मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


18 मंच मचान

— अशोक चक्रधर  

हाथरस में कविता की खेती

तो ये बात तय पाई गई कि हिंदी की वाचिक परंपरा में हाथरस शहर इस मामले में सर्वोपरि है‚ जहां के कवियों ने अपने शहर के नाम को अपने उपनाम अथवा उपनामोपनाम के रूप में अंगीकार किया। फिर से दोहरा दें कि 'हाथरसी' तखल्लुस के जितने कवि हुए और आज भी पाए जाते हैं उतने किसी दूसरे शहर में नहीं हैं। ऐसे कवि जिन्होंने अपने नाम के साथ अपने नगर का नाम भी रोशन किया हो।

कविता एक रूप अनेक
बीसवीं सदी में हाथरस की मिट्टी हास्यरस के कवियों के लिए अत्यंत उर्वर रही है। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में इस नगर का नाम हाथरस से महामायानगर हो गया। विगत चार वर्षों में हाथरस में कवि बनना बंद हो गए हों‚ ऐसा नहीं है‚ लेकिन मेरी जानकारी में ऐसा कोई कवि नहीं आया जिसने अपने नाम के आगे 'महामायानगरी' उपनाम लगाया हो। हां‚ इस दौरान कोई नया कवि 'हाथरसी' तखल्लुस से भी मेरे संज्ञान में नहीं आया। शायद निकट भविष्य में आए भी नहीं‚ क्योंकि जब अपने नगर के नाम के बारे में ही नागरिक अंतिम निर्णय से अपरिचित हो तो अपने नाम के साथ खिलवाड़ क्यों करेगा भला! राजनीतिज्ञों का क्या है‚ कोई अगला मुख्यमंत्री इस नगर को तीसरा नाम दे सकता है।

जो भी हो‚ मैं देखना–परखना चाहता हूं कि बीसवीं सदी में हाथरस में ऐसा क्या था‚ जिसने अपने नगर को मंंचीय कविता और हास्यरस से लबालब भर दिया। सन् 1964 से 1969 तक मुझे हाथरस में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां के बागला इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट किया और बागला डिग्री कॉलेज से बी ए का प्रथम वर्ष। इस काल में वहां की साहित्यिक–सांस्कृतिक गतिविधियों से रूबरू हुआ।

जिस तरह हर शहर में नुमाइश‚ नौचंदी‚ प्रदर्शनियां और मेले लगते हैं‚ उसी तरह हाथरस में दाऊजी का मेला लगता है। मेले में एक दिन स्थानीय ब्रजभाषा कविसम्मेलन होगा तो दूसरे दिन बाहर के ब्रजभाषा कवियों का‚ तीसरे दिन स्थानीय खड़ी बोली के कवि काव्यपाठ करेंगे तो चौथे दिन अखिल भारतीय कवि सम्मेलन होगा। किसी दिन रसिया दंगल खिच्चो आटेवाले का तो अगले दिन लछमनदास का। फिर नौटंकी होगी‚ और किसी एक रात भगत। दूसरे शहरों की पार्टियां मेले में स्वांग दिखाएंगी। कविता पर आधरित जितने कार्यक्रम अनेकानेक रूपों में इस मेले में होते हैं उतने किसी दूसरे शहर में नहीं होते।

हाथरस की नौटंकी
सच बताऊं‚ ऐसा कविता–कला–प्रेमी शहर मैंने दूसरा नहीं देखा। शिक्षित मध्यवर्ग के अलावा आसपास के निरक्षर देहाती भी मैंने कविता के दीवाने देखे। ऐसा अनायास नहीं हो सकता। मेरा अनुमान है कि हाथरस को लोकप्रिय कविता का शक्तिशाली केन्द्र बनाने में पंडित नथाराम गौड़ का बड़ा योगदान है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में उनका नौटंकी स्वांग लेखन अपने शिखर पर था। नौटंकी के माध्यम से उन्होंने हाथरस को कविता लेखन की एक कार्यशाला बना दिया। नौटंकी में उन्होंने बहरे–तबील‚ चौबोला‚ दौड़‚ दोहा‚ लावनी‚ लंगड़ी–लावनी‚ कव्वाली‚ कड़ा–कव्वाली और उर्दू–फ़ारसी की लोकप्रिय बहरों को स्थान दिया। उनके छंद संस्कृत काव्यशास्त्र से नहीं आए बल्कि लोकगीतों‚ पारसी थियेटर और उर्दू गायन से आए। उर्दू में एक ओर शास्त्रीय कविता गजल थी‚ तो दूसरी ओर नातिया कलाम और कव्वालियां थीं।

भक्तिकाल और रीतिकाल की प्रमुख काव्यभाषाएं ब्रजभाषा और अवधी थीं। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में खड़ी बोली गद्य की भाषा के रूप में अवतरित हो चुकी थी लेकिन सदी के अंत तक ही वह कविता की भाषा भी बन पाई। हमारे महान और शास्त्रीय कवि खड़ी बोली में कविता रच रहे थे‚ लेकिन कस्बों और गांव देहात में बोलियों का वर्चस्व था।

पंडित नथाराम गौड़ अपने स्वांग और नौटंकियों को लेकर ब्रजमंडल में तो घूमते ही थे‚ पश्चिम में राजस्थान‚ मध्यभारत और पूरब में उतर प्रदेश के पूर्वांचल और सुदूर बिहार तक भी जाते थे। अपने यायावरी अनुभवों का लाभ उठाते हुए उन्होंने अपने लेखन के लिए ऐसी भाषा चुनी जो उस समय की लोकस्वीकृत भाषा थी। सम्प्रेषण की सीधी–सरल भाषा। उस भाषा में ब्रजभाषा का संस्पर्श तो है लेकिन उसे विशुद्ध ब्रजभाषा नहीं कहा जा सकता। उसमें उर्दू‚ फ़ारसी‚ अवधी और विभिन्न जनबोलियों के चलन में आने वाले शब्द बहुतायत में मिलते हैं। हाथरस की भविष्य की कविता को उन्होंने एक कुंठाविहीन भाषा दे दी।

कविता के खेत की जुताई
जहां तक नौटंकी के रचनाविधान का सवाल है उसमें पंडित नथाराम गौड़ ने जायसी से कथात्मकता‚ कबीर से दोहे‚ सूरदास से पद‚ तुलसी से चौपाई‚ लोक–लेखन से चौबोला और दौड़ और दरगाहों से नातिया कलाम और कव्वाली लीं। ऐतिहासिक‚ पौराणिक और लोकप्रिय काल्पनिक चरित्रों पर उन्होंने ऐसी रसमय नौटंकियां लिख दीं‚ जो आज भी पूरे भारत में खेली जाती हैं। 'अमरसिंह राठौर' के जरिए उन्होंने हिन्दू–मुस्लिम एकता‚ सद्भाव और नारी की त्यागमयीमूर्ति को विषय बनाया। इस नौटंकी की एक बहरेतबील में भतीजा रामसिंह अपने चचा अमरसिंह से कहता है 'मती बोली की गोली से घायल करौ‚ वैसे सर को उड़ा दो उजर ही नहीं‚ अब कहा सो कहा खैर कायर‚ मगर‚ अब जुबां पर ये लाना जिकर ही नहीं।'

'स्याहपोश' में नारी का उद्दाम शृंगारिक स्वरूप है। 'लैला–मंजनू'‚ 'सुल्ताना डाकू'‚ 'सत्य हरिश्चन्द्र' उनके द्वारा लिखी गई कालजयी नौटंकियां हैं। इन सभी में मुक्त शृंगार और सहज हास्य है। ये नौटंकियां अलग–अलग कंपनियों द्वारा अपार जनसमुदाय के सामने पूरी–पूरी रात तो चलती ही थीं‚ दिन में गांवों की चौपालों पर सामूहिक रूप से बांची भी जाती थीं। मोटे सस्ते अखबारी कागज पर ये किताबें छपती थीं‚ चाकू‚ ब्लेड‚ लकड़ी के फुटे या पेंसिल की नोंक से पुस्तक के पृष्ठों को अलग–अलग करना पड़ता था। सभी पुस्तकों का आवरण लगभग एक जैसा होता था। पंडित नथाराम का भव्य चित्र‚ जिसमें वे सिर पर पगड़ी लगाए हुए हैं और अंगरखे पर लगभग पचास मैडल। मोटे फ़ॉन्ट की छपाई ताकि बिना चश्मा पढ़ने में भी बाधा न हो। कह सकते हैं कि पंडित नथाराम गौड़ ने हाथरस को कविता की सरल भाषा के अलावा मुक्त शृंगार और हास्यरस का वरदान दिया। एक तरह से उन्होंने लोकप्रिय कविता के विराट खेत में जुताई का काम किया।

रसिया : काम करारा
नौटंकी के अलावा हाथरस में लोकप्रिय कविता का एक और नैसर्गिक झरना था। रसिया। रसिया कृष्ण के उस स्वरूप को कहा जाता है जिसमें वे हर्षोल्लास की बांकी अदाओं के साथ रसीली उक्तियां कहते हैं। लोककाव्य की रसिया शैली में प्रत्युत्पन्नमति और आशुकवित्व का जलवा रहता था। तुमने कोई बात कही तो लो इधर से जवाब फ़ौरन हाजिर है‚ कविता में ही। एक तरफ़ कुश्ती के दंगल चलते थे तो दूसरी तरफ़ रसिया के। रसिया हाथरस में काव्य–लेखन का एक ऐसा खेल बन गया जिसमें दिल दिमाग‚ कल्पना‚ भावना के साथ भाषा कौशल और तुकांत प्रयोग की तत्काल परीक्षा होती है। नौटंकी हो या रसिया दोनों का संबंध गायन से था। पंडित नथाराम गौड़ और लल्लू–भजना‚ गैंदा–लछमन और खिच्चो आटेवाला ऐसे कवि थे जो गायक भी थे। गायकी में शास्त्रीय रागदारी भी रहती थी। हारमोनियम‚ नक्कारा‚ ताशा और ढोलक उसके प्रमुख वाद्य थे। श्रोताओं को कविता के साथ गायकी का आनंद भी मिलता था। आनंद तब और अधिक आता था जब सामने वाले दल का सार्वजनिक अपमान हो जाए। करारा जवाब मिले और सामने वाले को निरूतर कर दिया जाए 'रसियन कौ काम करारौ‚ कह रयौ खिच्चो आटेवारौ।' वे कवि जो गायकी में पारंगत नहीं थे‚ अखाड़ों के उस्ताद बन गए। दंगल के दौरान वे पीछे बैठकर तत्काल छंद बनाकर देते थे और गायक तत्काल गा देते थे। वाद–विवाद आगे तक बढ़ जाता था और श्रोता पद्यात्मक गद्य में उनकी गाली–गलौज का मजा लेते थे।

इस प्रकार नौटंकी के बाद रसिया ने हाथरस की जुती–जुताई रचनात्मक जमीन पर कविता के बीज बो दिए। इनके साथ–साथ खूब नाटक होते थे और खूब कविसम्मेलन। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में कविता की फ़सल भरपूर लहलहाने लगी। दोहा‚ चौपाई‚ कवित‚ कुंडली‚ बहरतबील‚ चौबोला‚ दौड़ और तरह–तरह के रस भरे गीत लिखना‚ सुनना और सराहना वहां का आम व्यसन बन गया।

हाथरस को हास्य के क्षेत्र में एक चमत्कारी व्यक्तित्व मिले श्री प्रभूलाल गर्ग‚ जिन्हें काका 'हाथरसी' के नाम से प्रसिद्धि मिली। पंडित नथाराम गौड़ एवं रसिया उस्तादों के बाद हाथरस को काकाजी हास्य कविता की फ़सल को पकाने के लिए प्राप्त हुए। एक कवि और हुए श्री देवीदास शर्मा उर्फ निर्भय 'हाथरसी'। काकाजी कुंडली–कवित की साहित्यिक परंपरा से आए थे और निर्भयजी रसिया दंगलों के अखाड़े से। भंग–भवानी की बगीची–संस्कृति से जुड़े श्री श्याम 'बाबा' ने ब्रजभाषा कविता की परंपरा को विकसित किया। इन सबके बारे में बड़े रोचक किस्से हैं‚ जिन्हें अगली बार बताऊंगा। पर इतना तय है कि कविता साम–दाम–दण्ड भेद से हाथरस में अंगद का पांव बनकर जमी हुई है। मैंने हाथरस की एक बगीची पर एक पहलवान का संवाद सुना और मेरी खोपड़ी ने काम करना शुरू कर दिया। छोटी सी कविता बना दी। आप हाथरसवासी के इस संवाद का मजा लीजिए‚ जिसमें 'साम'‚ 'दाम'‚ 'दण्ड' और 'भेद' चारों शब्द प्रयुक्त हुए हैं—

जो है काऐ सो‚ साम कौ टैम है गयौ ऐ‚
दाम दमड़ी कौ इंतजाम कन्नौऐ डाटकै‚
दंड पेल रयौ होयगौ पट्ठा बगीची पै‚
जे नाएं कै टैम तेई भेद देय घोट–घाट कै।

9 जुलाई 2005
 

पृष्ठ  1 .2.3.4.5.6.7.8.9.10.11.12.13.14.15.16.17.18.19.20.21.22.23.25.26

आगे—

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।