ये बात होगी लगभग तीस साल दस महीने पुरानी। बांदा में
आयोजित तीन दिवसीय प्रगतिशील लेखन सम्मेलन का यह तीसरा दिन
था जिसके समापन समारोह के रूप में कविसम्मेलन होना था।
बाज़ार की चर्चाओं में यह बात शामिल थी कि भारत के कोने–कोने
से बड़े टॉप के कवि आए हुए हैं। शहर को रात का इंतज़ार था।
मैं चिंतित था कि 'टॉप के कवियों' को शहर की बलवती उम्मीदों
की कोई चिंता नहीं है। वे तो पिछले दो दिनों से वामपंथी
विचारधारा में संशोधनवादी समझ को लेकर दनादन बहसें कर रहे
हैं। बांदा बस स्टॉप के पान की दुकान पर मैं गीतकार रमेश
रंजक के साथ 'टॉप के कवियों' के बारे में बतिया रहा था। हम
दोनों पुराने कविसम्मेलनी और प्रगतिवादी थे। हम दोनों ही
कविसम्मेलनों में जाना छोड़ चुके थे। वे 'नवगीत' में आने
के कारण, मैं 'नई कविता' से प्रभावित होने का कारण। मैं
बाईस का था, वे बत्तीस के थे। मेरी अक्कल दाढ़ नहीं निकली
थी, उनकी ज़ाहिर है निकल चुकी होगी, पर मैं समझता था कि
मामला उल्टा है।
अक्कल सींग निकले
कई बार उनकी जिज्ञासाएं शिशुवत लगती थीं। पान की दूकान पर
उन्होंने मुझसे सहज उत्तेजना में पूछा – 'धूमिल में ऐसा
क्या है? ऐ! बताओ क्या है उसमें?' ऐसे प्रश्न सुनकर अचानक
मेरे अक्कल सींग निकल आते थे और मैं अपने नवार्जित ज्ञान
से उन्हें लहूलुहान करके ही दम लेता था – 'एक सचेत भारतीय
देहाती की धक्कामार भाषा की साफगोई क्या होती है, जानते
हैं रंजक जी! वो जीभ और जांघ के चालू भूगोल की बात करता
है। मोचीराम के जरिए जूते को आईना बनाकर हम आप जैसों को
हमारी मध्यवर्गीय बेईमान चेतना का चेहरा दिखाता है और बताता
है कि भारत में समाजवाद मालगोदाम पर लटकी उन बाल्टियों की
तरह है जिन पर लिखा रहता है आग और भरा रहता है पानी . . .जैसे
कोई मादा भेड़िया किसी मेमने का सिर चबा रही हो और अपने
छौने को दूध पिला रही हो . . .! इस पटकथा को पढ़ने के लिए
पट खोलने पड़ेंगे। ये नवगीत के टटके बिंब नहीं हैं रंजक
जी, मामला हटके है।' वे अचानक परास्त होते हुए कहते – 'तुम
करन–सुधीश के साथ रहते हो अशोक, तुम्हारे पास समझने का मौका
ज्यादा है, अपने पास नहीं है। तुम इतनी कम उमर में
यूनिवर्सिटी के कॉलेज में पढ़ा रहे हो और हम अटके हुए हैं
नगरपालिका के स्कूल में। मानो न मानो इसका काफी फरक पड़
जाता है।'
उनका यह हथियार – डालू रूप देखते ही मेरे अक्कल सींग खोपड़ी
की ढाल में वापस समा जाते और मैं अतिशय विनम्र होकर कहता –
'अरे नहीं नहीं रंजक जी, आपके व्यापक अनुभव–ज्ञान के आगे
भला मैं कहां ठहरता हूं। आपके पास एक छंद–शास्त्रीय अभ्यास
है, लोक–तत्वों का प्रामाणिक यथार्थबोध है और जीवन का
सुदीर्घ शोध है। आप कविता की वाचिक परंपरा का चकाचक ज्ञान
रखते हैं। इसलिए सब मान रखते हैं आपका!' मेरे मरहमी वाक्यों
से वे प्रसन्न हो जाते थे और पुनः गर्वीले हो उठते थे।
केन नदी के घाट पर
बांदा में केन नदी के घाट से थोड़ी दूर, एक इंटर कॉलेज के
प्रांगण में, हर प्रकार की काट के प्रगतिवादी आ लगे –
अतिवामपंथी, वामपंथी, उदारवादी, संशोधनवादी। उद्देश्य था
कि सारे के सारे प्रगतिवादियों का एक कॉमन मंच बने, कॉमन
एजेण्डा हो। सम्मेलन का आयोजन ट्रेड यूनियन लीडर रमेश
सिन्हा के सहारे बांदा के प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल
और रणजीत ने किया था। यह सम्मेलन विचारों का एक विराट आखाड़ा
था जिसमें बड़े–बड़े प्रगतिशील दिग्गज और बुजुर्गवार आए
हुए थे। ऐसे महारथी जिन्होंने प्रगतिशील आंदोलन की बुनियादों
में कहीं न कहीं अपने हस्ताक्षर किए थे।
उद्घाटन महादेवी जी को करना था पर वे नहीं आ पाईं तो
अमृतराय ने किया। सज्जाद जहीर, मन्मथनाथ गुप्त, भगवतशरण
उपाध्याय, बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन, बालकृष्ण बलदुआ, शील
जी, सव्यसाची, विश्वंबरनाथ उपाध्याय। कई कवि– आलोचक–खगेन्द्र
ठाकुर, राजीव सक्सेना, श्याम सुंदर घोष, चन्द्रभूषण तिवारी,
सुरेन्द्र चौधरी, धूमिल, शिव कुमार मिश्र, श्याम बिहारी
राय, सुरेन्द्र नाथ तिवारी, विजेन्द्र, उद्भ्रांत, ललित
मोहन अवस्थी, रमेश रंजक, आनंद प्रकाश और शिवराम। युवा
समीक्षक–कवियों–कथाकारों में सुधीश पचौरी, कर्णसिंह चौहान,
सनत कुमार, रमेश उपाध्याय, राजेश जोशी, महेन्द्र नेह और
मनमोहन थे। किन किनको याद किया जाए, देश भर से लगभग सौ–सवा–सौ
रचनाकार रहे होंगे। सबके पास खूब देर तक, खूब सारे मुद्दों
पर, खूब ज़्यादा बोलने की क्षमता थी। जितनी गोष्ठियां होती
थीं उसमें विरोधी विचार तत्काल प्रकट हो जाते थे।
सुबह शाम केन नदी बड़े काम में आती थी। वहां सारे कर्म हो
लेते थे। ऐसा नहीं कहूंगा कि ठहरने के अच्छे इंतज़ाम नहीं
थे लेकिन प्रकृतिप्रदत्त सुविधाएं प्यारी लगती थीं। केन नदी
हर प्रकार से सहयोग दे रही थी। मिट्टी से हाथ रगड़ कर धोते
हुए गीतकार रमेश रंजक ने मुझसे पूछा – 'संशोधनवाद तो अच्छी
चीज होनी चाहिए, इसे इतना बुरा क्यों माना जा रहा है?' मैं
फटी आंखों से उन्हें देखता रह गया – 'कमाल है रंजक जी! दो
दिन से संशोधनवाद पर हर कोई घिस्सा लग रहा है और किस्सा
आपकी समझ में ही नहीं आया!' वे अपने भोले अहंकार में बोले
– 'आज तक हमने अपने किसी गीत में किसी से संशोधन नहीं
करवाया, नए लोगों के कितने ही गीतों में संशोधन किए है।'
मैं नया–नया मुल्ला मार्क्सवाद का, जितनी ओलम सुनी और
वर्णमाला सीखी थी उसी के आधार पर मैंने रंजक जी को केन नदी
के घाट पर संशोधनवाद का पाठ पढ़ाया।
सम्मेलन के प्रतिभागियों को चार हिस्सों में बांटा जा सकता
है एक वे जो कविता करते थे और दूसरे वे जो कविता के साथ–साथ
कविता की समीक्षा भी करते थे। तीसरे वे जो कथाकार थे। चौथे
वे जो व्यथाकार थे, कविता और साहित्य को महत्वपूर्ण न
मानकर समाज के परिवर्तन की विधियों को महत्वपूर्ण मानते
थे। रचना के आंदोलन के स्थान पर आंदोलन की रचना रचवाना
चाहते थे।
सम्मेलन का आकर्षण थे धूमिल इसमें कोई दो राय नहीं। ठेठ
ग्रामीण सज–धज में एक बिखरा–बिखरा लेकिन निखरा–निखरा सा
व्यक्तित्व। शानदार कद–काठी, उस पर सर्दियों के कारण मोटा
गर्म कुर्ता सिलेटी से रंग का, उस पर गर्म जाकेट और एक अदद
चौखाने का भारी कम्बल, जिसका एक छोर रोमन राजाओं की तरह
जमीन पर घिसटता हुआ चलता था। वे स्वयं चलते थे मत्तगयंद
छंद वाली चाल में, झूमते हुए। चलते–चलते अपनी मोटी खादी की
धोती की लांग भी ठीक करते जाते थे। उनके अगल–बगल कुछ
अतिवामपंथी नौजवान चलते थे। एक निराला ही अंदाज था धूमिल
का। निराला जी को मैंने देखा नहीं पर यों ही अनुमान लगा रहा
हूं कि कुछ ऐसा ही अंदाज उनका भी रहा होगा। धूमिल ज़ोर शोर
से बोलते थे, इसलिए नहीं कि वे जो बोल रहे हैं सबको सुनाना
चाहते हैं, बल्कि उनका हाई वौल्यूम में बोलना शायद चौपाल
पर बतियाने के उनके देशज अभ्यास के कारण रहा होगा। मुझे
लगता था जैसे वे प्रसाद की कहानी से निकल आए कोई पात्र हैं
जिनमें एक विलक्षण बनारसी ठसक है। मैं धूमिल को मुग्ध भाव
से देख रहा होता था।
संगठन गोष्ठी की बहस शिखर पर चल रही थी। हर कोई मार्क्स और
एंगिल्स की टिप्पणियां उद्धृत कर रहा था। एक बिंदु ऐसा आया
जब अचानक धूमिल खड़े हुए और बोले – देखिए आप लोग हैं
मार्क्स के रसोइए और ये जान लीजिए कि मैं खुद मार्क्स हूं।
क्या आप बता सकते हैं कि भूख क्या होती है?'
सारी बहस कुछ पल के लिए रूक गई।
फिलहाल मैं भी रूकता हूं। धूमिल की धूमिल न होने वाली और
रंजक जी की कुछ और रंजक बातें अगली बार। और अगली बार ही उस
रात के कविसम्मेलन का वर्णन ब्यौरेवार। अभी धूमिल की स्मृति
को समर्पित है मेरी एक कविता –
यमदूत यमराज को रिपोर्ट सुना रहा था,
यमराज को गुस्सा आ रहा था –
क्या कहा, ये भी भूख से मरा,
कहते हुए शर्म नहीं आती ज़रा।
क्या बकता है?
भूख से कोई कैसे मर सकता है?
यमदूत घिघियाया –
मौताधिपति! पड़ौसियों ने तो यही बताया।
घर में नहीं थे अन्न के दाने,
ये लगा घास की रोटी चबाने।
महाजन को जरा भी दया नहीं आई,
बिना पैसे अनाज की बोरी नहीं खुल पाई।
इस प्रकार हे डैथधीश,
ये भूख से मर गया
और राम नाम सत्य कर गया।
यमराज सुनकर पलभर को हुए उतावले
फिर बोले – बाबले,
ये भूख से नहीं, कुपोषण से मरा है,
इंसान द्वारा इंसान के शोषण से मरा है। |