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२ मंच मचान

— अशोक चक्रधर

मोह में भंग और भंग में मोह

साठ के दशक की शुरूआत तक तो मामला बहुत सीधा–सरल था, न वाणी अनर्गल थी न उसमें गरल था। कारण यह कि आज़ादी मिलने से पहले का विद्रोह भंग हो चुका था लेकिन आज़ादी के बाद का मोहभंग व्यापक स्तर पर नहीं हुआ था। नेहरू के शांति कपोतों का कांड–ए–पर–कतर नहीं हुआ था। चीन का युद्ध नेहरू के कबूतरों के लिए पहला झटका था। उस दौरान हम सबके सब प्रायः नेहरू जी के कबूतर थे। झटका खाया तो होश सा कुछ आया कि भारत का स्वातंत्र्य अभी तरा नहीं है, पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता ने बताया कि सब कुछ हरा–भरा नहीं है।

लेकिन विफलताओं की संध्या सुंदरी कविसम्मेलन के मंचों पर धीरे–धीरे उतरी। अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों को शायद विश्वसंदर्भों के कारण मोहभंग की काली रात डरा रही हो पर मंच पर कवि प्रेम के गीत गा रहा था। अपने देश में प्रेम के गीत। युद्ध हुआ तो प्रेम में देश आने लगा। नेहरू जी ने कांग्रेस को कुछ इस तरह से परोसा था कि कश्मीर कुमारी से कन्या माता तक और आसाम से गुजरात तक भारत के वासियों को 'दो बैलों की जोड़ी' पर पूरा भरोसा था। हिन्दी मंच के श्रोताओं के लिए कांग्रेस की दो बैलों की जोड़ी प्रेमचंद के हीरा–मोती से कम नहीं थे। इस बात को स्वीकारने में संकोच नहीं होना चाहिए कि निजी सपनों और राष्ट्रीय सपनों के अंतर को समझने की व्यावहारिक शुरूआत वाचिक परंपरा में कायदे से नहीं हो पाई थी।

उस समय जो वैयक्तिक चेतना थी उसमें आप निज के दुख–सुखों की बात कर रहे थे। यह भी था कि निज के सुख–दुख आप देश के सुख–दुख से अलग महसूस करते थे। अचानक राष्ट्र का सुख–दुख सामने आया तो आप अपना सुख–दुख भुलाने लगे। तब तक यह समझ में आना शुरू नहीं हुआ था, कि निज के सुख–दुख भी राष्ट्र के सुख से जुड़े होते हैं। इसके व्यापक संदर्भ हैं। प्रेम में देश समाया रहता है और देश में प्रेम। यह बात समझ में साफ तौर पर नहीं आ पा रही थी। गीतों और कविताओं में निराशा रूप बदल–बदलकर रोमानी पैंतरे दिखा रही थी।

अब मंच पर नीरजजी के अनुसार – कारवां गुज़र चुका था, गुबार बाकी था देखने के लिए। नौजवानों के स्वप्न झरे फूल से और मीत शूल से चुभने लगे।

व्यक्तिगत पीड़ा का रोमानीकरण इस समय के कविसम्मेलनों का मुख्य स्वर है। निजी विसंगतियों को गीतों के माध्यम से व्यक्त किया जा रहा था। भारतभूषण जी गा रहे थे – 'ये विसंगति ज़िंदगी के द्वार सौ–सौ बार रोई, चाह में और कोई, बाँह में और कोई।' मृत्यु पर बहुत लिखा गया। जीवन पर बहुत लिखा गया। देवराज दिनेश ओजस्वी वाणी में सुनाते थे – 'जीवन क्या है, लहरों सा लहराना, हँसना, खिलना शोर मचाना। नीरजजी की कविताओं में जीवन–मृत्यु का रूपक पलट–पलट कर आता था। मेरे पिता राधेश्याम प्रगल्भ ने कहा कि जीवन है परीक्षा कक्ष के तीन घंटे का समय। पहला घंटा बचपन बीत जाने पर बजता है, दूसरा जवानी खत्म होने पर तथा तीसरा बुढ़ापे के बाद, काल का चपरासी मौत का बजाता है। परीक्षा खत्म होती है, कॉपी छिन जाती है। इस रूपक को नीरजजी ने 'मेरा नाम जोकर' के अपने एक गीत में इस्तेमाल किया और वाचिक परंपरा में ही सही श्रेय भी मेरे पिता को दिया। ये नये रूपक थे, ये भक्तिकालीन नहीं थे। ये सूफी परंपरा से भी नहीं उपजे थे। ये रूपक आज़ादी के भ्रामक मोह से मुक्त होना चाहते थे।

आज़ादी का मोह कोई माथे की बिंदी तो था नहीं जो रात में सोते वक्त खाट के पाये से चिपका दी जाए। वो मोह छुट्टल साँड के ठप्पे की तरह सरकार की नगरपालिका ने हमारे दिमागों के नितंबों पर दाग रखा था। ऐसे कैसे जाता? कुंए में नहीं मोह में भंग पड़ी हुई थी और मोह था कि भंग हुआ नहीं चाहता था। निशा–निमंत्राणों के मोह में भंग की खुमारी विद्यमान थी। चीन का युद्ध समझ में नहीं आ रहा था। पर इतना समझ में आ रहा था कि राष्ट्र पर संकट का एक पहाड़ है जिसे सबको मिल–जुलकर उठाना है। इक्का–दुक्का हास्य कवि होते थे। या तो बनारस के या हाथरस के। वे भी हास्य–रस में वीर–रस ला रहे थे। काका जी गा रहे थे – 'इतना दम है देखो मेरी टूटी हुई कलाई में, आज्ञा हो तो आग लगा दूँ फौरन दियासलाई में।'

कवि प्रदीप भी राष्ट्रीय कविसम्मेलनों में जाते थे और ये बात तो सब जानते हैं कि 'ऐ मेरे वतन के लोगो' गीत सुनकर नेहरू जी रो दिए थे। लता जी द्वारा गाए जाने से पहले इस गीत को मंच पर सुनकर कितने लोग रोए इसका कोई हिसाब हमारे पास नहीं और बकौल किशन सरोज काँटों बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं।

बतियाना चाहता हूँ बासठ के दौरान अपने बालकत्व के बबालत्व पर। अगली बार नहीं। अभी तो जीवन के मोह में अपनी कल्पनाओं की थोड़ी भंग डालता हूँ।

ज़िन्दगी एक किताब है, आकार में दिल सी, पवित्र इतनी कि गीता कुरान बाइबिल सी।
एक विद्युत की चमक एक दमकती मंज़िल सी, यों तो पहाड़ पर महसूस करो तो तिल सी।
एक दूरी के बावजूद सबमें शामिल सी, मीठी दुश्मनी सी प्रेमी कातिल सी।
कभी बड़ी आसान कभी मुश्किल सी, कभी निपट अकेली कभी खिलखिलाती महफिल सी।

कभी दिल्ली की झिलमिल कालौनी जैसी गंदी, कभी किसी गंदी कालौनी की झिलमिल सी।
कभी मधुमक्खी का छत्ता कभी चींटीं के बिल सी, कभी घटाओं जैसी कुटिल कभी गणित की तरह जटिल सी।
कहीं स्लेट जैसी साफ कहीं टूटी पैंसिल सी, कहीं सिग्नेचर्स के साथ अप्रूव्ड कहीं खुन्दक में कैंसिल सी।
कभी उँगली पकड़ाने वाली कभी टक्कर में मुकाबिल सी, और कहीं मुझ जैसी जाहिल और आपके समान काबिल सी।

पर मैं तो इतना चाहता हूँ कि ज़िन्दगी हल्की–फुल्की हो, न कि पत्थर की सिल सी,
वो अगर बूढ़ी झुर्रियों में भी मिले, तो किसी बच्चे की इस्माइल सी।
कायल हो जाऊँगा आपकी दाद का, बच्चा होना चाहिए बगदाद का।

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