बौद्ध धर्मावलंबियों का
नव वर्ष - लोसर
- मुक्ता
लोसर तिब्बत के बौद्ध
अवलंबियों का प्रमुख पर्व है लेकिन इसको मनाने वाले
अरुणाचल प्रदेश से नेपाल होते हुए उत्तराखंड, हिमाचल
प्रदेश और जम्मू कश्मीर की उत्तरी सीमाओं तक फैले हुए
हैं। संक्षेप में कहें तो यह भारत की उत्तरी सीमा पर
उत्साह के साथ मनाया जाने वाला पर्व हैं। हालाँकि यह १
जनवरी को नहीं मनाया जाता बौद्ध संवत के अनुसार वर्ष
के पहले माह की पहली तिथि को मनाया जाता है, जो ईस्वी
कैलेंडर के अनुसार लगभग फरवरी के महीने के मध्य में
पड़ती है। तिब्बती कैलेंडर के अनुसार भी यह वर्ष के
पहले महीने का पहला दिन होता है। नेपाल में इस पर्व की
मन्यता मुख्य रूप से बौद्धों में है। इसके अतिरिक्त
विश्व में जहाँ कहीं भी बौद्ध लोग बसे हुए हैं यह पर्व
मनाया जाता है। हिमालय की तराई में रहने वाली अनेक
जनजातियाँ भी इसे धूमधाम से मनाती हैं। लोसर का अर्थ
अनेक उत्तरीय बोलियों में नया साल होता है- लो
यानि—वर्ष, सर—नया जो मिलकर बनता है नव वर्ष।
हिमाचल प्रदेश में-
जिला किन्नौर के ऊपरी क्षेत्र रोपा घाटी में नव वर्ष
का लोसर मेला हर वर्ष शकसंवत के पौष माह के पहले दिन
से शुरू होता है, जो कई दिनों तक चलता है। ग्रामवासी
इस मेले की तैयारी कई दिन पूर्व से ही करते हैं। खास
कर भोटी (स्थानीय जनजाति) इस मेले को लेकर खासे उत्सुक
रहते है। वे लोग इस दिन प्रात: उठते हैं एक-दूसरे को
भेंटते हैं, किन्नौरी सूखे मेवे चिलगोजा, बादाम से बनी
माला एक-दूसरे के गले मे पहनाकर नव वर्ष की बधाई लोसमा
टाशी (नव वर्ष शुभ हो) कह कर देते हैं। खास बात यह भी
है कि इस दिन जो भी घर का सदस्य बाहर रहता हो या घर से
बाहर गया हो, उसका घर में आना जरूरी है नहीं तो यह इस
वर्ष का महत्व नहीं रहता है। नव वर्ष के अवसर पर सभी
को नए वस्त्र पहनना अनिवार्य है वह भी किन्नौरी
वेशभूषा न कि आधुनिक परिधान।
देर रात में शुरू होने वाले इस मेले में जाड़ भोटिया
लोग अपने घरों में दिये जलाकर नये साल का स्वागत करते
हैं। बौद्ध पंचांग के अनुसार बसंत के आगमन पर कृष्ण
पक्ष की अमावस्या को प्रारम्भ हुये लोसर मेले के पहले
दिन को स्थानीय नागरिक दीपावली के रूप मे मनाते हैं।
अपने घरों में मोमबत्ती तथा दीपक जलाते हैं और फिर
अपने घरों से मशाल जलाकर एक जगह पर एकत्रित होकर नये
साल का स्वागत करते हैं। इसके बाद इष्ट देव की पूजा
अर्चना कर एक दूसरे को नये साल की शुभकामनाएँ दी जाती
हैं तथा अपने मेहमानों की आवभगत की जाती हैं। इसके बाद
वाले दिन आटे की होली खेली जाती है।
पूह क्षेत्र में लोसर- बौद्ध अनुयायियों नव वर्ष का
त्योहार है। दिसंबर मास के अंत में मनाए जाने वाले इस
त्योहार को लामा लोग ही मानते हैं। इसमें गृह देवता के
पास दीपक जलाया जाता है, आटे की कई प्रतिमाएँ बनाई
जाती हैं। लोग दोपहर के पहले घर से नहीं निकलते। लामा
और जोमो अर्थात भिक्षुणी दोनों मेले में नाचते हैं। इस
दिन प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि वह शुभ शकुन
देखे। इसलिए लोग उसी व्यक्ति, जानवर व पक्षी को देखने
का प्रयास करता है, जिसके साथ शुभ जुड़ा हो।
अरुणाचल में-
अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के मोनपा ( जो कि
अरुणाचल प्रदेश के मुख्य आदिवासियों में से एक है ) का
सालाना उत्सव है। मोनपा लोग लोसर की तैयारियाँ दिसंबर
से ही शुरू कर देते है जैसे घर की साफ़ -सफाई करवाते
है, नए कपडे खरीदे जाते है, खाने पीने का सामान इकठ्ठा
किया जाता है, तरह-तरह के बिस्कुट और मीठी मठरी
अलग-अलग आकार मे बनाई जाती है जो खाने मे बड़ी
स्वादिष्ट होती है। ये पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता
है। पहले दिन लोग अपने घरवालों के साथ ही इसे मानते है
और घर मे ही खाते पीते और विभिन्न तरह के खेल खेलते
है। दूसरे दिन लोग एक-दूसरे के घर जाते है और नए साल
की बधाई देते है और तीसरे दिन प्रार्थना के झंडे लगाए
जाते है।
ईटानगर
के थप्टेन ग्यात्सेलिंग मठ में यह उत्सव धूमधाम से
मनाया जाता है। सबसे पहले मठ के बाहर भगवान बुद्ध की
प्रतिमा को एक पेड़ के नीचे स्थापित किया जाता है और
उसके सामने सामने दिया जलाया जाता है। उसके बाद
प्रार्थना झंडों को बाँधा जाता है। जिस समय इन झंडों
को ऊपर किया जाता है उस समय आटे को हाथ मे लेकर जोर
जोर से बोलते है -- लहा सो लो, की की सो सो लहा ग्यल
लो (अर्थात् भगवान की जीत हो) और आटे को आसमान की तरफ
उछालते है। इसके बाद नृत्य संगीत का कार्यक्रम होता
है। इनका संगीत बहुत ही मधुर होता है और नृत्य की शैली
अत्यंत मधुर और मंद सी होती है। नर्तक जो टोपी पहनते
है वह याक के बालों से बनाई जाती है और ये मोनपा
जनजाति की बहुत ही पारंपरिक टोपी होती है। तवांग मे
स्त्री और पुरुष दोनों ही इस टोपी को पहनते है। नृत्य
के कार्यक्रम के बीच मे ही बिस्कुट जिन्हें खाप्से
कहते है और चावल से बनी बीयर परोसी जाती है, जिसे
च्यांग कहते हैं। और इसके बाद मठ में ही दोपहर का भोजन
भी होता है जिसमे मटर पनीर और चावल के साथ-साथ नूडल
(चाऊ मीन और फ्राइड राईस) और परंपरिक रोटी जिसे मैदे
से बनाया जाता है, मोमो, मिली जुली सब्जियाँ जिसे कुछ
अलग तरह के चीज से बनाया जाता है तथा मिठाइयाँ होती
हैं।
उत्तराखंड में-
उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय इलाको में रहने वाले
आदिवासी होली, दिवाली और दशहरे का मिला जुला त्योहार
लोसर मनाकर अपनी परम्पराओं को जीवित रखे हुए हैं। यह
भारत और तिब्बत के बीच सदियों से चले आ रहे सम्बन्धों
को भी प्रगाढ़ बनाता है। इस प्रांत के डुण्डा ब्लाक
में भूटिया जनजाति के लोग तीन दिन तक इस त्योहार की
मस्ती में डूबे रहते हैं। क्या बच्चा और क्या बूढ़ा
महिला हो या पुरुष सभी एक दूसरे के साथ होली खेलते
हैं, मंदिर में दीप जलाकर दशहरा और दिवाली मनाते हैं।
ये लोग गुलाल से होली नहीं खेलते बल्कि एक दूसरे पर
रंग की तरह सूखा आटा लगाकर खुशी प्रकट करते हैं।
भूटियो के साथ ही तिब्बती भी भगवान बुद्ध की पूजा
अर्चना कर इस त्योहार में भाग लेते हैं। बौद्ध मंदिरों
में बड़े बड़े रंगबिरंगे झंडे लगाए जाते हैं और
त्योहार की मिठाई बाँटी जाती है। देर रात तक लोग
नाचगाने में व्यस्त रहते हैं।
नेपाल में-
नेपाल में बौद्धों के जोश और उत्साह का एक बहुत से इस
त्योहार मनाते हैं। लोग अपने परिवार और दोस्तों के
समारोह में शामिल होने के लिए जाते हैं। जो लोग बौद्ध
नहीं हैं वे भी अपने बौद्ध मित्रों के इस उत्सव में
शामिल होते हैं। मंदिरों और स्तूपों में पारंपरिक
नृत्य और गायन चलता रहता है। काठमांडू के बौद्धनाथ
स्तूप पूजा के लिये आने वाले परिवारों द्वारा जलाई गई
मोमबत्तियों की रोशनी और झंडियाँ सारे परिविश को एक
रंगीन स्वर्गिक दृश्य में बदल देती हैं। लाल वस्त्र
धारण किये हुए हजारों बौद्ध भिक्षुओं की उपस्थिति इस
स्तूप भी लोसर उत्सव में अद्भुत बना देती है।
पारंपरिक कपड़ों में सजी नर्तकियाँ अपनी तेज चाल से
साथ लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं और गाए जाने वाले
गीत भावपूर्ण शब्दों से लोगों के मन को बाँध लेते हैं।
सभी लोग अपने मित्रों और परिवार के साथ इन उत्सवों में
शामिल होते हैं। लो शोमा टाशी के साथ यह उत्सव पूरा
होता है और सब अपने अपने घर लौटते हैं। लो शोमा टाशी
का अर्थ है नव वर्ष मंगलमय रहे- (लो-नया, शोमा- संवत,
टाशी- समृद्धिशाली)। नेपाल तथा सीमा की अनेक भाषाओं
में स को श कहने की परंपरा है जिसके कारण सामा (संवत)
को शामा या शोमा (बांग्ला के प्रभाव से) उच्चारित करते
हैं। इसी प्रकार टाशी या टासी दोनो प्रकार के रूप इस
वाक्य में प्रयुक्त होते हैं।
लद्दाख में-
लद्दाख
में लोसर मनाने की सदियों पुरानी परंपरा मौजूदा
सामुदायिक बंधन को मजबूत बनाने और हिमालय क्षेत्र में
बसे लद्दाख वासियों के जीवन में खुशियाँ ले आती है।
लोसर उनके लिये एक समुदाय आधारित सामाजिक– धार्मिक
त्यौहार है जो लद्दाख में रहने वाले बौद्धों द्वारा हर
साल १९ मठों में १८ मठवासी त्यौहारों के रूप में मनाया
जाता है। लद्दाख में लोसर समारोह फासपुन परिवार के एक
समूह के देवी एवं देवताओं की पूजा के साथ शुरू होता
है। समारोह के दौरान लोग शुभकामनाएँ एवं बधाई का आदान–
प्रदान करते हैं। लोसर की पूर्व संध्या पर परिवार के
पूर्वजों को स्वादिष्ट भोजन परोस कर एवं कब्रिस्तान
में पारंपरिक दीप जलाकर याद किया जाता है। समारोह के
दौरान लरदाक प्रार्थना करते हैं और तीन लामा जोगियों
एवं दादा– दादी की परंपरागत भूमिका निभाने वाले
व्यक्तियों के शुद्धिकरण का अनुष्ठान भी करते है।
लारदक इस भव्य समारोह के नर्तकों– कारकोस के प्रमुख
होते हैं। गाँव के ज्योतिषी द्वारा निर्धारित समय सीमा
से पहले कारकोस को अपना नृत्य ३६० बार कर लेना होता
है। कैलाश मानसरोवर के तीर्थ यात्रियों और नए साल के
शुभचिंतकों के रूप में माने जाने वाले लामा जोगी गाँव
के हर एक घर में जाकर समृद्धि का बधाई देते हैं। बच्चे
और युवा जानवरों की खाल से बने जैकेट पहन एवं अपने
चेहरे को रंग–बिरंगे मुखौटों में छुपा कर इस भव्य
समारोह में शामिल होते हैं। ये घर– घर जाकर नए साल में
समृद्धि की शुभ कामनाएँ देते हैं।
एक अनोखी परंपरा-
लद्दाख के नवयुवकों में ‘लोसर’ की सतरंगी तैयारियाँ
अपने यौवन पर होती है। ग्रामीण इलाकों के शरारती किशोर
अपनी अलग खिचड़ी पका रहे होते हैं। वे घर-घर से सूखी
लकड़ी और खाद्य-सामग्री माँगते हैं। लकड़ी और रोटियों को
एक जगह एकत्रित करते हैं। आग जलाते हैं। चुनी हुई
गालियाँ निकालते और चीखते-चिल्लाते हैं। और जोर-शोर से
गाली देते हैं, ‘जो व्यक्ति हमारे इस नववर्षीय हंगामों
में हिस्सा नहीं लेगा, वह अपनी...!’ आगे ऐसी-ऐसी
गालियों का प्रयोग होता है, कि संभ्रांत व्यक्ति कानों
में अंगुलियाँ ठूँस लेते हैं। सभी लोग यथासंभव,
किशोरों के बचकाना कार्यक्रम में शामिल होने लगते हैं।
इतना ही नहीं, ‘लोसर’ नववर्ष समारोह से ठीक पाँच दिन
पूर्व, लद्दाखी साजिंदों और तबला-वादकों की मौजूदगी
में, मुँहजोर किशोर संगीतमय सवाल-जवाब का, एक
गाली-गलौज लदा प्रोग्राम पेश करते हैं। लद्दाखी
अभिभावक भी इन किशोरों को लगाम देने में प्रायः नाकाम
रहते हैं। उनके गीत संगीत प्राय: इस प्रकार के होते
हैं- अनेक घरों की ओर इशारा करके ‘नवीं मंजिल पर रहने
वाली सुंदरी के साथ मनुहार करने के लिए मैं क्या करूँ
?’ ‘‘सीढ़ी लगा लो और प्रेमिका को अंक में भर लो !’’
दूसरा किशोर सुर-ताल में गाता है। ‘‘सुंदरी के घर
कुत्ता हो, तो क्या करें ?’’ गायक पूछता है। ‘‘कुत्ते
को मांस के टुकड़े खिला दो। प्रेमिका को बाहुपाश में कस
लो !’’ ‘‘नवयुवती के घर के दरवाजे ‘चीं-चीं’ की अप्रिय
आवाजें करने वाले हों, तो नवयुवती को कैसे पायें ?’’
‘‘दरवाजों को कडुवे तेल से सींच दो और नवयुवती की कोमल
कलाई थाम लो !’’
इस प्रकार पाँच दिनों तक यह उत्तेजक और गर्मागर्म समां
बँधा रहता है। असंख्य लोग मकानों के दरवाजे और
खिड़कियाँ बंद कर लेते हैं। किशोर इन गालियों से, लोगों
को पवित्र और सच्चरित्र रहने की ‘ताकीद’ करते हैं।
‘लोसर’ वाले पाँचवें दिन लद्दाखी कामधेनु गाय ‘याक’ के
आकार का, एक बड़ा पुतला बनाकर जलाते हैं। यह बुराई पर
अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। नववर्ष में
कर्मठ, संयत तथा एकजुट होकर रहने की सामूहिक शपथ ली
जाती है। |