हूं। कायल हूं पर घायल हूं। अरे, वे नहीं
मानते कि कविसम्मेलन कोई चीज़ होती है हमारे हिन्दुस्तान
में। उसकी गति है प्रस्थान में। बाबा–दादा के ज़माने में
होते होंगे मुशायरे–कविसम्मेलन। अब काहे का मुशायरा, काहे
का कविसम्मेलन और काहे का भावनाओं का उद्वेलन।
'मेरा एक जोक जो कभी फेल नहीं जाता' कहकर साजिद खान ने
अवैध स्त्री–पुरूष संबंधों की ओर संकेत करता हुआ एक लतीफ़ा
सुनाया। उसके बारे में, भला हो आलोक पुराणिक का जिन्होंने
बताया – साजिद भाई! आपने जो चुटकुला अपना कहकर सुनाया था
ये मैंने ढ़ाई साल पहले एक साइट है 'डब्ल्यू डब्ल्यू
डब्ल्यू डॉट ऑलअबाउटपॉलिटिकलह्यूमर डॉट कॉम' पर पढ़ा था। (निरूतर
सन्नाटा)।
बीच में कैमरा नहीं है
देश की जनता जाहिल–इल्लिट्रेट है। उनको नहीं पता कि अपना
जनतंत्र कितना ग्रेट है! माना कि कविसम्मेलनी कवि उनकी तरह
स्टार नहीं है, उसके पास प्यार तो है लाखों–करोड़ों की जनता
का लेकिन इन दिनों मीडिया का उस पर कोई उपकार नहीं है।
चैनल–मीड़िया इस समय ऐसे वर्ग द्वारा चलाया जाता है, जो
अंग्रेजी का अच्छा ज्ञाता है, लेकिन हिंदी की खाता है। उसके
अनुसार इल्लिट्रेट जाहिल और गंवार जनता, बेवकूफ और गधी जनता,
बिना सधी जनता और 'विकास' के प्रयत्नों में फालतू में उनपर
लदी जनता, अफ़सोस, सिर्फ़ हिंदी जानती है।
इन्हें नहीं मालूम कि इनका हास्य देखकर दर्शक कब–कब रोता
है। क्योंकि हास्य उत्पादकों और दर्शकों के बीच कैमरा होता
है। कविसम्मेलन और मुशायरों में श्रोताओं से कवियों की आंखें
चार होती हैं। एक सामाजिक सदाचार होती हैं। चुनौती है उसी
समय प्रत्युत्पन्नमति से तत्काल हास्य उत्पन्न करने की।
स्थितियां, व्यक्ति, रूचि, समाज, राजनीति और नीति–अनीति
देखते हुए सम्प्रेषण सम्पन्न करने की। समर्थ हास्य कवि काफ़ी
कुछ इंस्टैंट करते हैं, उसी समय क्रिएट करते हैं। यहां
रिहर्सल का मौका नहीं है। जो कुछ है सामने है, सम्पादन या
पोस्ट–प्रोडक्शन का किसी तरह का धोखा नहीं हैं।
हम राय दे सकते हैं
ये उस गंवार निरक्षर और बेहूदा जनता के लिए, जैसा कि वे उसे
मानते हैं, जिसके बारे में मैं मानता हूं कि वे बहुत कम
जानते हैं, समझते हैं कि जो हमने करी है वही ठीक है,
क्योंकि मिमिकरी है। बड़े–बड़े महान अभिनेताओं की मिमिकरी
करो, उनकी किरकिरी करो। जितना कद वे अपना छोड़ गए थे उसको
छोटा करो और स्वयं के श्याम–धन को मोटा करो।
भाई सुरेन्द्र शर्मा ने अच्छी बात कही – जिन्होंने कभी
कविसम्मेलन ही नहीं सुने हैं तो वो क्या राय दे सकते हैं।
हमने तो इनके कार्यक्रम देखे हैं, हम तो इनके बारे में राय
दे सकते हैं। मिमिकरी को ही हास्य समझ लिया। किसी की नकल
बनाना कोई हास्य नहीं है, अपने ऊपर हास्य करना सबसे
श्रेष्ठ हास्य माना जाता है।
ठीक! कन्हैयालाल जैसा अभिनय करते थे उसमें होता था समाज के
निचले वर्ग का दर्द। वे ज़मींदार की भूमिका निभाते थे
लेकिन क्रूरता के समाजशास्त्र को हमारे सामने लाते थे। आप
तो उनकी असामाजिक मिमिकरी करके कमाओ, ख़ूब शो करो, विदेशों
में जाओ। आपने कभी कोई हास्य कविसम्मेलन नहीं सुना और चूंकि
आपने नहीं सुना तो फिर उसका वजूद कहां? और कोई आपके
अस्तित्व के बावजूद कहां।
हंसी एक वरदान
मैं क्या सभी मानते हैं कि हंसी एक वरदान है। वह जो
करूणानिधन है या जो भी ज्ञान–विज्ञानसम्मत मनुष्य का
निर्माता है, वही हमें स्वस्थ रखने के लिए हंसाता है।
हंसाने के लिए बहुत सारे उपक्रम हैं, जिसमें से इन दिनों
लोकप्रिय हैं – लोगों की नकल बनाना, दूसरों द्वारा गढ़े गए
लतीफ़ें या टिप्पणियां सुनाना। जो रचनात्मक व्यक्तित्व हंसी
के कारणों को जनते हैं, मनहूसियत के मरूस्थल में हंसी उगाते
हैं, हंसी को एक सामाजिक ताकत बनाते हैं, वे तो नेपथ्य में
चले जाते हैं और उठाईगीर दुकान चलाते हैं। वृक्ष के कुछ
फूल चुनकर बीज की महता को नहीं भूलना चाहिए और प्रस्तुति–क्षमता
के कारण अहंकार में नहीं झूलना चाहिए।
हम जानते हैं कि सारा मनोरंजन उद्योग हिंदी भाषा को लेकर
ही पनप रहा है, हिंदी को अपने आर्थिक उपयोगों के लिए जप रहा
है। अंग्रेज़ी उनकी मातृभाषा तो नहीं है पर कमाई बढ़ाने की
एकमात्र भाषा है और हिंदी मातृभाषा होते हुए भी मात्र एक
भाषा है। इनका हिंदी जनमन से बहुत दूर का नाता है, हिंदी
वाला तो सिर्फ़ पैसा फूंकता है और इन पर चढ़ावे चढ़ाता है।
ये काम हिंदी वालों के लिए करते हैं, मुंह हिंदी में खोलते
हैं, पर कारोबार के लिए अंग्रेजी बोलते हैं। मैं हर वाक्य
में यों ही तुक मिला रहा हूं लेकिन बात कोई बेतुकी नहीं बता
रहा हूं। कारोबार में कार–ओ–बार है। अर्ज़ करता हूं कि
हिंदी को कैश करो, कार–बार में ऐश करो लेकिन 'ओ' रूपी जनता
के प्रति सम्मान को भी तो फ्लैश करो।
हम अंग्रेज़ी के विरूद्ध नहीं हैं, अंग्रेज़ी से बिलकुल
क्रुद्ध नहीं हैं। हम तो उसके आभारी हैं। चूंकि हमें
अंग्रेज़ अगर अंगे्रज़ी न सिखाते तो क्या हम इस देश को
आज़ाद करा पाते। इसे इंडिया शाइनिंग और फीलगुड के रास्ते
पर ला पाते। पर इतना है कि आज़ादी से पहले वाले नेता
अंग्रेज़ी जानते तो थे लेकिन हिंदी को अंग्रेज़ी से ऊपर
मानते हैं। आज थोड़ा सा सोचना होगा कि हम भले ही अंग्रेज़ी
को सर्व करें लेकिन हिंदी पर सचमुच का गर्व करें।
बात हंसी पर लौटनी चाहिए। हंसी जो स्कूलों में गूंजे, हंसी
जो इस सदी की हर सांस्कृतिक नदी के कूलों पर गूंजे, हंसी
जो अपनी भी भूलों पर गूंजे, हंसी जो निर्धन के ब्याज पर नहीं
महाजनों के मूलों पर गूंजे, हंसी जो नारी की अवमानना पर नहीं,
पुरूष के अहंकारों के बबूलों पर गूंजे।
माना डियर माना
यों प्रसून ठीक कहते हैं कि आज आदमी के पास वक्त नहीं हैं।
उसका मोबाइल एसएमएस, इंटरनेट हर समय उसके साथ है। इंटरनेट
मोबाइल पर हास्य का ही अधिकार है। अगर जोक्स मोबाइल से हटा
दें तो कंपनियां नहीं चल पाएंगी। ज़िंदगी में हास्य का रोल
बढ़ गया है लेकिन सतही हास्य का बढ़ा है। हंसी जो कविगण
लिखते हैं उसका रोल नहीं बढ़ा है। उसको सुनने वाले और कम
होते जा रहे हैं। हास्य का मतलब हास्य चाहिए, उनको व्यंग्य
नहीं चाहिए। इसीलिए इधर कविसम्मेलनों में भी फूहड़ लतीफ़े
बढ़ गए हैं। माना प्रसून डियर माना! पर एक बात चाहता हूं
बताना। टी•वी•पर भले ही कविसम्मेलन कम हुए हों पर शहरों और
कस्बों में बढ़ रहे हैं। नए–नए कवि अपनी कविताएं मंच पर पढ़
रहे हैं। जहां तक कवि रूप में लतीफ़ेबाज़ों का सवाल है, उनका
मुकाबला साजिद खान के साथ है। वे दिशा मोड़ दें और मंचों
को छोड़ दें। उनकी अक्षमता मंच को ताने दिलाती रहेगी, पर
इतना तय है कि कविसम्मेलन हमेशा होते रहेंगे और वहां कविता
हमेशा गाती रहेगी।
और बात दिव्यांगजी भी लगभग ठीक कहते हैं कि कविसम्मेलन के
कवि एक ही चैक को कई बैंकों में भुनाते हैं। माना दिव्यांग
डियर माना, पर वे अपनी ही सुनाते हैं। कविता वही, शहर अलग
इसलिए श्रोताओं को भरपूर हंसाते हैं। उनकी जांची–परखी गिनी–चुनी
कविताओं की मंच पर बपौती रहेगी। टी•वी•चैनलों द्वारा बुलाए
जाएंगे तो नया–नया लिखने की चुनौती रहेगी।
और साजिद डियर मैं जानता हूं कि तुम अपने हास्य कार्यक्रमों
के लिए बहुत मेहनत करते हो, बिलकुल नहीं थकते हो, पर तुम
मुझे सकते से निकाल सकते हो। पैसा कमाओ, लेकिन जिनके कारण
कमाते हो उन्हें जाहिल मत बताओ। लाभ का उल्टा हानि ही नहीं
होता, लाभ का उल्टा भला भी होता है। अंत में तुम्हें बधाई,
हंसी के बहाने तुमने एक बहस चलाई – हम हंसा हंसा के सिर्फ़
पैसा कमा लें, या हंसी के ज़रिए दिल में फंसे दर्द को भी
निकालें।
हंसो तो बच्चों जैसी हंसी
हंसो तो सच्चों जैसी हंसी
इतना हंसो कि तर जाओ
हंसो और मर जाओ। (सन्नाटा)
हां, हंसो और मर जाओ
किसी पर!(तालियां)
9 जनवरी 2005 |