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 हमारे देश में नाम से पहले सम्मानसूचक 
						विशेषण या विशेषण–माला लगाने की प्रथा पुरानी है। जैसे, 
						कोई बड़े ऋषि, भक्त या संत हुए तो उनके नाम से पहले आदिकवि, 
						वेदव्यास, महापंडित, संत–शिरोमणि, श्रीयुत पूज्यपाद, 
						महामंडलेश्वर, कर्मठ–कमंडलेश्वर, एक सौ आठ या एक हज़ार आठ 
						श्री श्री, जैसा कुछ लगा दिया। मुगल शहंशाह जब दरबार में 
						आते थे तो फिरदौसमकानी, जन्नतआशियानी, ज़िल्लेसुभानी से 
						लेकर शहंशाहे–वक्त और शहंशाहे–हिंद तक न जाने कितने विशेषण 
						लगाए जाते थे। मुगल दरबारों में ये विशेषण आगे तो लगाए ही 
						गए, पीछे भी लगाए गए। अकबर के दरबार के कवि अब्दुर्रहीम को 
						खानखाना यानि खानों के खान की उपाधि दी गई। उन्हीं के एक 
						अन्य दरबारी थे – तन्ना मिश्र। अकबर ने उपाधि क्या दी, उनका 
						नाम ही 'तानसेन' हो गया।
 मूल नाम को बदलने के मूल में एक मनोवैज्ञानिक–सामाजिक कारण 
						यह रहा होगा कि समाज में वह व्यक्ति सामान्य न समझा जाए, 
						उसकी कोई विशिष्ट पहचान हो। तन्ना मिश्र या अब्दुर्रहीम तो 
						बहुत हो सकते हैं, लेकिन तानसेन और खानखाना आपको ढूंढ़े नहीं 
						मिलेंगे। पूर्वनाम अथवा उपनाम किसी विशिष्ट व्यक्ति की 
						अद्वितीयता के द्योतक हैं। महाराज! ऐसा कोई दूसरा नहीं है 
						इस संसार में, क्या समझे?
 
 सामने वाले को मूलनाम से पुकारने की संस्कृति पश्चिम में 
						चलती है। वहां बेटा पिता को नाम से पुकार सकता है। पिता चलो 
						अपवाद हो भी जाए तो समाज के शेष सदस्य! वे इस बात का बुरा 
						नहीं मानते कि नाम लेकर पुकारा जा रहा है। कुछ अपवाद माता–पिता 
						के बंधु–बांधव हो सकते हैं, लेकिन वे सब अंकल और आंटी में 
						सिमट जाते हैं। यहां की तरह नहीं है कि बुआ–फूफा, मौसी–मौसा, 
						चाची–चाचा, ताई–ताऊ कहकर हर व्यक्ति की अद्वितीयता की नहीं, 
						तो कम से कम अतृतीयता, अचतुर्थता या अशतता की रक्षा तो हो 
						सके।
 
 बहरहाल, जब अंग्रेज़ भारत आए तो यहां संबोधनों में विशेषणों 
						की झड़ी और नाम की पूंछ में पदनामों और उपनामों की लंबी लड़ी 
						देखकर घबरा गए। उन्हें यहां अपने पैर जमाने थे, इसके लिए 
						उन्होंने राजाओं से दोस्ती की और उनकी उस कमज़ोरी को भांप 
						लिया कि नाम के आगे विशेषण लगाने से ये लोग बहलाए और 
						फुसलाए जा सकते हैं। लॉर्ड कर्ज़न का दिल्ली दरबार तो बहुत 
						प्रसिद्ध है जहां राजाओं को उपाधियां बांटी गईं लेकिन 
						किसानों पर लगान बढ़ा दिए गए। किसी को बहादुर कहा किसी को 
						रायबहादुर, किसी को सिर्फ़ राजा तो किसी को महाराजा। तीन 
						हज़ारी, चार हज़ारी, पंच हज़ारी, मनसबदारी भी होती थीं। 
						छोटे राजा खुश, बड़े राजा खुश, राजा के दरबारी खुश, प्रजा 
						से तो लेना–देना क्या। माफ़ करिए, लेना था – लगान।
 
 हिंदी साहित्य के आधुनिककाल के आंगन में जब नयी–नयी गद्य–विधाएं 
						दबे पांव आ रही थीं तब भी साहित्यकार उपाधियों और ओहदों की 
						सामंती ठसक से मुक्त नहीं थे। जैसे, राजा शिव प्रसाद कहलाते 
						थे 'सितारेहिंद' और लक्ष्मण सिंह को राजा का ख़िताब मिला 
						हुआ था। ख़िताब पदवियां और ओहदे अंग्रेज़ लोग इसलिए बख्शते 
						थे ताकि उस ज़माने का साहित्यकार उनकी वंदना में लगा रहे।
 
 आधुनिककाल के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र का परिवार पुश्तों 
						से अंग्रेज़–भक्त था लेकिन बाबू हरिशचंद्र 'संतन कौ कहा 
						सीकरी सौ काम' परंपरा के थे। वे वायसराय की महफ़िलों में तो 
						गए लेकिन ओहदों और पदवियों के लिए नहीं, जनता ने ही उन्हें 
						ओहदा दिया था 'भारतेंदु' का।
 
 अब हर किसी को तो राजा–शासक या जनता कोई विशेषण नाम या 
						उपनाम नहीं देते थे। इस मामले में कलाकार स्वावलंबी होने 
						लगे। अपनी अलग पहचान बनाने के लिए उन्होंने अपने उपनाम 
						स्वयं रखना प्रारंभ कर दिया। उर्दू फ़ारसी के कवियों ने इसे 
						तखल्लुस कहा। मिर्ज़ा नाम से पहले की उपाधि है विशेषण के 
						रूप में, और ग़ालिब है तखल्लुस। मीर, दाग़, जौक नाम के बड़े 
						शायरों का मूल नाम क्या होगा ये सामान्य जन को पता नहीं 
						है।
 
 हिंदी कवियों में उपनाम लगाने की शुरूआत कब से हुई ठीक–ठीक 
						नहीं कहा जा सकता। लेकिन प्रसिद्ध हुए अयोध्यासिंह 
						उपाध्याय 'हरिऔध' और बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर'। छायावाद 
						में 'प्रसाद' और 'निराला' भी उपनाम थे। ये विश्वविद्यालयों 
						और उनके पाठ्यक्रमों की मेहरबानी है कि हम इन कवियों के 
						मूलनाम भी जानते हैं। जयशंकर 'प्रसाद' और सूर्यकांत 
						त्रिपाठी 'निराला'। 'अज्ञेय' जी का लंबा नाम भी लोग बता 
						सकते हैं क्योंकि विभिन्न संचार माध्यमों ने पूरा नाम 
						प्रचारित किया – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'। 
						शोधार्थियों को चाहिए कि खोजकर बताएं कि 'अज्ञेय' जी का यह 
						पूरा नाम भी मूलनाम है कि नहीं।
 
 समाज में एक नाम के बहुत से लोग होते हैं। उन बहुत से लोगों 
						को एक–दूसरे से कोई परेशानी नहीं होती। परेशानी होती है 
						कलाकारों को। इसीलिए उपनाम और तखल्लुस का चलन चला। फिर एक 
						उपनाम या एक तखल्लुस के अनेक शायर होने लगे। अब क्या किया 
						जाए? किसी ने 'जिगर' तखल्लुस रखा तो पता चला किसी और शहर 
						में दूसरे 'जिगर' साहब हो गए। तब अपनी अद्वितीयता की रक्षा 
						के लिए एक जिगर साहब ने अपने शहर का नाम अपने नाम के साथ 
						जोड़ लिया। मूल नाम एकदम ग़ायब हो गया। रह गया तखल्लुस और 
						शहर का नाम – जिगर मुरादाबादी। अब मुरादाबाद में किस शायर 
						की हिम्मत होगी कि वह अपना तखल्लुस 'जिगर' रख ले। दूसरे 'जिगर' 
						साहब यदि रामपुर में हैं तो उन्हें स्वयं को 'जिगर रामपुरी' 
						कहना पड़ेगा। जिसकी शायरी चल गई वो प्रसिद्ध हो गया, जिसकी 
						नहीं चली उसे काल का गिद्ध खा गया।
 
 नाम के साथ स्थान का नाम जोड़ने का सिलसिला सैंट्रल एशिया 
						से तुर्क लोग लाए थे। गजनी के महमूद को महमूद गजनवी कहा 
						जाता था। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के 
						कुछ स्थानों पर नाम के साथ शहर का नाम लगाने का चलन है। 
						कितना पुराना है यह शोध का विषय है।
 
 पश्चिमी उतर प्रदेश में साले के साले को पटाक–साला कहा जाता 
						है। तखल्लुस के आगे शहर का नाम लगाना भी लगभग ऐसा ही है। 
						तखल्लुस का तखल्लुस यानि पटाक तखल्लुस। इसे हम उपनाम का 
						उपनाम यानि उपनामोपनाम भी कह सकते हैं। साहित्य में पटाक 
						तखल्लुस का सिलसिला उर्दू–फ़ारसी के शायरों ने प्रारंभ किया। 
						किसे पता है कि नज़ीर अकबराबादी का मूल नाम सयद वली 
						मोहम्मद है, जोश मलीहाबादी का मूल नाम शब्बीर हसन खां, 
						हफ़ीज़ जालंधरी अब्दुल मोहम्मद हैं, मज़ाज़ रदौलवी मूलतः 
						असरारूलहक हैं, वामिफ़ जौनपुरी अहमद मुज्तबा हैं, फ़तील 
						शिफ़ाई का मूल नाम औरंगजेब खां है, सलाम मछलीशहरी मूलतः 
						अब्दुससलाम हैं, साहिर लुधियानवी हैं – अब्दुल हयी। आजमगढ़ 
						के अतहर हुसैन को कैफ़ी आज़मी के नाम से जाना जाता है। अकबर 
						इलाहाबादी सयद अकबर हुसैन हैं और रियाज़ खैराबादी सयद अहमद। 
						तखल्लुस और पटाख तखल्लुसों की लंबी फैहरिस्त पेश की जा सकती 
						है।
 
 हिंदी में उपनामों का चलन बीसवीं सदी के प्रारंभ में तेज 
						हुआ।'कंटक', 'सनेही', 'अवधेश', 'अशंक', 'निराला', 'समीर', 
						'अनुरागी' जैसे उपनाम छायावादोतर काल की नवगीति काव्यधरा 
						में दिखाई दिए। राष्ट्रीय काव्यधरा की ओज की रचनाएं लिखने 
						वालों को 'दिनकर', 'विप्लव', 'क्रांतिकारी', 'प्रचंड' और 'विद्रोही' 
						जैसे नाम रूचते थे। कोमल गीतकार 'सुमन', 'प्रसून', 'किसलय', 
						'पारिजत', 'नीरज', 'सरोज' जैसे पुष्पोन्मुखी नाम रखते थे। 
						कुछ प्रकृति के अन्य चाक्षुक बिंबों को भी उपनाम बनाया गया 
						जैसे – 'निर्झर', 'दिगंत', 'रत्नाकर', 'सागर', 'घन', 'मेघ', 
						'शशि', 'रवि', 'शशांक', 'आदित्य'। कुछ उपनाम पशु–पक्षी जगत 
						से आयात किए गए जैसे – 'चातक, 'मयूर', 'मृगांक', 'हंस'।
 
 हिंदी में अपने शहर का नाम लगाने का चलन हास्य कवियों ने 
						प्रारंभ किया। पहले बनारस में फिर हाथरस में। भैयाजी बनारसी, 
						चोंच बनारसी, बेढ़ब बनारसी जैसे कई बनारसी आपको मिल जाएंगे, 
						लेकिन हाथरस ने इस पटाक तखल्लुस या उपनामोपनाम रखने की 
						परंपरा में किर्तिमान स्थापित किया। जितने हाथरसी पटाक 
						तखल्लुस के कवि हाथरस में हैं, उतने विश्व के किसी कोने 
						में अपने शहर के नाम को दैदीप्यमान करने वाले कवि नहीं 
						मिलेंगे।
 
 मेरा अनुमान है कि हाथरस में उन्नसवीं शताब्दी के अंत और 
						बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ज़रूर कोई उर्दू के शायर रहे 
						होंगे जिन्होंने अपने नाम के आगे हाथरसी पटाक तखल्लुस लगाया 
						होगा, लेकिन जो पहला नाम लोकप्रिय हुआ, वह था – काका हाथरसी। 
						उनका मूल नाम है – प्रभुलाल गर्ग।
 
 काका के बाद हाथरस में प्रसिद्ध हुए – देवीदास शर्मा, 
						लेकिन 'निर्भय हाथरसी' पटाक तखल्लुस के साथ। 'हाथरसी' पटाक 
						तखल्लुस वाले अनेक कवियों को मैं जानता हूं। हाथरस के 
						हास्यरस पर चर्चा अगली बार करूंगा, आज मैं सिर्फ़ उनके नाम 
						बता रहा हूं। इन नामों में आपको कविता नज़र आए तो सराहिएगा। 
						नाम हैं – उजाला हाथरसी, चाचा हाथरसी, लाला हाथरसी, चमचा 
						हाथरसी, गिल्लु हाथरसी, घायल हाथरसी, सागर हाथरसी, लल्ला 
						हाथरसी, शर्माजी हाथरसी, रसराज हाथरसी, राजू हाथरसी, नाना 
						हाथरसी, दनादन हाथरसी, सेवक हाथरसी, तरूण हाथरसी, मामा 
						हाथरसी, ये तो वे हैं जिनसे मैं व्यक्तिगत रूप से मिल चुका 
						हूं। इतना जानता हूं कि मायावती ने जब से हाथरस का नाम 
						महामाया नगर कर दिया है तब से इन हाथरसी कवियों के दिल पर 
						अच्छी नहीं बीत रही। हाथरस के कुछ और कवि मेरी जानकारी में 
						आए हैं उनकी नामावली नीचे दे रहा हूं। इन नामों में 
						उपनामोपनाम 'हाथरसी' आप अपनी ओर से लगा लीजिएगा।
 
 अक्खड़, फक्कड़, भुक्खड़, मुच्छड़, अड़ियल, सड़ियल, खटमल, 
						हलचल, तायल, घायल, चंचल, डंठल, मच्छर, खच्चर, शनीचर, फटीचर, 
						लुक्का, फुक्का, राका, धमाका, गुलकंद, माखन, लड्डू, लाखन, 
						सींग, सांड, भूत, भांड़, नंग, हुड़दंग, बविफ, बजरंग, ठूंठ, 
						लठ्ठा, टोपा, पठ्ठा, फूफा, मामा, हड़वूफ, हंगामा, ताऊ, चाचा, 
						चीमटा, चमचा, नोंवूफ, नोंचू, चोंचू, घोंचू, ऐरा और गैरा, 
						वगैरा वगैरा।
 
 9 जून 2005
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