शरदजी कविसम्मेलन के पानी में तेल की बूंद की तरह रहते थे।
ऊपर–ऊपर तैरते हुए। वे उसमें सहज घुलनशील नहीं थे। मुझे
लगता है कि मैं एक मथनी की तरह था जो कोशिश करता था कि वे
रमें, पर असलियत ये है कि उनका मन कविसम्मेलन–तंत्र में
रमता नहीं था। न घुलते थे न खुलते थे। वे कविसम्मेलन के
कवियों से और श्रोताओं से एक स्तर पर संतुष्ट थे तो दूसरे
स्तर पर असंतुष्ट।
मैंने उनके साथ दस से ज़्यादा वर्ष कविसम्मेलनी यात्राएं
कीं। उन यात्राओं में प्राप्त निकटता के कारण मैं यह
ग़लतफ़हमी पाल सकता हूं कि मुझे उनके व्यक्तित्व के गोपन–कक्ष–कवच
के भीतर जाने का भी अवसर मिला जिसमें वे आसानी से किसी को
आने नहीं देते थे। ज़िदगी में इतने व्यतिक्रमों से वे
गुज़रे थे कि निजी क्षेत्र में दखलअंदाज़ी पसंद नहीं करते
थे। दो–चार बरस की सहयात्राओं के बाद ऐसा हो गया कि दस–बीस
दिन के अंतराल पर जब भी मैं मिलता, वे आतुर से दिखते थे कि
कविसम्मेलनेतर विषयों पर कुछ एकांतिक किस्म की बातचीत की
जाए।
किसी शहर के कविसम्मेलन में अगर मैं दिल्ली से जा रहा हूं,
वे बंबई या भोपाल से आ रहे हैं, तो हमारे बीच एक समझौता
रहता था। वे अगर होटल में पहले पहुंच जाएंगे तो अपने साथ
रजिस्टर में मेरा नाम भी लिख देंगे। ऐसा ही निर्देश मेरे
लिए होता था – तुम अगर पहले पहुंच जाओ तो डबलबैड वाला एक
शानदार सा कमरा हथिया लेना और अपने नाम से ऊपर मेरा नाम
लिख देना।
आप शरद जोशी हैं?
किसी शहर के एक होटल में मैंने रजिस्टर पर एंट्री की। उनका
नाम ऊपर लिखा, अपना नीचे। कहां से आए हैं, कहां जाएंगे,
किस देश के नागरिक हैं, क्यों आए हैं, कितने दिन ठहरेंगे,
वगैरा वगैरा, सब कुछ भरकर हस्ताक्षर कर दिए। कुछ देर बाद
कविसम्मेलन का एक कार्यकर्ता कमरे में आया, कहने लगा– आपका
नाम शरद जोशी है? मैं हैरानी से उसे देख रहा था। उसने दूसरा
सवाल दागा– क्या आपको मालूम है अशोक चक्रधर किस गाड़ी से आ
रहे हैं? मैं अंदर तक प्रसन्न हुआ कि मुझे शरद जोशी समझा
जा रहा है। नाम ऊपर जो लिखा था।
मंच के ऊपर वे कोने में या कोने के करीब बैठना पसंद करते
थे। उन्हें कहा जाए कि मध्य में आ जाइए तो आते नहीं थे।
मंच पर कोने में प्रायः ऐसे कवि बैठना पसंद करते हैं जिन्हें
एकाधिक कारणों से मंच के पीछे जाना हो। शरद जी के साथ तो
ऐसा नहीं था। वे मंच पर पूरे समय बैठते थे और सबको ध्यान
से सुनते थे। जब उनकी बारी आती थी और नाम पुकारा जाता था,
तब वे जानते थे कि उनके बारे में इतना तो बोला ही जाएगा कि
वे उस अंतराल में अपने निबंध छांट लेंगे। उनके पास एक छोटा
सा बैग रहता था जिसमें ए–थ्री साइज के टू–फोल्ड किए हुए
कागज़ भरे रहते थे। मंच पर सुनाए जा सकने वाले पंद्रह–बीस
निबंध। वे आमतौर से सोचकर नहीं बैठते थे कि कौन सा निबंध
पढ़ना है। निबंध छांटते समय इतना ज़रूर पूछ लेते थे– एक
सुनाना है या दो सुनाने हैं। मैं कहता था– दो तो आपको
सुनाने ही हैं, तीसरा भी ले जाइए। जनता की मांग पर देख
लीजिएगा। वे मुस्कुराकर कहते– जनता तो एक ही चाहेगी, यहां
सब तेरी कविताओं के चाहक बैठे हुए हैं। मैं उन्हें धीरज
बंधाता– नहीं भाईसाहब, यहां आपके चाहक ज़्यादा हैं। दरअसल
उनको पता ही नहीं था कि उनको चाहने वाले कितने हैं।
बस एक बार उनका सुर लग जाए, फिर तो श्रोता उनकी मुठ्ठी में
होते थे। थिएटर के पुराने अनुभव उनके पास थे। बहुत लो पिच
में हल्की–सी नाटकीयता के साथ अपना काम शुरू करते थे। पहले
दो–तीन वाक्यों में अगर सामूहिक ठहाका मिल गया तो समझिए
सुर लग गया। अब यह निबंध कितना ही लंबा क्यों न हो, जलवे
बिखरा देगा और जल वे जाएंगे जिनके पास कविता नहीं हैं।
रचना की ताकत
मंच के कवि एक बिंदु पर एकमत रहते हैं कि कविता कंठस्थ होनी
चाहिए। अगर पढ़कर सुनाई तो उसका आधा दम जाता रहेगा। कुछ हद
तक यह बात सही है, लेकिन शरदजी इस मान्यता को नेस्तनाबूद
कर देते थे। वे अपना पूरा निबंध बाकायदे पढ़कर सुनाते थे
और भरपूर जमाकर दिखाते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रोता
को आकृष्ट करने में प्रस्तुति कौशल, नाटकीयता, कंठ प्रयोग,
तुक निर्वाह आदि गौण हैं, असल चीज़ है रचना की ताकत। उनका
व्यंग्य इतना मज़बूत होता था, शब्द–शब्द उसमें ऐसे सुगठित
होते थे, जीवन की सच्चाइयों के इतने करीब होते थे कि श्रोता
मंत्राविध हो जाते थे।
मैंने पाया कि हॉल के कार्यक्रमों में उनका जम जाना
हंड्रेड परसैंट श्योरीय होता था। हॉल के श्रोता समझ का एक
स्तर रखते हैं, ध्वनि–व्यवस्था भी अनुकूल होती हैं। भीड़–भड़क्के
वाले कविसम्मेलनों में वे डांवाडोल रहते थे। चिंता रहती थी
कि क्या होगा। फिर अचानक चिंता मुक्त होना जताते– जो होगा
सो होगा। हूट हो जाएंगे तो आयोजक पैसे तो काटेगा नहीं।
चिंता किस बात की? लेकिन वे चिंतित रहते थे। ऐसी चिंता जो
हर परफॉर्मर को होती है।
होली के आसपास जयपुर में महामूर्ख सम्मेलन के नाम से एक
आयोजन कई दशक से चलता आ रहा है। खूब ही श्रोता आते हैं।
अकल्पनीय लगता है देखकर। लाख या दो लाख, गिनना मुश्किल।
मैंने सन अठहतर से उसमें जाना शुरू किया था और लगातार दस–बारह
वर्ष तक जाता रहा। इस कविसम्मेलन का आयोजन प्रतिवर्ष 'तरूण
समाज' के श्री विश्वंभर मोदी कराते हैं। अव्यवस्था और
नरमुंड ही नरमुंड देखकर हर साल कहते हैं– 'कसम खाके कहता
हूं, ये मेरा आखिरी प्रोग्राम है। अगली साल नहीं करूंगा।
इस बार मेरी लाज रख लो। बड़ी दूर–दूर से कवि मंगाएं हैं।
बहुत पैसा खर्च हुआ है। बस इस बार निभा लो।' शरदजी पहली
बार आए थे और शायद अंतिम बार भी।
संचालक महोदय जाने–माने लतीफ़ा–सम्राट थे। शरदजी को बुलाने
से पहले उन्होंने अपने दो–तीन लतीफ़े तो जमा लिए लेकिन उन्हें
कायदे से प्रस्तुत नहीं किया। उस विराट जनयूथ में अधिकांश
ऐसे थे जिन्होंने शरदजी का नाम तो सुना होगा लेकिन उनकी
महता से परिचित नहीं रहे होंगे। शरदजी अपना लेख थामे हुए
माइक पर आए। पहली एक दो लाइन धीरे से पढ़ीं जो जनता तक
पहुंची नहीं। बात बन नहीं पाई। जनता ने अपनी नासमझी का
ज्ञापन करने वाली तालियां बजाना शुरू कर दिया। वे
सौमनस्यपूर्वक वापस आ गए। बैठ गए और लेख अपने कपड़े के बने
हुए बैग में रखने लगे।
शरदजी लौटे और जमकर सुनाया
मुझे संचालक पर क्रोध आ रहा था। मैं जानता था कि संचालक
महोदय अगर चाहते तो जनता को शरदजी का महत्व बताते और उन्हें
माइक पर वापस बुलाते, पर हज़रत ने तो मान लिया जैसे कि
विकेट गिर चुका है। अगले खिलाड़ी को बुलाना है। अगले खिलाड़ी
को बुलाने से पहले वे फिर कोई लतीफ़ा सुनाने लगे। मुझसे रहा
नहीं गया। पता नहीं मुझमें कहां से हिम्मत आई कि मैं माइक
पर पहुंच गया और उनका लतीफ़ा पूरा नहीं होने दिया। दनदनाता
हुआ आया था, डांटने लगा उस जनयूथ को– अभी जो कुछ हुआ उसे
देखकर मैं आपको हरगिज़ माफ़ नहीं करूंगा, लेकिन माफ़ी चाहता
हूं संचालक महोदय से, जिनका चुटकुला मैंने पूरा नहीं होने
दिया। हां, मैं अपराधी हूं कि मैंने आपको उस ठहाके से
वंचित किया जो आप इस चुटकुले को सुनकर लगाते। पर अपने इस
अपराध के लिए मैं आपसे माफ़ी नहीं मांगूंगा। और एक बात और
सुन लीजिए, अगर आपने मेरी बात न मानी तो ज़िदगीभर आपको माफ़
नहीं करूंगा। मैं कितने साल से आपके बीच में आ रहा हूं और
आपका प्यार पा रहा हूं। आदरणीय शरदजी को सुने बिना बैठ कैसे
जाने दिया। तालियां बजाई ये बताने के लिए कि आप उन्हें
सुनना नहीं चाहते। कान खोलकर मुहब्बत के साथ सुन लीजिए कि
वे रामनिवास बाग के इस ऐतिहासिक कविसम्मेलन में ख़ास आपके
लिए आए हैं। राजीव गांधी के भोलेपन पर इन्होंने जो लेख लिखा
है उसकी सिर्फ़ दो लाइन आपको बताता हूं– 'पानी की समस्या हल
करने के लिए राजीवजी ने ग्रामवासियों से पूछा– यहां से नदी
कितने किलोमीटर पड़ती है? किसी ने उतर दिया– जी दो
किलोमीटर। राजीवजी ने फिर से पूछा– लौटने में भी इतनी ही
पड़ती है।' जनयूथ की ओर से हंसी की एक लहर आई, बहुत ऊंची
उठी और मंच के किनारे पार आकर लगी। जनता अब मेरे कील–कब्ज़े
में थी। मैं उनके दिल–दिमाग़ की किवाड़ों के पल्ले खोल चुका
था।
अच्छी तरह याद नहीं मुझे कि मैंने शरदजी की शान में क्या
कुछ कहा। पर इतना तय है कि जो कुछ कहा उसका सारांश यह था
कि इस भूमंडल पर इससे बड़ा लेखक किसी मानव शरीर में
विद्यमान नहीं है। हां, एक वाक्य याद है, जो उन्हें बुलाने
से पहले मैंने कहा– इस गुलाबी नगरी में शरदजी के स्वागत
में इतनी तालियां बजाइए कि हथेलियां लाल हो जाएं।
शरदजी आने में सकुचा रहे थे लेकिन श्रोताओं की तालियों ने
उनका हौसला बढ़ा दिया। मैंने उनसे वही लेख सुनाने का
अनुरोध किया– 'पानी की समस्या'। फिर तो वे ऐसे जमे कि उस
सम्मेलन में शायद ही कोई जम पाया होगा।
पहले ऐसा होता था कि किसी शहर में जाते थे तो अगले दिन भी
रूकते थे। बाहर निकलते थे और शहर को महसूस करते थे। शरदजी
को बाज़ार घूमने और उस शहर की ख़ास चीज़ों को देखने, जानने
और कभी–कभी ख़रीदने का शौक था। जयपुर में कविसम्मेलन के
समापन पर वे परम प्रसन्न थे। सोने से पहले तय किया कि दिन
में बाज़ार चलेंगे और दोपहर बाद आमेर का किल देखेंगे।
मोतियों का शहर
दस–ग्यारह बजे मेरी आंख खुली तो देखा कि बगल वाला पलंग खाली
था। कहां चले गए? वेटर ने बताया– 'बाज़ार जा रहा हूं, ऐसा
बोले।' 'क्या! हमें तो साथ जाना था। ये तो ग़लत बात हुई।
अब क्या करूं? निकलूं भी तो कैसे निकलूं? हो सकता है आसपास
ही कहीं गए हों।' इंतज़ार में काफ़ी समय बीत गया। मेरे कुछ
प्रेमी गाड़ियां लेकर तैनात थे। जहां मैं चाहूं वहां ले
जाने के लिए तैयार। पर मैं भला जाता कैसे। दो–तीन घंटे बाद
वे आए तो मैं बरस पड़ा– 'आपको मेरा साथ पसंद नहीं था तो
मुझे पहले ही बता देते। मुझे छः जगह जाना था। यहां बैठा
हूं आपके इंतज़ार में।' वे मुझसे ज़्यादा उतेजित होकर बोले–
'मैं साठ जगह होकर आया हूं। . . .तब पसंद आई एक चीज़!'
मैंने अपने आवेग पर नियंत्रण पाते हुए जिज्ञासा जताई।
उन्होंने हरे सफ़ेद मोतियों का एक हार निकाला और बोले– 'मेरी
तरफ़ से ये बागेश्री को भेंट कर देना। तुमने रात में जो काम
किया था, दिव्य था। तुम पर बहुत स्नेह उमड़ रहा है।
पत्नीभक्त हो इसलिए बागेश्री के लिए लाया हूं।'
फिर जी हमने सांध्यकालीन आनंद किए। आमेर का किला देखा। दाल–बाटी
चूरमा खाया और जगह–जगह घूमे–फिरे।
सबसे मज़ेदार बात अब बताता हूं। जब मैं यह लेख लिखने की
प्रक्रिया में दिमाग़ और कार एक साथ चला रहा था तब मैंने
बागेश्री से पूछा– 'अरे भई, वो हार कहां हैं जो शरदजी ने
दिया था?' बागेश्री बोली– 'कौन सा हार?' मैंने कहा– 'हरे
सफ़ेद मोतियों वाला।' बागेश्री ने हैरान कर दिया– 'मुझे तो
याद नहीं है।' अब मैं खुद से पूछता हूं– वो हार कहां गया?
इतना भरोसा तो मुझे अपने आप पर है कि अपनी बीबी के लिए दी
गई कोई भेंट मैंने किसी कवयित्री को नहीं थमाई होगी।
बहरहाल . . .मैं कार से बाहर देखने लगा।
क्या होता है कार में
पास की चीज़ें
पीछे दौड़ जाती हैं तेज़ रफ्तार में!
और ये शायद गति का ही कुसूर है,
कि वही चीज़ देर तक साथ रहती है
जो जितनी दूर है।
9 फरवरी 2005 |