समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
संजना कौल की कहानी-
शहर दर शहर
पतझड़ के मौसम में चिनार के पत्ते
अब भी लाल-सुर्ख हो उठते थे, लेकिन उनकी रोमानियत गायब हो गई
थी। उनकी वह सिंदूरी रंगत अब जाड़ों के मौसम की पूर्व सूचना बन
गई थी। कश्मीर का ठंडा मौसम! आत्मा को तोड़ने वाले अवसाद,
वीरानी और अकेलेपन का दूसरा नाम!
और जाड़ों की शुरुआत के साथ ही सुजाता का मन अपने शहर से भागने
लगता था। नए साल के पहले महीने में ही वह दफ्तर से छुट्टी लेकर
एक छोटी सी अटैची तैयार कर लेती थी और जम्मू की बस मे सवार
होकर अपने शहर से दूर चली जाती थी।
उस दिन सफर के लिए कुछ जरूरी सामान लेकर वह ऑटो से घर लौट रही
थी। तेज चाल से सड़क पार करती हुई एक बनी-सँवरी जवान लड़की ऑटो
के पहिए के नीचे आते-आते रह गई। सुजाता के मुँह से हल्सी सी
चीख निकल गई जिस पर बातूनी ऑटो ड्राइवर ने उसकी तरफ देखा,
"बहनजी, देखा आपने? कैसे आँखों पर पट्टी बाँधे चल रही थी? कट
कर मर जाती तो हमारी कौन सुनने वाला था? एक ऊपर वाले को
छोड़कर।"
आगे-
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भावना सक्सेना का व्यंग्य
नया नौ दिन
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मुक्ता की कलम से
तिब्बत का नव
वर्ष लोसर
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डॉ. जगदीश व्योम का निबंध
हाइकु कविता में
नया साल
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पुनर्पाठ में राहुल देव का आलेख
समकालीन कहानियों में
नया साल |