एक होता है
शब्द, एक होती है परंपरा
भारतीय वाड्मय
में वाचिक परंपरा का विशेष महत्व है। इस परंपरा को समझना
इस देश की उस श्रुति परंपरा को जानना है, जिसके सहारे तमाम
वेद, मानस समेत कथाएँ और मिथक–मथी सामाजिक व्यथाएँ
कंठ–दर–कंठ, कर्ण–दर–कर्ण यात्राएँ करती हुई हम तक आती
हैं। वाचिक परंपरा के महत्व के बारे में प्रसिद्ध
व्यंग्यकार अशोक चक्रधर के विचार —
वाचिक, एक होता है और एक होती
है। जो होता है, वह है शब्द और जो होती है वो है एक
परंपरा। यानि, होता है – वाचिक शब्द और होती है– वाचिक
परंपरा। मैं 'होता' है और 'होती है' कि बीच में गोता लगाना
चाहता हूँ। किसी तोते की तरह मचान पर बैठकर, जहाँ से मुझे
वाचिक शब्द दिखाई दे और सुनाई दे वाचिक परंपरा। वाचिक
परंपरा को जब मैं देखता हूँ, तो कुछ अलग तरह से। कुछ अलग
तरह से इसलिए कि मेरी शुरूआत ही वाचिक परंपरा से हुई, मेरा
बचपन वाचिक परंपरा की नदी के किनारे किलोल करता रहा। फिर
करीब एक दशक तक यानि
१९६८ से १९७८ तक वाचिक परंपरा को दूर से देखा और उस दौरान
मैं उत्तरार्ध, क्यों, और वाम, पहल समेत अन्य
पत्र–पत्रिकाओं में छपने वाला कवि बन गया। फिर लौटा वाचिक
परंपरा की ओर।
वाचिक परंपरा का महत्व
वाचिक परंपरा को समझना इस देश की उस श्रुति परंपरा को
जानना है, जिसके सहारे वेद, मानस समेत तमाम कथाएँ और
मिथक–मथी सामाजिक व्यथाएँ कंठ दर कंठ, कर्ण दर कर्ण
यात्राएँ करती हुई हम तक आती हैं। वाचिक परंपरा इस देश के
मूल मिजाज़ में हैं। जब भी हमारे घरों में सुखद कुछ होता
था तो मानस पाठ या सत्यनारायण की कथा रखी जाती थी। सामूहिक
रूप से लोग बैठते थे, सुनते थे। इस तरह एक सामूहिक अनुभव
वाचिक परंपरा से जुड़ता है। यह अनुभव ही वाचिक परंपरा की
ताकत है। परंपरा जितनी पुरानी है उतनी नई भी।
आज आई आई टी, आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज,
जामिया हमदर्द या दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज के विशुद्ध
अंगरेजीदां छात्र–छात्राओंके बीच कवि–सम्मेलनों के प्रति
जोरदार आकर्षण देखता हूँ, तो फिर–फिर इस वाचिक परंपरा की
ताकत को रेखांकित करता हूँ। वाचिक परंपरा से करीब चालीस
साल जुड़े रहने के बाद मैं यह कह सकता हूँ कि हमारे समय और
समाज के तापमान को नापने के बैरोमीटर हैं हमारे
कविसम्मेलन। कविसम्मेलन में क्या पसंद किया जा रहा है,
इससे समाज के बदलते हुए मूड कापता लगाया जा सकता है।
समय और समाज का बदलता मूड
मैं इस स्तम्भ के जरिये समय और समाज के बदलते हुए मूड को
मंच की मचान से पकड़ने की कोशिश करूँगा। मैं अपने और
कविसम्मेलनों के अतीत पर निगाह डालता हूँ तो मैं अशोक नामक
बालक को हाफ पैंट बनियान पहने हुए घर के एक कमरे के दरवाजे
के बाहर कान लगाकर कुछ सुनते हुए पाता हूँ। अंदर उसके कवि
पिता राधेश्याम प्रगल्भ कुछ कवियों से, विद्वानों से काव्य
चर्चा कर रहे हैं। यह बात
रही होगी १९४७ –५८ की, और बालक रहा होगा सात–आठ साल का।
अंदर आदरणीय नीरजजी हैं, मुकुटबिहारी सरोज हैं, वीरेन्द्र
मिश्र हैं, आनंद मिश्र हैं, शिशुपाल सिंह शिशु हैं,
शिशुपाल सिंह निर्धन हैं। सब अपनी–अपनी तरह से जुटे हुए
हैं। बीड़ी, सिगरेट और दिलों से उठने वाला धुआँ है। शाम को
कविसम्मेलन होना है। लेकिन हमारे घर में होनी है उनकी
खातिरदारी। कवि लोग तब सीधे मंच पर नहीं पहुंचते थे। जिस
शहर में कविसम्मेलन हो रहा है, वहाँ के आत्मीयों–अंतरंगों
के घर पहले पहुंचते थे। आत्मीयता का एक सिलसिला होता था।
सबमें अपना–अपना नया
रचा हुआ सुनाने की होड़ रहती थी।
वो बालक हाफ–पैंट पहने हुए, जो निश्चय ही खाकी नहीं होती
थी, कवियों की सेवा–टहल करने के मौके तलाशता रहता था। कमरे
के दरवाजे से कान लगाकर सुनता रहता था। अंदर बातचीत में
सुनायी देते थे कुछ गीत, जिनमें गाँव के सौंदर्य का गुणगान
होता था, इस बात का गर्व होता था कि हम गाँव के हैं। ये
शिशुपाल सिंह निर्धन जी गाते थे –
'हम हैं रहबईया भइया गाँव के,
फूंस की मढ़इया और बरगद की छांव के।'
मेरे पिता श्री निर्धन को छोटे भाई की तरह मानते थे।
सोहनलाल द्विवेदी अपनी कविता सुना रहे हैं, जिसमें गाँधी
जी के दो चरणों के पीछे पूरा भारत चला जा रहा है। शाम की
तैयारी है। शाम को कवि सम्मेलन में सबको अपना–अपना खोमचा
लगाना है, स्वर का, शब्द का। सोम जी नया गीत लिखकर लाए हैं
–
'सागर चरण पखारे, गंगा शीश चढ़ावे नीर,
मेरे भारत की माटी है चंदन और अबीर।'
सबका अपना–अपना अंदाज
कोई अपना मफलर भूल आया है, तो किसी से माँग रहा है। कोई
किसीके कुरते पर मुग्ध है, तो उसने अपना कुरता दे दिया है।
लोग कुरता बदल रहे हैं, टोपी बदल रहे हैं, मफलर बदल रहे
हैं, लेकिन कविता नहीं बदल रहे हैं। गीत नहीं बदल रहे हैं।
सबका अपना अंदाज है। जिससे जो फन लिया है, जो पन लिया है,
उसके प्रति आदर का एक भाव है। बच्चनजी से सब प्रभावित थे।
गोपाल सिंह नेपाली से सब प्रभावित थे। नेपाली जी की भाषा
एक अलग पन और अंदाज लिए हुए होती थी। सो उस निक्कर वाले
बालक ने सात से दस साल की उम्र के बीच बहुत कविताएँ सुनीं,
ढेर सारे गीत सुने। उस दौर में गाँधीवाद ही मुख्य स्वर था।
आजादी के बाद आजादी प्राप्ति का आह्लाद, मामला मोहभंग का
नहीं था। मोहभंग अगर हुआ था, तो प्रगतिशील कविता के कवियों
का हुआ, जिन्हें वाचिक परंपरा से मोह ही नहीं था। उनके गीत
तो हड़तालों, रैलियों और आंदोलनों के गीत थे। साठ के
दशक की शुरूआत तक यही मामला चला। नेहरू और गाँधी के प्रति
लोगों में यह भाव था कि ये तो अपने घर के बुजुर्ग हैं,
इनके खिलाफ कोई बात कैसे सुन लें। आम आदमी इनके द्वारा
पिलायी गयी आजादी की शराब के नशे में था। खुश था, तो कैसी
कविताएँ सुनेगा – शृंगार की ही ना।
नैन हुए जलधारे क्यों
चलिए, इसके आगे का हिस्सा अगली बार। अब कुछ हो जाए, होता
है और होती है के नाम अर्ज किया है –
नैन हुए जलधारे क्यों,
कोई किसी को मारे क्यों?
तुम इतने बेचारे क्यों?
उनके वारे न्यारे क्यों?
हम तो ऐसे कभी न थे
बदल गए हम सारे क्यों?
पत्ती से पूछे चिड़िया
पेड़ की खातिर आरे क्यों?
जिनके रहते हिम्मत थी,
वे ही हिम्मत हारे क्यों?
दिल ही जिनके बहरे हैं
दिल से उन्हें पुकारे क्यों?
उनके लिए महल कोठी
तुझको ईंट और गारे क्यों
गंगा शीश झुकाय नहीं,
सागर चरण पखारे क्यों?
सहने की भी सीमा है
मिलते नहीं सहारे क्यों?
आँखों के मीठे सपने
बहकर हो गए खारे क्यों?
रात में बादल धुंआँ धुआँ
दिन में दिखते तारे क्यों?
सन्नाटों से गूंज रहे
गाँव गली गलियारे क्यों?
और अंत में एक शाश्वत सवाल जिसमें एक गोरी होती है और एक
दर्पण होता है –
गोरी से दरपन पूछे
कारे कान्हा प्यारे क्यों?
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