रिसीवर कान से लगाते ही आवाज़ आई – 'क्या
हाल है बेटे?' मैंने कहा – 'जी आपकी कृपा है।' अब दूसरा
सवाल सुनाई दिया – 'पहचाने, मैं कौन बोल रहा हूं?' मैंने
कहा – 'परीक्षा मत लीजिए, स्वयं बता दीजिए।' वे बोले –
'मैं तुम्हारा चचा बोल रहा हूं।' फिर उन्होंने अपना नाम
बताया, जो दुर्भाग्य से मैंने कभी सुना नहीं था। कहने लगे
– 'आजकल तुम एक टी.वी. प्रोग्राम चला रहे हो। हम तुम्हारे
पिता प्रगल्भ जी के मित्र हैं। हमें कब बुलाओगे?' अब पिता
के मित्र को तो आदर देना ही था। मैं प्रकारांतर से उनसे
पूछने लगा कि हम लोग कब मिले थे, क्या हमारी किसी प्रकार
की रिश्तेदारी बनती है, क्या वे खुरजा के हैं, कब वे मेरे
दिवंगत पिता के साथ रहे, और उनकी कितनी घनिष्ठता थी। वे
बोले – 'रिश्तेदारी तो नहीं है पर हमने प्रगल्भजी के साथ
कई मंच एक साथ पढ़े हैं। अब मैंने चतुराई से पूछा – 'मैं
अपने पिता के सभी मित्रों और साथियों के बारे में सूचना–संग्रह
कर रहा हूं, कृपया अपनी जन्म–तिथि बताएं?' उन्होंने सन
तिरेपन की कोई तिथि बताई।
चचा चचा चचा
मैंने उनसे मधुर किंतु दृढ़ स्वर में कहा – 'श्रीमानजी,
पहली बात तो ये कि आप मुझे भाईसाहब कहकर संबोधित करिए। मेरा
जन्म इक्यावन में हुआ था। दूसरी बात ये कि कविताएं भेज
दीजिए, उनमें दम हुआ तो बुलाऊंगा।' वे लगभग मिमियाने लगे –
'ऐसी क्या बात कर दी भतीजे! उम्र से रिश्ते थोड़े ही बनते
हैं। चलो जैसे कहोगे वैसे संबोधित करेंगे, बुलाओ तो सही।'
मैंने कल्पना से उनका छविचित्र बनाया, मुझे लगा कि वे मेरी
तथाकथित चची के सामने भी इसी तरह से पहली डांट के बाद ही
मिमियाने लगते होंगे। याद आई मुझे बच्चन जी की एक छोटी
कविता – 'चचा, चचा चचा/चचा में अब कुछ नहीं बचा/झुके हुए
सलाम हैं/चची के गुलाम हैं।'
सुबह–सुबह अपनी बालकनी में बैंत की कुर्सी पर बैठे–बैठे
मैं मुंडेर पर झुक आई अनाम वृक्षों की कंटीली नुकीली पतियां
देखकर मुस्कुराने लगा। कॉर्डलेस फ़ोन साथ की मेज़ पर रखकर
मैंने पलभर को आंखें मूंदी और बच्चन जी की एक दूसरी कविता
के बारे में सोचने लगा। वह कविता चचा–भतीजा संवाद का दूसरा
पहलू है।
भतीजे भतीजे भतीजे
मज़ेदार बात यह है कि कभी तो जब कोई जबरन आपका चचा बन जाता
है तो उसके सामने अपनी वरिष्ठता बताए बिना रहा नहीं जाता
है और कभी जब आपको चचा कहा जाता है तो आपसे सहा नहीं जाता
है। चचा के एंगिल से भतीजे के बारे में उनकी कविता कुछ इस
प्रकार है – 'भतीजे, भतीजे, भतीजे/ इतना तो जानो/कि हमें
भी कभी/संबोधित किया गया था, 'जवानो!'/और हमने भी यह समझा
था कि हम सदा जवान रहेंगे;/कभी नहीं सोचा था/कि ऐसे भी
होंगे/जो हमें चचा कहेंगे;/और हमारी खुशख़्वाबी के/निकलेंगे
ऐसे नतीजे–/भतीजे, भतीजे, भतीजे!'
एकांत में मुस्कुराने का अपना निराला ही आनंद होता है। अब
हल्की सी हवा भी चलने लगी थी। पते हिलने लगे तो मुझे लगा
जैसे मुझे मुस्काता देखकर पेड़ की हंसी छूट रही है।
जितने लोकप्रिय उतने सहज
बच्चन जी हिंदी कविसम्मेलन परंपरा के एक विराट बरगद रहे
हैं। प्रायः लोग उनकी मधुशाला पर ही गदगद रहे हैं। बहुतों
को नहीं मालूम कि बच्चन जी का स्वर मूलतः व्यंग्य का था।
जिसमें हास्य बड़ी शिष्टता और संश्लिष्टता के साथ गुंथा
रहता था। उनकी बहुत सारी कविताएं हैं जिनमें व्यंग्य के
साथ हास्य अंतर्भूत है।
बच्चन जी के साथ अपनी कुछ मुलाकातों के आधार पर मैं कह सकता
हूं कि वे जितने लोकप्रिय थे, उतने ही सहज थे। छोटों के
प्रति तो बेहद आत्मीय। 1977 में जामिआ मिल्लिया इस्लामिया
में बी .ए .(ऑनर्स) हिंदी के छात्रों के लिए एक काव्य–संकलन
तैयार करने की ज़िम्मेदारी मुझे प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी ने
दी। मैं इस संकलन में बच्चन जी की तीन कविताएं लेना चाहता
था। छायावादोतर काल की कविता पर आधारित, मैकमिलन द्वारा
प्रकाशित इस पुस्तक का नाम था – 'छाया के बाद'
बच्चन जी के पास मैं उनकी कविताओं को छापने की स्वीकृति
लेने पहुंचा। पुस्तक का प्रस्तावित नाम जानने के बाद
उन्होंने मुझसे पूछा – 'शादीशुदा हो?' मैंने कहा– 'जी
हां।' – 'पत्नी का नाम क्या है?' मैंने कहा– 'बागेश्री।'
फिर उन्होंने गंभीर मुद्रा बनाते हुए, अधरों को थोड़ा आगे
निकालते हुए और अपनी भंवों को चश्मे के ऊपर चढ़ाते हुए पूछा
– 'अच्छा . . .पहले . . .ये बताओ कि बागेश्री तुम्हारी
ज़िंदगी में छाया से पहले आईं या छाया के बाद?' पलांश को
तो मैं समझ नहीं पाया। समझा तो मुस्कुराया। सोचने लगा, इतना
बड़ा कवि कितनी सहजता से और हास्य–बोध के साथ मिलता है।
बच्चन जी का परवर्ती साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा, इस पर
एकेडमिक विश्लेषण भले ही पर्याप्त मात्रा में नहीं हुआ, पर
वाचिक परंपरा के चाहने वाले इस बात के गवाह है कि उनकी
लोकप्रियता का क्या रंग था और उनके कितने अनुयायी थे।
कविसम्मेलन को सुगठित, संगठित, स्वीकार्य और लोकप्रिय बनाने
में बच्चन जी का बहुत बड़ा योगदान है।
बच्चन जी के प्रथम दर्शन
मुझे बच्चन जी की वह छवि भुलाए नहीं भूलती, जब मैं सात–आठ
साल का बालक था। 1958–59 में बुलंदशहर की नुमाइश के
कविसम्मेलन में बच्चन जी को सुनने अपने कवि पिता के साथ गया
था। बच्चन जी ने एक गीत सुनाया – 'महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के। ये राज़ किसी से मत कह रे, महुआ के!' अपनी उंगली
को बाएं से दाएं घुमाकर और फिर दाएं से बाएं घुमाकर हज़ारों
श्रोताओं को मुग्ध करते हुए गीत पढ़ रहे थे। गीत का आशय
मैंने तब यह समझा कि महुआ से संबंधित एक कोई राज़ है, जो
किसी को बताना नहीं है। हैरानी भी हुई कि यह कैसा राज़ है
जो एक साथ हज़ारों लोगों को बताया जा रहा है और फिर बार–बार
कहा जा रहा है कि किसी से मत कहना।
दूसरा साक्षात्कार
बच्चन जी से दूसरा साक्षात्कार हुआ 1965 में, हाथरस के एक
कविसम्मेलन में। तब मैं चौदह साल का हो चुका था और लालकिले
के कविसम्मेलन में भी कविताएं पढ़ आया था। मैंने वीररस की
कविता पढ़ी। पढ़कर बैठा तो बच्चन जी ने कहा – 'अपनी कविता
सुनाया करो, पिता की नहीं।' मैं बहुत आहत हुआ। मंच के पीछे
जाकर रोने लगा। उस रोने में एक आश्वस्ति भी थी कि चलो अपनी
कविता का स्तर इतना तो माना गया कि वह पिता की जैसी लगती
है। आंसू पोंछकर मंच पर लौट आया।
बच्चन जी बहुत ही संवेदनशील थे, वे समझ गए कि बच्चे को बुरा
लग गया। कविसम्मेलन ख़त्म हुआ तो आशीष देते हुए उन्होंने
मेरी पीठ को बहुत प्यार से सहलाया और कंधे पर हाथ रखा। उस
हाथ में बहुत उष्मा थी, आत्मीयता थी। इस आत्मीयता से मेरी
शिकायत उसी पल ख़त्म हो गई। फिर मैं लग गया बतौर परिचारक
उनकी सेवा में। उन्होंने एक मंत्र दिया– 'अच्छा पढ़ोगे तो
अच्छा लिखोगे।'
'मधुशाला' से प्रेरित 'सिगरेटशाला'
सहजता उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में हमेशा बनी रही। इसी
सहजता के बूते पर वे लोकमानस तक अपनी कविता को पहुंचा पाए।
उन्होंने श्रोताओं और कवियों की पूरी पीढ़ी को प्रभावित
किया। मेरे कवि–पिता स्वर्गीय राधेश्याम 'प्रगल्भ' गहरे
तौर पर बच्चन जी से प्रभावित थे। उन्होंने 'मधुशाला' से
प्रेरित होकर एक रचना की 'सिगरेटशाला'। मैं बहुत छोटा था,
तब यह कृति मेरे पिता ने रची थी। इसमें सिगरेट के छल्लों,
सिगरेट के कागज़, सिगरेट के तंबाकू की तारीफ़ थी। एक दिन
मैंने देखा कि पिताजी ने 'सिगरेटशाला' की सारी प्रतियों को
जला दिया, जिसका कारण मुझे बाद में समझ में आया। मेरे
संवेदनशील पिता को लगा होगा कि मधुशाला के बिंब, जैसे –
हाला, प्याला, साकी तो अपने स्थूल अर्थों के अलावा दूसरे
व्यापक अर्थ भी रखते हैं, पर सिगरेटशाला के बिंबों का कोई
दूसरा अर्थ नहीं है। उन्हें लगा होगा कि क्यों वे
स्वास्थ्यनाशक सिगरेट के पक्ष में खड़े दिखें और किताबें
फूंक दीं।
ईर बीर फते
बच्चन जी ने 1965 में हाथरस के कविसम्मेलन में एक कविता
सुनाई थी, जो मुझे सुनते ही याद हो गई और आज तक याद है।
कविता थोड़ी लंबी है पर इतनी सरल कि किसी को भी याद हो जाए
– 'एक थे ईर, एक थे बीर, एक थे फते और एक थे हम . . .'।
मैंने इस कविता का विश्लेषण अपने लिए कुछ इस तरह से किया
था ईर यानी प्यार की पीर के कवि, बीर यानी वीररस के कवि और
फते यानी हास्य की लोकप्रिय धारा के कवि। कविता में जो चौथा
चरित्र 'हम' है, उसने लिखी अकविता। सभी ने अपनी कविताएं
प्रकाशित कराई। जब कविताओं पर पुरस्कार मिलने की बारी आई
तो बच्चन जी कविता के अंत में कहते हैं – 'ईर को मिला ईर
इनाम, बीर को मिला बीर इनाम, फते को मिले तीन इनाम, पर हमको
मिली बदनामी, पर दुश्मनों की दुआ, कि सबसे ज़्यादा नाम
हमारा ही हुआ!' यह कविता अकवितावादियों पर अच्छा व्यंग्य
है।
लगभग दस साल पहले मैनचेस्टर, इंग्लैंड में बच्चन चेयर
स्थापित की जानी थी। उस अवसर पर दो कविसम्मेलन आयोजित किए
गए, पहला मैनचेस्टर में और दूसरा लंदन में। लंदन वाले
कविसम्मेलन में अमिताभ जी भी मौजूद थे। अपने काव्यपाठ से
पहले मैंने ईर–बीर वाली कविता पूरी की पूरी सुना दी। लंदन
के श्रोताओं को पसंद आई। कुछ महीने बाद मैंने देखा कि अमित
जी 'एक रहिन ईर, एक रहिन बीर . . .' गीत अपनी आवाज़ में गा
रहे हैं। गीत बहुत पॉपुलर हुआ। मैं खुशफ़हमी पाल सकता हूं
कि मैं कविता के गीतांतरण में शायद एक प्रेरक तत्व बना।
अमित जी से कह सकता हूं –
भाई साब, भाई साब, भाई साब!
ख्याति कमाई बेहिसाब।
लाजवाब था गीतकार चचा।
जिसने गीत के साथ आपको भी रचा।
9 सितंबर 2005 |