कविताओं और कविसम्मेलन के बीच में
महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं – आयोजक। आयोजक कई प्रकार के होते
हैं। एक वे जो टिकट से आयोजन कराते हैं, जिनका लक्ष्य पैसा
कमाना होता है। अपने लिए अथवा किसी संस्था के जनहित कार्यों
के लिए।
दूसरे प्रकार के आयोजक वे होते हैं, जो धन नहीं यश चाहते
हैं। धन मुहैया कराने के लिए संस्थाएं अथवा नगर के कुछ
काव्यरसिक दानवीर आगे आ जाते हैं। ये कविसम्मेलन को लाभ–हानि
का सौदा नहीं मानते। अपने नगर के प्रति एक कर्तव्य मानकर
आयोजन कराते हैं। इनके कविसम्मेलनों में कोई टिकिट नहीं
लगती। विभिन्न प्रकार की मेला समितियों, प्रदर्शनियों की
समितियों, रामलीला कमेटी, गणेशोत्सव मंडल, होली मंगल मिलन
के चंदों से, अथवा नगर की नगरपालिका के मनोरंजन–बजट से,
अथवा किसी सरकारी, अर्धसरकारी या गैरसरकारी संस्थान के
कर्मचारी कल्याण कोष अथवा इसी चरित्र के सार्वजनिक कोषों
से कवियों के पारिश्रमिक, मार्ग–व्यय, तंबू, भौंपू और भोजन
आदि की व्यवस्था की जाती है। इन आयोजकों का यश–प्राप्ति के
अलावा कोई स्वार्थ नहीं होता। इनमें से अधिकांश स्वयं कवि
अथवा कवि–हृदय होते हैं। अपनी गांठ का पैसा तो प्रायः नहीं
लगाते पर भरपूर समय देते हैं। कुछ आयोजक इनसे भी ऊंचे होते
हैं, वे अच्छा कविसम्मेलन आयोजित करने के लिए धन भी देते
हैं और श्रम भी करते हैं। ऐसे लोग आयोजक नहीं कहलाते,
कविसम्मेलनों के संरक्षक कहलाते हैं। नगर में इनका बड़ा
आदर होता है। कविसम्मेलन से इनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है और
इनकी प्रतिष्ठा से कविसम्मेलन।
रंगजी के बालसखा
फिरोजाबाद के उद्योगपति श्री बालकृष्ण गुप्त कविसम्मेलनों
के एक पुराने संरक्षक–आयोजक हैं। पिछले तीस वर्ष से मैंने
उन्हें आगरा अंचल के अनेक कविसम्मेलनों की अध्यक्षता करते
हुए देखा है। मेरे पिता के मित्र रहे हैं इस नाते मेरे
प्रति भी स्नेह प्रचुर मात्रा में रखते हैं। पिछले दिनों
उनका फ़ोन आया कि वे अपने दंतचिकित्सक के पास सरिता विहार आ
रहे हैं। मेरे घर भी आएंगे।
वे आए। काफ़ी अंतराल के बाद भेंट हो रही थी। अस्सी से ऊपर
के हो चुके थे लेकिन ऊपर की मंज़िल चढ़ने में बीस सैकेंड
भी नहीं लगाए। चकाचक हेल्थ के स्वामी। महीन खादी के वस्त्रों
पर कलफ़ की कड़क और धवल रंगत। कुर्ते की बाहों में कमीज़
जैसे कफ़ पर चमकदार सुनहरी घड़ी, सुनहरी पतले फ्रेम का चश्मा,
मोटे अधरों पर मोटी मुस्कान। अधरों के ऊपर सलीके से तराशी
गई सफ़ेद मूछें, सर पर सफ़ेद टोपी से झांकते हुए कुछ काले
कुछ सफ़ेद बाल। कोई कह नहीं सकता कि वे तिरासी से अधिक वसंत
देख चुके हैं। उन्होंने श्री बलबीर सिंह 'रंग' की दो
पुस्तकें – 'रंग के गीत' और 'रंग की राष्ट्रीय कविताएं'
मुझे भेंट कीं। 'रंग' जी को मैंने कविसम्मेलनों में खूब
सुना था। वे मेरे प्रिय कवियों में एक थे।
बालकृष्णजी बिना किसी औपचारिकता के मेरे पास पलंग पर ही
आराम से बैठ गए और बताने लगे– 'अशोक भइया! दिल के शहंशाह
अपने अभिन्न बालसखा रंगजी का मित्र होने का मुझे बहुत गर्व
है। आज लोग जानते नहीं है कि बलबीर सिंह 'रंग' अपने ज़माने
के बहुत बड़े कवि हुए हैं। ये पुस्तकें उनके दिवंगत होने
के लगभग पंद्रह साल बाद छपवाई हैं। मैंने 'रंग स्मृति
संस्थान' की स्थापना की है। पहले भी उनके प्रणय–गीतों को
प्रकाशित किया जा चुका है, पर इन पुस्तकों में उनकी दूसरी
अप्रकाशित कविताएं हैं।'
रंगजी की स्मृतियों में खोते हुए और शून्य में ताकते हुए
बालकृष्णजी बोले– 'वे आपाद–मस्तक कवि थे। औपचारिक शिक्षा
शून्य। स्कूल कभी नहीं गए। ग़ज़ब के स्वाभिमानी। इनके
पिताजी का नाम गुलाबसिंह आर्य था। फौज में थे। फौजियों ने
कहा कि ये आर्य नाम हटा दो। उन्होंने हटाया नहीं तो फौज से
निकाल दिए गए। इसके बाद घर की स्थिति बहुत ख़राब हो गई।
कोटला आगरा के पास एक छोटी सी रियासत थी। मेरा जन्म वहीं
हुआ था। रियासत में एक थे पंडित गंगाधर जी कथावाचक। अच्छे
कवि और गायक थे। रंगजी के पिताजी उन्हें पंडिज्जी की शरण
में डाल गए। उस समय रंगजी ज़्यादा से ज़्यादा सात साल के
रहे होंगे। मुझसे दो–तीन साल बड़े। तबसे हमारी जो मित्रता
हुई, आजीवन बनी रही। पंडिज्जी कथा कहते थे, ये तबला बजाते
थे। शाम को हम लोग क्रिकेट खेलते थे।'
खुद संवरना तुम्हें नहीं आया
अब गुप्त जी ने रंगजी के कवि बनने की प्रक्रिया का खुलासा
किया– 'रियासत में एक लड़की थी आशा, वो भी हम लोगों के साथ
खेलती थी। हमारे रंगजी को उस कन्या से मौहब्बत हो गई।
इकतरफ़ा। लगता है उस मौहब्बत में ही कविता के बीज थे। यों
तो पंडिज्जी भी कवि थे। छंद का शास्त्रज्ञान तो पंडिज्जी
से लिया, पर भावलोक आशा दे गई। आशा, निराशा भी दे गई और
फक्कड़ता भी। मैं उनकी कविताओं का पहला श्रोता हुआ करता
था। फिर वे महफ़िलों में सुनाने लगे। कविसम्मेलनों में जाने
लगे।
हर तरफ़ वाह–वाही लूटते थे। रंगजी की फ़ितरत ये थी कि
कविसम्मेलनों में जितने पैसे मिले, जब तक उसकी एक–एक पाई
ख़र्च नहीं हो जाएगी, तब तक वो किसी और को खर्च नहीं करने
देते थे। घर आते थे तो लगभग ख़ाली हाथ। चूल्हा हर दिन जलता
हो घर का, ऐसा नहीं था। गीतकार रामावतार त्यागी उनके बारे
में ठीक ही कहा करते थे – सब की महफ़िल संवार सकते थे, खुद
संवरना तुम्हें नहीं आया।'
मैं पुस्तक के पन्ने पलटने लगा। अपने आप एक पृष्ठ खुला जिस
पर एक मुक्तक लिखा था – 'सच कहता हूं जब से होश संभाला है,
रूखा–सूखा मुंह में गया निवाला है। ज़र, ज़मीन, जोरू से
लेना–देना क्या, ऊपर वाला ही अपना रखवाला है।' बालकृष्ण जी
बता रहे थे– 'जब उनकी बेटी की शादी हुई तो वे संकट में थे।
मुझे कुछ बताया नहीं। मेरे अंदर से कोई आवाज़ आई कि मित्र
पुकार रहा है। मैं समय पर पहुंच गया। जो कुछ मुझसे बन पड़ा
मैंने किया। वे आत्मीयता में रो उठे। छः पंक्तियों की एक
कविता भी लिखी। इसी संकलन में है। बाद में पढ़ लेना।'
साइकिल बढ़िया चलाते हो
मुझे याद आया कि सन उन्नीस सौ इकहतर में रंगजी एक बार हमारे
घर मथुरा आए थे। रातभर गीत–गोष्ठी चली। पिताजी ने श्री
मोहन स्वरूप भाटिया से कहकर रेडियो पर उनके काव्यपाठ का
कार्यक्रम रखवा दिया। आकाशवाणी पर युवमंच के कार्यक्रमों
का संचालन करने के लिए मैं भी जाया करता था। एम•ए• प्रथम
वर्ष का छात्र था। अगले दिन रंगजी की विदाई के समय पिताजी
ने कहा– 'साइकिल से जाओ और इनके लिए एक रिक्शा ले आओ।'
रंगजी बोले– 'रिक्शा यहां क्यों मंगाते हो? अशोक रिक्शा तक
मुझे छोड़ देगा।' मैंने पूछा– 'कैरियर पर बैठ जाएंगे?' बोले–
बैठ जाएंगे!' मैंने उन्हें साइकिल पर बिठाया और गोकुल की
कैंटीन के सामने रिक्शे वाले के पास साइकिल रोकी। वे
कैरियर से उतरते हुए बोले– 'साइकिल बढ़िया चलाते हो।'
तारीफ़ सुनकर मैं मुस्कुराया– 'हां जी, कई बार हाथरस से
अलीगढ़ तक साइकिल चलाई है। एक बार मथुरा से अपनी ननसाल
इगलास 22 मील तक चलाकर ले गया। बीच में बस एक बार रूका।'
वे मगन होकर कहने लगे– 'तो तुम्ही हमें आकाशवाणी तक छोड़
दो।' मुझे अपनी पढ़ाई की चिंता थी इसलिए एक बार तो रूह
हल्की सी कांप गई, पर इतने बड़े कवि की संगत मिल रही थी सो
प्रस्तावना बुरी नहीं लगी। मैंने कहा– 'बैठिए, वहीं छोड़
देता हूं आपको।'
हमारे घर से आकाशवाणी तक का पूरा मार्ग चढ़ाई वाला था।
कृष्ण जन्मभूमि तक हल्की थी और कृष्ण जन्मभूमि से आकाशवाणी
तक कड़ी चढ़ाई थी। जब कड़ी चढ़ाई आई तो अचानक मुझे लगा कि
साइकिल हल्की हो गई। वे कुशल साइकिलबाज़ की तरह उतर गए थे।
मैंने कहा– 'क्यों उतर गए? ऐसी कोई तकलीफ़ नहीं है।
बगीचाबाजी करता हूं। मेरा व्यायाम ही हो रहा है, आप बैठिए।'
आकाशवाणी पहुंच गए। मैं उनको छोड़कर आने लगा तो बोले– 'अब
तुम कहां जाओगे? कविता सुनो हमारी।' मैंने संकोच दिखाया– 'कविता
तो रात में मैंने बहुत सुन लीं, अब जाना है।' वे बोले– 'बहुत
ज़रूरी काम हो तो चले जाओ, यहां से पैसा तो मिल ही जाएगा।'
मैंने हैरानी से पूछा– 'क्या मतलब?' बोले– 'अशोक बेटा,
हमारे पैसे ख़त्म हो गए हैं। लौटकर जाने के लिए भी नहीं
हैं।' मैंने कहा– 'पर यहां तो आपको चैक मिलेगा। कैश पैसे
थोड़े ही मिलेंगे।' वे हंसे– 'तभी तो हम तुमसे कह रहे थे
कि रूक जाओ। बस अड्डे तक छोड़ देना।' मैंने कहा– 'और फिर
बस के पैसे?' वे निश्चिंत भाव से बोले– 'चैक देके भाटिया
जी से ले लेंगे।' मैंने कहा– 'चिंता मत करिए, मांगने नहीं
पड़ेंगे, मेरे पास हैं।' संकल्प प्रेस के कुछ रूपए मेरे
पास थे।
बहते पानी की बानी
स्टुडियो में एक के बाद एक मैं उनके गीत सुनता रहा। रमते
जोगी बहते पानी की बानी। एक अलौकिक अनुभव। महाकवि का उदात
स्वरूप। दुनियावी झंझावातों से दूर हृदय की मुक्तावस्था।
काव्यलोक से उतरा कोई अवतार। इस चिंता से मुक्त कि जेब में
धेला नहीं है। आत्मा और प्राण का गायक। कहां माइक है और
कौन सुन रहा है इस बात से निरपेक्ष। मैं उन्हें आंखों से
सुन रहा था। कानों से देख रहा था। रेकार्डिंग टेबल का
स्पूल–टेप काल–चक्र के समान घूम रहा था। दिशाएं गूंज रही
थीं। और कह रही थीं– रंग आ जाए उसकी महफ़िल में रंग' आ जाए।
– ओ समय के देवता इतना बता दो ये तुम्हारा व्यंग्य कितने
दिन चलेगा। . . .जब किया, जैसा किया परिणाम पाया, हो गए
बदनाम ऐसा नाम पाया। मुस्कुराहट के नगर में प्राण डूबे,
आंसुओं के गांव में आराम पाया। . . .हमने जो भोगा वो गाया!
. . .हम बु्रे हैं या भले हैं, आपको आपति क्या है? दिलजले
हैं, मनचले हैं आपको आपति क्या है? . . .ख़ास बात कुछ नहीं
कहीं भी किंतु शिकायत आम है, इतने बड़े गगन के नीचे कवि ही
क्यों बदनाम है। . . .मैं दुखी हूं पर सुखों का दान क्यों
लूं? दान के मिस व्यर्थ का अहसान क्यों लूं? . . .बहुत से
प्रश्न ऐसे हैं जो सुलझाए नहीं जाते, मगर उतर भी ऐसे हैं,
जो बतलाए नहीं जाते। . . .रंग का रंग ज़माने ने बहुत देखा
है, क्या कभी आपने बलबीर से बातें की हैं? . . .जाने क्या
से क्या कर देंगे मेरे गीत, तुम्हारे आंसू। . . .सुन चुका
मैं कहानी अपनी, तुम्हारा बोलो विचार क्या है? ये जान लो
सब सुखी नहीं हैं, ये जान लो सब दुखी नहीं है। असंख्य आहों
के इस जगत में, तुम्हारा मेरा शुमार क्या है? सुना चुका
मैं कहानी अपनी . . .
ममता से भयभीत
उनकी गाई हुई एक पंक्ति मैं कभी नहीं भूल सकता – 'निर्ममता
से नहीं मुझे तो ममता से भय है।' ममता से भागने वाला यह
आदमी कितने व्यापक और विरोधाभासी अहसासों में जी सकता था।
देखिए तो सही, संसार की निष्ठुरता से नहीं आत्मीयों के
ममत्व से भयभीत रहा।
गोष्ठी के बाद मैंने उनको बस–अड्डे पर छोड़ा। शायद दस रूपए
मैंने दिए थे। वे टिकट ले आए और बचे हुए पैसे मेरे हाथ पर
रख दिए। मैंने पूछा– 'आपको रास्ते में पान–बीड़ी की ज़रूरत
होगी?' वे बोले– 'अब हमें कोई ज़रूरत नहीं। समझो एटा पहुंच
गए।' बस चलने वाली थी। मैं जानता था कि बीड़ी बिना पांच–छः
घंटे निकालना मुश्किल पड़ेगा। बिना कुछ कहे मैं बंडल–माचिस
ख़रीदकर लाया। बस चल पड़ी थी। बस के पीछे–पीछे मैं साइकिल
दौड़ाने लगा– 'ताऊजी ताऊजी ये . . .ये लीजिए।' उनके चेहरे
पर चिंता थी कि कहीं मेरी साइकिल बस से न टकरा जाए।
मैं बता नहीं सकता कि कितना आनंदित था। आकाशवाणी पर सुने
उनके गीतों को गुनगुनाते हुए और साइकिल लहराते हुए घर
पहुंचा।
घर पर आए हुए बालकृष्णजी के लिए जो पंक्तियां रंगजी ने लिखीं
थीं उन्हें अब तेतीस साल बाद पढ़ रहा हूं–
बालकृष्ण! तुमने तो मेरा हृदय लिया है जीत,
मुझ जैसे कलजुगी–सुदामा के बन बैठे मीत।
कई बार तुमने ही, मेरी जाती–बात बहोरी,
तुम पर मुझको बहुत भरोसा– ये मेरी कमज़ोरी।
जब मैंने चाही, कुबेर की संपति तुमने ला दी,
द्वापर की वह प्रीति पुरानी, फिर तुमने दुहरा दी।
1 अप्रैल
2005 |