नववर्ष आते ही हनुमान मंदिरों के बाहर भक्तों की
भीड़ उमड़ पड़ी। यों तो हनुमान जी को विशेष स्थान प्राप्त है, प्रभु भक्तों के हृदय
में, कारनामे भी तो इतने रोमांचक हैं प्रभु के। अब देखें तो हमसे एक लाल सेब हजम
नहीं होता और प्रभु पूरा का पूरा लाल सूर्य सहजता से डकार गए थे। गर्मागर्म धधकते
सूर्य को प्रभू ने लॉलीपाप की तरह निगला था और हम जेब में आई थोड़ी-सी गर्मी से ही
मदहोश हो जाते हैं।
हम अपने बच्चों के स्कूल बैग उठाने में ही परेशान
हो जाते हैं और प्रभु पूरा का पूरा पर्वत लेकर उड़ गए थे। तो इतने रोमांचक कारनामों
के बाद तो हनुमान जी ने कुछ ऐसा प्रभाव जमाया कि बस छा गए। हनुमान जी के हृदय में
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और भक्तों के हृदय में राम भक्त हनुमान।
अब हनुमान मंदिरों में भक्तों की अचानक हुई
बढ़ोत्तरी के बारे में छानबीन की तो पता चला कि ''वर्ष 2005'' का पहला दिन
शनिवार है और लोग चाहते हैं कि शनि का कोई बुरा प्रभाव उन्हें पूरी तरह से बर्बाद न
कर दें, पहले ही काफ़ी हद तक वे हमारी सरकार की लोक-कल्याणकारी योजनाओं में बर्बाद
हो चुके हैं। मृत्यु के देवता यम एवं हमारे शुभचिंतक नेताओं के बाद शनिदेव ही ऐसे
हैं जिनसे सभी डरते हैं। अब सुना है कि हनुमान जी ने शनिदेव को एक बार युद्ध में
पराजित किया था तो शनिदेव ने कहा था कि हनुमान जी के भक्त उनके क्रोध से बचे
रहेंगे।
''सन 2000'' में भी वर्ष का प्रथम दिन शनिवार था
और मैं जा नहीं पाया था हनुमान जी से मिलने। परिणाम यह कि मैं शनिदेव के प्रकोप से
अछूता न रह सका और मेरी शादी हो गई निवेदिता से। निवेदिता के आते ही जीवन में
बहार-सी आ गई एक दो महीने के लिए। बहार के बाद पतझड़ आना तो प्रकृति का नियम है तो
मैं भी अपवाद न रहा और ऐसा ही पतझड़ आया मेरे जीवन में जो जारी है अब तक। ''2005''
से आस लगाए हूँ कि शायद मौसम में कुछ परिवर्तन हो। विगत वर्षों में मौसम जैसा भी
रहा ठीक है, ''2005'' में मैं कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता।
महात्मा गांधी जी ने कहा था, "पवित्र हृदय से
निकली प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती।"
तो मैंने भी नज़दीक के हनुमान मंदिर में मत्था टेका और प्रभु को बेसन का लड्डू भी
खिलाया शनिदेव के क्रोध से बचाने की गुहार के साथ। हम आभारी हैं आधुनिक नेताओं के।
उनसे प्रेरणा लेकर हम भी समझदार हो गए हैं और अब हम भी अपनी ज़रूरत के समय कहीं
जाने में नहीं झिझकते।
मंदिर जाने के पीछे पते की बात यह है कि ग्यारह
रुपए के लड्डू खिलाकर पूरा साल सही गुज़रने की उम्मीद है तो सौदा फ़ायदे का है। फिर
ग्यारह रुपए में तो मिनी पिज्ज़ा और बर्गर भी नहीं आते। तो प्रभु को लड्डू खिलाकर
शनिदेव की पहुँच से स्वयं को दूर कर प्रत्येक वर्ष की तरह इस बार भी व्यस्त हो गया
उपहार बटोरने में। नववर्ष आते ही मैं एक बड़ा झोला लेकर निकलता हूँ बाज़ार की ओर।
दुकानदार सोचते हैं बड़ा झोला लेकर आए हैं, जमकर
ख़रीददारी करेंगे। मैं कुछ सामान निकालवाकर देखता हूँ, फिर हर दुकान पर वही बात,
"बाद में ले जाएँगे" और मुस्कुराते हुए पूछता हूँ नववर्ष में उपहार क्या है भाई।
एक दुकान पर उपहार मिला तो ठीक नहीं तो महान लेखक
शेक्सपियर की बात याद करता हूँ "जो लोग सचमुच बुद्धिमान होते हैं वो असफलता से नहीं
घबराते" और निकल पड़ता हूँ अगली दुकान की ओर।
बाज़ार से घर लौटते समय खाली झोले में प्राण डाल
देते हैं नववर्ष के अवसर पर बटोरे गए ढेरों उपहार। मेरे बाद बारी आती है निवेदिता
की जो कि दूसरा झोला लेकर निकलती है अपने पति का अनुसरण करने। अब यही कुछ अवसर हैं
जहाँ वह मेरा अनुसरण करती हैं, नहीं तो सच्चाई से भला कौन परिचित नहीं। तो इस
प्रकार घर में आ जाते हैं ढेरों उपहार।
कई कैलेंडर, कई डायरियाँ, कई पेन और कई झोले।
इन्हीं झोलों में तो ''वर्ष 2006'' के आगमन पर उपहार बटोरूँगा। डायरियाँ और पेन
इतने हो जाते हैं कि पूरे साल अक्षत (मेरा सपूत) के लिए रफ कापी और पेन नहीं
ख़रीदने पड़ते।
नए साल का कैलेंडर मिलते ही सबसे पहले टूट पड़ता
हूँ कैलेंडर में लाल निशान ढूँढ़ने, लाल निशान छुट्टियों के। बड़ी उम्मीद से देखता
हूँ कि कहीं कोई छुट्टी शनिवार, इतवार में पड़कर ख़राब तो नहीं हुई है।
उपहार बटोरने के और छुट्टियाँ टटोलने के बाद अगला
मिशन होता है, अक्षत को चिड़ियाघर घुमाने का क्योंकि जनवरी के प्रथम सप्ताह में
चिड़ियाघर में टिकट नहीं लगता, और मध्यमवर्गी परिवारों में मुफ़्तखोरी का प्रचलन तो
है ही।
चाहे कोई वर्ग हो या विभाग, नया साहब आते ही सभी
नई योजनाएँ बनाना शुरू कर देते हैं। सुना है कि रेल विभाग नए वर्ष में वज़न के
हिसाब से टिकट लगाने जा रहा है। कारण बता रहे हैं कि जो जितना अमीर होता जाता है
उतना ही मोटा भी होता जाता है।
तो भइया जो जितना भारी,
उतने पैसे देने की करे तैयारी।
योजनाएँ उत्साह में आकर बहुत लोग बनाते हैं और
बड़ी संख्या में लोग इन योजनाओं के क्रियान्वयन में असफल रहते हैं। मैं भी जब छोटा
था तब से योजनाएँ बनाता आ रहा हूँ। कभी पढ़ाई में टाइम टेबल, तो कभी कसरत करने की
तो कभी माता पिता की बातें मानने की योजना और कभी तोंद कम करने की योजना।
लेकिन हर बार योजनाएँ वैसे ही धराशायी होकर गिरती
हैं जैसे अंबानी बंधुओं में झगड़े के कारण रिलायन्स के शेयर। अब कुछ वर्ष पहले एक
योजना बनाई जिसका पालन लगातार पिछले कई वर्षों से सफलता से कर रहा हूँ और वो योजना
है नए साल में योजनाएँ न बनाने की योजना।
योजनाएँ चाहें जितनी बनाईं जाएँ दुष्प्रवृत्तियाँ
जो आ गई हैं वो आसानी से छूटेंगी नहीं और कलियुग में सत्प्रवृत्तियों के साथ जीने
का अर्थ है, 'आ बैल मुझे मार' को चरितार्थ करना, तो बस नए साल में दुष्प्रवृत्तियों
के साथ जीने की आदत पड़ जाए और हमारा मन और आत्मा इसमें अड़चन न डालें। विगत वर्षों
में तो मैं जब भी कुछ ऐसा करता जो समाज में जीने के लिए ज़रूरी है तो मेरा मन
विद्रोह करने की कोशिश करता। तो बस यही एक प्रार्थना है कि मेरे मन को सद्बुद्धि
प्राप्त हो और वह मुझे वह सब करने से न रोके जिसके बिना समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त
नहीं की जा सकती।
भोले मन मेरे, सुन मेरा कहना,
है शराफ़त के साथ मुश्किल खुश रहना।
और हाँ नववर्ष के आगमन पर मन में एक बात बार-बार
आती है कि विदेशी ताकतें हमें परास्त न कर सकें, अपने ही लोगों से तो हारने की
आदत-सी पड़ गई है। ''वर्ष 2005'' में एक बात बहुत बढ़िया है कि खेलों में हमें
शर्मसार नहीं होना पड़ेगा, अब यह गल़तफ़हमी कदापि न पालें कि हमारे खिलाड़ी कमर
कसकर तैयार हैं। भाई ये इसलिए कि ''2005'' में न तो ओलेंपिक है न ही विश्वकप, तो
केवल हमें ही पता रहेगा कि खेलों में हम कितने पानी में हैं और यह बात जगजाहिर होने
से बची रहेगी।
खेलों की बात भले ही जगजाहिर होने से बची रहें, एक
बात तो जगजाहिर है कि हम आधुनिकता की चकाचौंध से अपने जीवन को प्रकाशित करना चाहते
हैं। मैंने कई पोस्टर देखे कि डांस पार्टी है रात नौ बजे से, मज़ा लीजिए आकर, डांस
करिए महज़ ''1000 रुपए'' में, और फिर रात का भोजन भी तो मुफ़्त है। तो भइया
आधुनिकता यह कि खुद नाचो और खुद ही पैसा भी दो।
बाप बड़ा न भइया,
नाच के गवाँ दो,
मेहनत से मिला रुपइया।
कोई नाचकर तो कोई किसी और तरीके से, लोग बेतहाशा
खुशी मनाते हैं नववर्ष के आगमन पर जनवरी के प्रथम सप्ताह में। सब एक दूसरे को
शुभकामनाएँ देते हैं। देखा जाए तो सूचना क्रांति से चाहें जितने एम. एम. एस. कांड
हों और चाहें जितना तहलका मचे, एक फ़ायदा तो है कि आप अपने परिचितों को मुफ़्त में
ई-कार्ड भेजकर शुभकामनाएँ दे सकते हैं।
तो ढ़ेरों शुभकामनाएँ, असीमित खुशियाँ। संत
तुकाराम ने कहा था कि सुख के क्षण छोटे और सुख की घड़ियाँ लंबी प्रतीत होती हैं। सच
है वर्ष का प्रथम सप्ताह तो मज़े लेते हुए तेज़ी से निकल जाता है और बाकी के दिन
काटे नहीं कटते। फिर भी खुशी तो मनानी ही है, स्वागत तो करना ही है नववर्ष का इस आस
के साथ कि शायद कुछ चमत्कार हो और अंधकार में डूबते समाज को नववर्ष में नई दिशा मिल
सके। खुशियाँ मनाने के कई तरीके- नए साल का मेला लगा था और मेले में लगा था एक
स्टाल। स्टाल पर केवल ''20 रुपए'' का टिकट था और अंदर जाकर आप जितना चाहें हँस सकते
हैं, बाहर बोर्ड लगा था, "हँसिए अनलिमिटेड", अब स्टाल में अंदर जाने की शर्त यह कि
पति और पत्नी एक साथ अंदर नहीं जा सकते स्टाल में।
तो बस अब आप भी तैयार हो जाइए ऐसे ही किसी स्टाल
में जाकर हँसते, खिलखिलाते, मुस्कुराते हुए नववर्ष का स्वागत करिए।
करें नववर्ष का अभिनंदन,
लेकर निश्छल और हर्षित मन,
भूलें लड़ाई, झगड़ा, कटु बात,
नया साल, नई शुरुआत।
लेख लिखने में पता भी न चला कि समय कैसे निकल गया
और नया साल आ गया और माँ की आवाज़ भी, बेटा नीरज कम से कम आज तो नहा लो, नया साल
है।
24 जनवरी 2005
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