आज सुबह नाश्ते की मेज़ पर ही वह
बात करना चाहती थी हालाँकि उसके मन में रातभर सैंकड़ों छोटे
कंटीले झाड़ चुभते रहे थे। अनेक लंबे बड़े-बड़े कैक्टस सरसराते
रहे थे। वह करवटें बदलती रही थी।
असल में कल सारा दिन बेहद थका
देने वाला साबित हुआ था। कल नववर्ष की पूर्व संध्या थी। कितनी
भी कोशिश करे अपना रोज़मर्रा का रूटीन छोड़ देने का मोह वह
त्याग नहीं पाती हालाँकि हमेशा थक चूर कर अहद करती कि अगली बार
पार्टी अपने घर नहीं रखेगी पर अक्तूबर में दिवाली का हंगामा
ख़त्म होने के बोरियत भरे दिनों को बिताते-बिताते वह नववर्ष पर
पुन: कमर कसकर तैयार हो गई थी। नतीजा वही बच्चे अपनी दुनिया
में व्यस्त रहे और किचन, घर की सजावट सभी काम उसे स्वयं करने
पड़े। अशोक ने मदद की तो थी पर वही जो उसने कह दिया, बस! यों
तो कल की पार्टी उसने बहुत एंज्याय की थी क्यों कि बच्चे बहुत
खुश थे।
रातभर वह बात करने की योजनाएँ
बनाती रही थी जिसके लिए बहुत-सी हिम्मत जुटाने की आवश्यकता तो
थी ही, साथ एक अच्छे मौके की भी ज़रूरत थी जो उस दिन ही संभव
था। जनवरी का प्रारंभ हो रहा था। बस सर्दी ख़त्म हुई नहीं कि
पतझड़ शुरू और फिर से बोरियत के लंबे सफ़र की शुरुआत। गर्मी के
लंबे दिन काटे न कटें। लंबी ढाई महीने की छुट्टियाँ, ये लंबा
समय उसे हमेशा सिर पर लटकी तलवार-सा लगता और मन कुलबुलाने
लगता, कहीं बाहर जाकर अपने रुटिन से हटकर कुछ करने के लिए।
उसे याद है जब बच्चे छोटे
थे तब भी वह इन छुट्टियों का बेसब्री से इंतज़ार करती,
बिल्कुल बच्चों की ही तरह। वही नहीं, सागर सुषम और तनुष तक।
कितना मज़ा आता था, उन्हीं कुछ दिनो में वह सामान्य दिनचर्या
यानी घर की देखभाल, साफ़-सफ़ाई, बच्चों की माँगे पूरी करने
का काम, स्कूल तथा कॉलेज की तैयारी करवाने का काम, होमवर्क
परीक्षा के समय की तैयारी जाने किस-किस की कौन-सी व्यस्तता
से बाहर निकल पाती थी। योजना बन जाने पर वह जाने कितनी नई
लेकिन मज़ेदार व्यस्तताओं में जुट जाती। पहले बाज़ार, एक
लंबी फ़ेहरिस्त के साथ ताकि हिल स्टेशन जाने की सारी सामग्री
एकत्रित की जा सके और वह एक अच्छी गृहस्थिन के साथ एक अच्छी
माँ भी साबित हो सके। बच्चों की एक प्रशंसाभरी निगाह उसके
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। आरती के मन के काग़ज़ पर इस
तरह की बिताई छुट्टियों के अनेक नक्शे थे। उस समय खींची गई
तस्वीरें मात्र काग़ज़ के टुकड़े न थे अपितु उसके प्रिय
लम्हों की ढेर-सी यादें थीं, उनमें थी बहुत-सी खुशी, उजाले
का बुग्गा और था तरल बहता दरिया जो जब तब मन को गीला कर
देता।
आज भी आरती पिछले बीते महीनों की घिसी-पिटी दिनचर्या से भाग
निकलने की योजना बच्चों के सामने रखना चाह रही थी पर मन था
कि झिझक रहा था हालाँकि आज मौका अच्छा था। पिछले बीते तीन वर्ष उसके
गले में अटके रहने लगे थे। "पर बच्चे तो मेरे अपने ही हैं न,
मैंने ही पैदा किया हैं। मेरे दिए संस्कार हैं उनमें,
ज़रा-सी चोट खाते थे तो मुझसे लतर-सा चिपक जाते थे। मैं ही
तो उनका सुरक्षा कवच थी, उन से बात करने में झिझक कैसी।
आरती ने सोचा, हिम्मत जुटाई फिर झिझकते हुए बात शुरू की।
बात! बात भी कौन-सी, आने वाली गर्मी की हवा में फ़ैलते
सूखेपन की, झरते पत्तों की। यही बातें करती हुई वह चाय पीती
रही थी, बच्चे चाय पीते-पीते हूं-हां करते रहे। अशोक हमेशा
की तरह अख़बार में घुसे रहे थे।
चाय ख़त्म हो चुकी थी। दूसरे कप की तलब होने लगी थी। आरती
यों तो सवेरे-सवेरे चाय का दूसरा कप पीना नहीं चाहती थी पर
एक तो ठंड, दूसरे, बात शुरू करने के लिए गला तर करना चाह रही
थी। चाय का दूसरा कप शायद कुछ हिम्मत दे दे।
अजीब था पर सच यही था कि
आजकल उन्हे अपने बच्चों से बात करने के लिए ही हिम्मत जुटानी
पड़ती थी, ख़ासतौर पर उन बातों के लिए जिन्हें वह अपने तरीके
से मनवाना चाहती थी।
रसोई की ओर जाते हुए आरती मन ही मन अपनी विवशता पर उबलने लगी
थी। चाय का पानी उबलने तक तो उसके भीतर का उबाल पूरे जोश पर
था। बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद
वह उम्र में उनसे काफ़ी दूर निकल चुकी है। पिछले पचीस वर्ष
बहुत खुशनुमा चाहे न हों पर बुरे भी तो नहीं कहे जा सकते
हैं। वह एक सुघड़ पत्नी गृहिणी माँ बन कर जीती रही है, पर अब
पिछले तीन वर्ष से असंतोष गिलोय की लतर-सा उसके तन मन में
फ़ैलता जा रहा था।
'आख़िर बच्चे क्यों नहीं समझते। कुछ भी, कोई भी फ़ैसला करते
हुए मेरी पसंद नापसंद का ध्यान ही नहीं रखते। हमेशा मुझे,
मेरे नज़रिए को नज़रअंदाज़ क्यों कर देते हैं। अब वे छोटे तो
नहीं हैं, जब छोटे थे तब सोचती थी जब बड़े हो जाएँगे, समझ
बड़ी हो जाएगी, मानसिकता परिपक्व हो जाएगी तब समझ लेंगे। पर
कहाँ! ये तो उसी प्रकार कल्पना रही जैसे मैं सोचती रही कि
बच्चों के बड़े होने पर कुछ वक्त अपने लिए बच पाएगा, नहीं,
बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ, उनकी बढ़ती माँगो के साथ उसका
वक्त हमेशा रहट-सा चलता रहा। और वह एक अच्छी माँ की शर्तो पर
पूरी उतरने की कोशिश में हर पल जुटी रहती है, बनी रहती है एक
अच्छी माँ!'
चाय का पानी उबलने लगा था। उसमें दूध चाय की पत्ती, चीनी
घोलती हुई वह अपने मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को भी
उसमें मिलाती रही।
'क्या विडंबना है, बच्चे मुझमें एक अच्छी माँ खोजते हैं,
अशोक एक सुघड़ पत्नी और गृहिणी और मैं अपने लिए कुछ क्षण कभी
बच्चों से प्यार के कुछ बोल, कभी अशोक की एक निगाह जिसमें
मेरी पसंद अहमियत रखती हो, पर कहाँ।
चाय प्यालों में डाल कर ट्रे में रख आरती डाइनिंग टेबल की ओर
आ गईं। अपने प्याले को उठाया और घूँट-घूँट पीने लगी मानो चाय
चाय नहीं मन में आए कड़वे मीठे भाव पी रही हो। मन ही न किया
अत: किसी से नहीं पूछा। असल में मन पर ढेर-सी बदली घिरी थी।
अशोक अब तक चाय के साथ अख़बार पी चुके थे। वे मध्यम
व्यक्तित्व के इंसान थे जिनकी मानसिकता भी आम आदमी की थी।
सामान्य जीवन पद्धति, सामान्य आकांक्षाएँ, साधारण पहनावा,
सरल सीधी दिनचर्या यानि सब कुछ सीधा सामान्य। उन्हें कभी कुछ
सनसनीखेज़ करने की इच्छा न होती, न उन्होंने कोई इच्छा प्रकट
की न कोई सुझाव दिया। अशोक ने अख़बार रख दिया था। उन्हें
खाली व रिलेक्स देख कर ही वह बोली, "सुनिए! अशोक, जनवरी में
ही हमें गर्मी की छुट्टियों का प्रोग्राम तय कर लेना चाहिए
वरना बुकिंग वगैरह नहीं मिलेगी। आख़िरी वक्त पर भागदौड़ मच
जाएगी।" अशोक ने अपने बाइफोकल चश्में को साफ़ किया, कुछ सोचा
और बोले, "हूं! उं-उं! सोच लो, प्लान कर लो फिर देख लेंगे।"
अशोक का उत्तर हमेशा कुछ
ऐसा ही या यही होता। आरती का प्रश्न कैसा भी हो उत्तर में
वही ढीलापन। सालों साल बातचीत का यही स्तर था, कुछ भी तो न
बदला था। हालाँकि बदला तो था दोनों पति पत्नी के शरीर स्थूल
हो आए थे, चेहरे पर झुर्रिया पड़ गई थीं। चश्में के नंबर बदल
गए थे, वे बाइफोकल हो गए थे वगैरह-वगैरह। बच्चों से संबंध के
तंतु भी तो बदले थे, पहले बच्चे उनकी उँगली पकड़कर चलते थे।
अब अपने पैरों पर नहीं परों पर आज़ाद पंछी-सा उड़ने लगे थे।
आज तो यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि अब बच्चे उनके द्वारा
किए प्रश्नों का उत्तर देने में कतराते बल्कि बुरा भी मान
जाते। अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने फ़ैसले खुद करने का
अधिकार माँगते जिसके कारण घर में प्राय: तनाव हो जाता। अशोक
आरती की बनाई गई योजनाओं को चुपचाप तब तक मान लेते जब तक वे
उसकी दिनचर्या या उनकी मानसिकता के विरोध में न आतीं।
आज सुबह आरती की निगाह जब
अशोक पर पड़ी उसके मन में हमेशा की तरह उनका अनाकर्षक तथा
साधारण चेहरा खटका। 'कल नववर्ष की पार्टी पर ही तो मिले थे,
अशोक के बॉस। अशोक से पाँच वर्ष बड़े पर क्या स्मार्ट! कितना
यंग लगते हैं। चाल ढाल में तेज़ी और ताज़गी, माथे पर गिरती
बालों की लटें उन्हें कितना आकर्षक और यंग बना देती हैं।
सलीकेदार कपड़े पहने जब वह किसी प्रोजेक्ट पर बात करते हैं
तो उनके द्वारा इस्तेमाल वाक्यों पर तालियाँ बजाने को मन
करता।'
आरती न चाहते हुए भी मन ही मन अशोक की तुलना उसके बॉस से कर
लेती पर फिर मन ही मन जनमते 'गिल्ट' के भाव से दुखी भी होती।
अशोक बदल भी ख़ासा ही गया
था। उसकी आँखों का नीलापन जो शादी के समय उसका आकर्षण और
वैशिष्ट्य था अब पीला हो गया था। अब उसकी आँखे बुझी-बुझी-सी
रहने लगीं थी। वैसे वह नीलापन सुषम की आँखों में उतर आया था।
आरती अशोक की ओर सीधी निगाह से कभी न देखती। देखकर जो निराशा
जन्म लेती उससे वह डर जाती। यह सोच तो और भी उदासीन करती कि
यह व्यक्ति उसका पति है जिसके साथ वह जीवन के पचीस वर्ष बिता
चुकी है जो उसके तीन खूबसूरत बच्चों का पिता है। इतने वर्षो
बाद की यह सोच उसके सामने ढेर से प्रश्न लगाता पर उत्तर कहाँ
और कैसे मिलता।
वह प्राय: सोचती कि इस
व्यक्ति के साथ उसने इतने अंतरंग क्षण कैसे बिताए। अशोक साथ
होते पर एक दस्तक भी दिल पर न पड़ती, एक पत्ता भी न खड़कता,
दिल के तार से एक हल्की-सी धुन भी न निकलती, थाप पड़ती पर
आवाज़ न होती। फिर भी वह उसका पति है और आरती उसकी पत्नी। एक
अजीब सच यह भी था कि महफ़िलों में वे सफल दांपत्य जीवन की
मिसाल बनते।
अशोक का उत्तर आज भी वही था
जो हमेशा होता था अत: वह सुषम की ओर मुड़ी और बोली।
"हाँ सुषम तुम्हारा क्या ख़याल है। अच्छा हो अगर हम अभी से
सोच लें और प्लान बना लें नहीं तो आख़िरी वक्त पर अच्छी जगह
बुकिंग नहीं मिलेगी।"
सुषम संतरे का जूस पी रही
थी। इसी दिसंबर में उसने अठारह पूरे किए थे। अपनी फिगर को
लेकर बेहद चिंतित रहती थी। अत: सुबह सिर्फ़ जूस पीती थी या
फिर ब्लैक काफ़ी वह भी बिना चीनी के। अशोक और उसके बीच इस
तरह के खान पान पर मोटी बहस होती रहती। अख़बार और पत्रिकाओं
में छपे लेखों पर चर्चा होती, विचारों का आदान-प्रदान होता
रहता। यों सुषम मोटी बिल्कुल न थी पर उसका ख़याल था कि ज़रा
ढील देगी तो स्थिति कभी भी उसके हाथ से निकल सकती है।
माँ के प्रश्न पर उसने सिर
ऊपर उठाया, बोली, "हमेशा हम कौन-सी बढ़िया जगह जाते हैं।
कहीं भी चले जाएँ, रहेंगे तो घर के लोग ही जैसे यहाँ वैसे
वहाँ।" आरती चौंकी भी और सहमी भी। पिछले तीन वर्षो में जब से
बच्चे कॉलेज गए, इन हिल स्टेशनी कार्यक्रमों के लिए उनमें
अनख भाव जगता महसूसती रही है। पर इतनी लंबी बोरियत भरी
गर्मियों की छुटि्टयों को घर में बिताने की सोच ही उसे बहुत
डिप्रेस करती थी। अत: एक लंबी साँस लेकर फिर बोली, "कहाँ
बिट्टू। ये तो सही स्टेटमेंट न हुआ। हमेशा ही तुम लोगों की
सलाह से प्रोग्राम बनता रहा है।"
थोड़ा-सा आक्रोश भी उसकी आवाज़ में झलक आया था।
सागर सुषम से दो वर्ष बड़ा
है। दोनों में शायद ही किसी बात पर तालमेल होता हो। वह अंडे
की भुर्जी बना कर लाया जो वह हमेशा अपनी तरीके से बनाना पसंद
करता था। एक रुखी निगाह बहन पर डालते हुए बोला, "मम्मी सुषम
बहुत रूड हो गई है। बस इसकी आँखे नीली हैं और मुस्कान भली पर
भीतर-भीतर से कुछ और ही है।"
सागर सुषम पर रौब डालने का
कोई मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहता। वैसे भी वह दो साल बड़ा
था तिस पर लड़का, भला रौब क्यों और कैसे न डाले। सुषम दोनों
कारणों से रौब मानने को इनकार करती, परिणाम झगड़ा होता जो
बातचीत बंद होने पर ही ख़त्म होता। उस दिन भी जब सागर ने कहा
कि आप जानती नहीं हैं कि इस भोली सूरत के पीछे क्या छिपा है
तो वह चिढ़ गई। बिफरी आवाज़ में बोली, "तुमसे मतलब? तुम क्या
और क्यों जानना चाहते हो मेरे बारे में। मैं तुम से तो बात
नहीं कर रही।" वातावरण में चिढ़ांध भर गई।
'सचमुच आजकल सुषम बहुत बदल गई है। बहुत गुम, ज़रा-सी बात पर
चिढ़ जाने वाली हो गई है।' आरती ने सोचा तभी तरुष बोला, "मैं
जानता हूँ दीदी, सुबह ही तो देखा था, आप तकिए के नीचे कोई
काग़ज़ रख रहीं थीं।"
सुषम के बोलने के पहले ही सागर बोल उठा।
"ए भेदिये दूसरों के भेद चोरी छुपे पकड़ता है! ग़लत बात,
बच्चों को ऐसा नहीं करना चाहिए।"
तरुष की जैसी शक्ल बनी सभी हँस पड़े। वातावरण का तनाव मानो
हवा के सहारे कम हो गया।
आरती जानती है कि बच्चों का
परस्पर संबंध कितना अटूट और मधुर है। लड़ाई झगड़ा मान मनौवल
ये सब तो संबंधों के लिए गोंद का काम करते हैं। कितनी अच्छी
होती है ये उम्र और बच्चों के साथ बिताए ये लम्हें। पर
चिठ्ठी की बात पर सुषम के चेहरे पर लालिमा क्यों छा गई।
सोचती रही आरती और टेबल पर से प्याले हटाती रही। भैया के
टोकने पर तरुष सहम गया। वह आठवीं कक्षा का छात्र था। घर का
बेबी, सब का लाड़ला फिर भी डाँट उस बेचारे को ही पड़ जाती।
वह है तो छोटा पर है बड़ा ही चालू। सुषम दीदी से कुछ ज़्यादा
नाराज़ रहता है क्यों कि वे उस पर हमेशा बॉसिंग करती हैं। भला
वह घर का छोटा लाड़ला लड़का होकर क्यों सहे।
बात छुट्टियों के बनाए जाने
वाले कार्यक्रम से शुरू हुई थी। आरती ने स्थिति को सँभाला और
फिर से प्रोग्राम की रूपरेखा बना लेने की चर्चा की तो सागर
से न रहा गया, "मम्मा क्या ज़रूरी है कि हम हमेशा हिल स्टेशन
ही जाएँ। बड़ा बोरिंग लगता है, वही सुबह होटल मैं रहना ताश
खेल लेना शाम को मालिंग कर लेना। पता नहीं काफ़ी बोरिंग और
बासी लगने लगा है सब।"
"लेकिन प्रोग्राम तो सदा ही तुम लोगों की मर्ज़ी बना है, तुम
लोगों ने एंज्याय भी किया है। हमेशा खुशी ही ज़ाहिर की। यही
कहते रहे हो तुम लोग।"
अशोक नाश्ता ख़त्म कर के
निरपेक्ष भाव से उठकर चले गए। जाते-जाते अख़बार भी साथ ले
गए। अशोक की पीठ देखकर आरती को मानों वह पीठ न होकर कोई
दरवाज़ा हो जो किसी ने आरती के मुँह पर दे मारा हो, उसके
समस्त व्यक्तिव को नकारते हुए।
सुषम उठ कर कब किचन में चली गई थी पता ही न चला था। आरती
चौंकी जब उसे किचन से निकल कर कॉफी का कप हाथ में लिए आते
देखा। वह कॉफी लेकर आई और एक सर्द साँस लेकर ड्राइंगरूम में
आकर सोफे पर बैठ गई। आरती से न रहा गया। बोली, "ये लंबी साँस
क्यों सुषम?"
सुषम अभी तक सुलग रही थी। भभक उठी।
"लगता है यहाँ अब हर साँस के लिए प्रश्नों के बगूले उठेंगे
और मैं उसमें फँसे रहने को मज़बूर रहूँगी।"
आरती क्या कहे कितनी जख़्मी हुई कितनी लहूलुहान। आजकल अपने
ही बच्चे उसे तोड़ते रहते हैं। अशोक ने तो पति के रूप में न
उसे कभी जोड़ा न तोड़ा। वो तो ऐसे रहता रहा है मानों घर उसका
है ही नहीं, एक अतिथि है वह, गेस्ट हाउस में रहता या फिर एक
मुसाफ़िर भर, उसे उसकी सुविधाएँ मिलती रहें बस। आरती अपने ही
घर में पराई महसूसने लगी।
आख़िर नए साल की शुरुआत ऐसी हुई तो पता नहीं पूरा साल कैसा
बीतेगा। उसकी आँखें भर आई। मन में सोचा कि अब उसे इस संबंध
में कोई बात करनी ही न चाहिए।
आरती की सोच कभी न ख़त्म
होने वाला उलझा हुआ ऊन का गुच्छा था जिसे किसी ओर से भी
सुलझाने की कोशिश करो उलझता ही चला जाए, सिरा पकड़ में ही न
आए। जिसे वह सिरा समझती वह बीच निकलता तभी सागर की आवाज़ आई,
"मम्मा कल मैं राजेश के साथ होस्टल जाऊँगा, किताबें और नोट्स
लेने हैं।"
"सागर बेटा तुम इसी हफ़्ते में ये तीसरी बार होस्टल जा रहे
हो। ऐसे आने को घर आना कहते हो।"
सागर ने एक सर्द मुस्कान फेंकी और शब्दों को चबाते हुए बोला,
"मौम, यही तो सुषम कह रही है। हम कोई भी काम प्रश्नों के
चक्रव्यूह में फँसे बिना नहीं कर सकते।"
आरती मेज़ पोंछ रही थी,
उसका हाथ ही नहीं थम गया दिल भी रुक गया, साँस रुक गई।
भीतर क्रोध और असंतोष की एक लहर उठी जो पहले गालों पर झलकी
फिर झाड़न में जिससे वह कुर्सियाँ झाड़ रही थी। खुद को
सँभालते हुए बोली, "बेटा आपको क्या हो गया है। मेरा बात करना
भी गुनाह हो गया है। सोचो अगर मैं पूछना छोड़ दूँगी तो तुम
लेफ्टआउट-सा नहीं महसूस करोगे। यही तो छोटी-छोटी बातें हैं
जो रिश्तों के लिए क्विक फिक्स का काम करती है बेटा।"
मम्मी के चेहरे पर आए बेचारगी वाले भाव को देखकर पिघल आया।
उसने माँ के गले में हाथ डाला, थपथपाया और बोला,"ओह मम्मा
इतना हर्ट न दिखो। आप इतनी अच्छी मम्मा हैं। देखिए कल की
नववर्ष की पार्टी का कितना अच्छा प्रबंध किया था आपने। असल
में मम्मा अब हम बड़े हो जाना चाहते हैं, ज़्यादा नहीं
थोड़ा-सा। आज़ादी के कुछ लम्हे, कुछ छोटे मोटे फैसलों का
अधिकार, बड़े-बड़े नहीं ज़िंदगी के नहीं। बस!
नन्हे-मुन्ने-से। प्लीज़ मम्मी।"
आरती का दिल उमड़ आया। उसने
प्यार से सागर को थपथपाया। सागर हीरा बेटा है। छ: फुट लंबाई
आकर्षक चेहरे मोहरे वाला, आँखे, उसकी आँखों में मैगनेट लगा
था। जब उसने आरती की ममता को यों झकझोर दिया तो वह क्या
कहती।
"ठीक है चले जाना पर छुट्टियों का प्रोग्राम तो बना लें,
कहाँ जाना है। ये भर सोच लें ताकि बुकिंग वगैरह करवाई जा
सके।" सोफे पर पसरते हुए आरती ने कहा। वह सागर की ममता में
अभी तक डूबी थी।
कुछ सोचता हुआ सागर बोला, "नहीं मौम। इस बार मैं रोमेश के
साथ शिमला जाना चाहता हूँ। वहाँ हमारे कॉलेज का रेस्ट हाउस
है, ठहरना मुफ़्त, खाने पीने का खर्चाभर बस। वहाँ हम
ट्रेकिंग भी करेंगे, बड़ा मज़ा आएगा।"
"पर ट्रेकिंग तो तुम, हम ऐसी जगह चुन लेते हैं जहाँ तुम
कहो।" आरती ने सुषम की ओर देखा। शायद बेटी ही उसके मन को समझ
पाए। झिझकते हुए बोली, "सुषम तुम पिछली बार माउंट आबू या
डलहौजी, कहाँ जाने को कह रहीं थीं, वहीं का प्रोग्राम बना
लेते हैं।"
सुषम अभी तक अख़बार में घुसी थी। माँ के प्रश्न पर उसने सिर
उपर उठाया। उसके चेहरे पर अनोखा भाव था जो उसने छिपाया भी
नहीं। थोड़ा-सा सोचा फिर निर्णयात्मक स्वर में बोली, "मम्मा
इस बार मैं कहीं नहीं जाना चाहती। मैं रूपाली के साथ ड्रेस
डिज़ाइनिंग का काम करूँगी।"
" कौन रूपाली?"
"वही जो पिछली बार मानसी के घर मिली थी, उसके भतीजे के
जन्मदिन पर। उसका भाई सिद्धार्थ भी साथ था, उसी ने रेडिमेड
ड्रेसेज़ का बुटिक खोला है न। मैं वहीं उसके साथ काम करूँगीं।"
"पहले तो तुमने कभी ज़िक्र नहीं किया।" कहते हुए आरती ने
होंठ काट लिए।
सोचा फिर वही सुनने को मिलेगा एक लंबा चौड़ा भाषण। मैंने तो
इनसे मित्रता का संबंध रखा था। हमेशा इनकी पसंद नापसंद का
ध्यान रखा। कब सारे तंतु टूट गए पता ही न चला।
एक अजब खालीपन और अकेलापन
भर आया आरती के मन में। मुँह कसैला हो गया। नववर्ष की सारी
खुशी पर पानी पड़ गया। सागर की मीठी बातों से लड़ियाता मन
काली बदली ने ढाँप दिया। उखड़े मन से वह उठी और रसोई घर में
चली आई। करती भी क्या। रसोई के कामों में खुद को फ़ना कर
देना, मनोचिकित्सक थी जो वह जब तब खुद पर आज़मा लेती थी।
तरुष सबसे छोटा था, अभी तक माँ की नाल से जुड़ा था। सुबह से
सागर और सुषम के व्यवहार के पीछे छिपे रुखेपन को महसूस कर
रहा था। यही नहीं वह छुट्टियों के हिल स्टेशन के ट्रिप में
अभी तक मज़ा लेता था। जाने के मौके ढूँढता था। बहुत बहुत
जाना चाहता था।
वह मम्मी के पीछे-पीछे रसोई तक आ गया। मम्मी की पीठ से
चिपकते हुए बोला, "मम्मा इस बार गोवा चलें। वहाँ सागर किनारे
घूमेंगे अबकी बार किसी बड़े होटल में ठहरेंगे, शाही ठाट-बाट
से, ठीक है न मम्मा।"
आरती का मन तरुष के लाड़ से
सराबोर हो गया। बच्चों के लिए ढेर-सा प्यार उमड़ कर बहा
जिसमें सारा गुस्सा बह गया। भभकती आग मानो शांत हो गई।
नकारात्मक सोच के तार झनझना कर टूट गए।
सोचा, "ये बढ़ती उम्र के बच्चे हैं। बढ़ती उम्र बदलती समझ,
परिवेश और परिस्थितियों की ढेर-सी उलझनों में उलझे ये लोग
जाने कितना बोझा ढो रहे हैं। शायद इसीलिए खुद में खोए रहते
हैं और अपने बारे में ही सोच पाते हैं।"
नाश्ते के बर्तनों को सिंक में डालते हुए सोचती रही आरती और
शांत होने की कोशिश करती रही।
"एक मैं हूँ जो उनसे बुजुर्ग बनने की उम्मीद करती हूँ।"
"ओ.के. बेटा। पापा से बात करते हैं।" कह कर उसने तरुष की पीठ
थपथपा दी।
आरती ने सोचा वह शांत हो गई है, पर क्या सचमुच।
चिड़िया के बच्चों से
गुटर्गूं करते आरती के कोटर के ये बच्चे भी बड़े होते ही
अपने बारे मे सोचते-सोचते आकाश में उड़
जाएँगे ही। कब तक
करेगी वह उस वक्त का इंतज़ार जब माँ को ममता से अलग कर एक
अन्य प्राणी की तरह देख पाएँगे। वह वक्त आएगा क्या कभी।
"क्यों तिड़कता रहता है मन आग की लपटों के प्रभाव से तिड़कते
काँच-सा। नया साल मेरे लिए कुछ नया क्यों नहीं लाता। क्या
मुझे पुराने के साथ भी कट जाना चाहिए।
क्या मेरा मन उस बोन चाइना की कोनाझरी केतली-सा तड़कता रहेगा
जो अभी तक इसलिए सँभाल कर रखी है कि माँ ने दी थी।
सोचती रही आरती। तर्क-वितर्को का कोई अंत भी तो नहीं होता। |