नव वर्ष नव संकल्प
-नरेश भारतीय
एक और वर्ष विदा हो गया। नए वर्ष का उदय हो गया।
मानव जीवन के इतिहास में ऐसी कोई पुष्ट परंपरा
दिखाई नहीं देती कि विदा होने वाले कालांश को शुभकामनाएँ दी जाएँ। वह तो विगत बन कर
उसी के इतिहास का अंगभूत हो जाता है। नवोदित का उत्साह और उमंग के साथ स्वागत किया
जाता है। समीक्षाओं के रूप में विगतमान की उपलब्धियों और सफलताओं की मीडिया में
चर्चा गत कुछ वर्षों से अवश्य होने लग पड़ी है। इस पर भी नव वर्ष के स्वागत में
क्षण-क्षण की जाती प्रतीक्षा समीक्षा-विश्लेषणों के महत्व को उजागर नहीं होने देती।
किसे सुध रहती है कि विगत बन जाने वाले पर ध्यान दे। जो सही हुआ उस पर भविष्य के
निर्माण की योजना को आगे बढ़ाए और जो सही नहीं हुआ उस पर मनन करे और सुधार करने का
संकल्प ले। इस पर भी आनंद-प्रमोद के उन क्षणों में प्रत्येक व्यक्ति आशा निराशा की
उफनती ढहती लहरों में गोते ले रहा होता है।
विगत और नवागत का संधिकाल निरंतर दौड़ में व्यस्त
क्षणों का मिलन बिंदु होता है जब समय की मशाल एक हाथ से दूसरे हाथ में सहसा पहुँच
जाती है। मौज-मस्त इनसानों की दुनिया को भनक तक नहीं मिलती कि जिस नए कालांश के हाथ
में मशाल पहुँची है वह किस निर्दिष्ट तक दौड़ने का संकल्प लिए है। कोई कभी भी नहीं
जान पाया है समय की गति और विधि को। इस पर भी इस संधिकाल में मनुष्य ने नए वर्ष के
लिए कोई न कोई संकल्प करने की एक प्रथा सी बना ली है। कैसे होते हैं ये संकल्प?
कोई धूम्रपान बंद कर देने के संकल्प की घोषणा करता
है और कोई अपने स्वास्थ्य में सुधार के लिए प्रतिदिन व्यायाम करने की। मद्यपान बंद
कर देने का वादा एक बार फिर दोहराते हुए हाथ में अभी भी गिलास थामे कोई कहता है 'आज
की रात ही बस फिर बंद' क्यों कि यह नए वर्ष का आगमन है। नया व्यापार शुरू करने का
संकल्प करता है कोई तो कोई अपनी शिक्षा पूर्ण करके कदम आगे बढ़ाने की। हर वर्ष यही
सब होता है। हर किसी के कदम आगे बढ़ने को तत्पर होते हैं। प्रकृति का भी यही नियम
है।
निर्धारित निर्दिष्ट को दृष्टि से ओझल करने का
परिणाम होता है असफलता और पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ अपने घोषित लक्ष्य की पूर्ति की
दिशा में अग्रसर रहने का प्रतिफल सफलता। कभी-कभी इस समय संधिकाल में मैं भी यह
सोचने लगता हूँ कि प्रथा का पालन करते हुए किसी नए संकल्प की घोषणा करूँ। लोग
प्राय: पूछ लेते हैं आप क्या करने की सोच रहे हैं नए वर्ष में? मैं हतप्रभ-सा कोई
उत्तर नहीं दे पाता। लगभग चार दशक पहले भारत से विदेश के लिए प्रस्थान करने से
पूर्व एक यह संकल्प किया था कि भले जो भी हो स्वत्व की पहचान बनाए रखूँगा। बड़े
बूढ़ों और अंतरंग मित्रों का यही अनुरोध भी था। मैंने इसका पालन किया और एक लंबे
कालखंड में विदेश के परिवेश को अपने अनुकूल होते पाया। ब्रिटेन में रहते एक भारतीय
के नाते सामाजिक समरसता का वातावरण पनपते देखा। वस्तुत: उसके निर्माण में अन्य
लोगों के साथ मिल कर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर भी पाया।
समय के बीतने के साथ-साथ इंसान की सोच में महती
बदल आई हैं। दूरियाँ सिमटी हैं ऐसा लगता है। लेकिन दूरियाँ बढ़ी भी हैं। भिन्न
सांस्कृतिक मान्यताओं के लोगों का एक दूसरे के देश में जाकर रहना बसना और घुलना
मिलना विश्व में एक ऐसे परिवेश के निर्माण में सहायक हुआ है जिसके फलस्वरूप शांति
एवं विकास के मानव घोषित संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कदम आगे बढ़ने चाहिए थे।
लेकिन परस्पर संघर्ष और युद्ध के निरंतर मंडराते बादल इसके ठीक विपरीत दिशा में
जाने के संकेत क्यों देते हैं? आज इस विषय पर ध्यान केंद्रित किए जाने की आवश्यकता
है। गत वर्ष और उससे भी पहले के अनेक वर्षों से स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि 'मज़हब
नहीं सिखाता आपस में बैर करना' के डंके की चोट पर उद्घोषित सिद्धांत को चोट पहुँचाई
जा रही है। विस्तारवादी और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियाँ पुन: सर उठा रही हैं। परिणाम
है दिशाभ्रमित मज़हबी आतंकवाद का प्रसार जो आत्मघाती होने के साथ-साथ विश्व विनाशक
भी है। एक तरफ़ है अमरीकी नवसाम्राज्यवाद की बढ़ती हठधर्मिता और दूसरी तरफ़ जिहाद
का आह्वान। दोनों के द्वंद्व में मारे जा रहे हैं निरीह-निरपराध वे इंसान जिनका
दोनों से ही कुछ लेना देना नहीं हैं। कौन करेगा संकल्प इस सर्व विनाशक युद्ध के
बुने जाते तानेबाने को भंग करने का?
सहस्त्राब्दि ने करवट ली थी तो यह पाया था कि जिस
दिन ब्रिटेन को मेरी नियति ने आतिथेय के रूप में मेरे लिए निर्धारित कर दिया था
उसमें मेरी तरह लाखों भारतीय बस ही नहीं चुके हैं बल्कि अपने कदम बखूबी जमा चुके
हैं। संघर्ष के वे दिन लद गए जब पढ़े-लिखे भारतीयों को भी किसी कारखाने में मात्र
मज़दूरी के योग्य माना जाता था। कोई कद्र नहीं थी भारतीय डिग्री-डिप्लोमों की।
उपनिवेशकाल का दंभ विद्यमान था अंग्रेज़ों में। देश को अपने मानव संसाधन अभाव की
पूर्ति के लिए विदेशों से लोगों को काम के लिए लाकर बसाने की आवश्यकता पड़ गई थी।
इस पर भी मानव स्वभाव कुछ ऐसा है कि वह अपने से भिन्न को सहजता से स्वीकार नहीं कर
पाता। अपने निजी हिताहित के समक्ष अपने समाज और देश की सामूहिक आवश्यकताओं को गौण
मान लेता है। इसी कारण वह सार्वजनिक रूप से व्यक्तिगत व्यवहार में किसी के प्रति
विरोध-समर्थन, घृणा-प्रेम अथवा स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता के स्वनिर्धारित मापदंडों
पर चलने लगता है। इसी से ऐसे विवादों को जन्म मिलता है जो सामाजिक विद्वेष के कारण
बनते हैं और दूरियों को बढ़ाते हैं।
"वसुदैव कुटुंबकम" के समग्र मानवतावादी सिद्धांत
के सृजक देश से बाहर निकल कर गए भारतीयों की भूमिका विश्व दृश्य पटल पर इतनी अहम
होकर उभर रही है कि आज अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देश उनकी कार्यकुशलता से
प्रभावित हैं। भारतीयों की विज्ञान, कंप्यूटर-सूचना प्रौद्योगिकी और ऐसे ही अन्य
क्षेत्रों में उपादेयता को भरपूर मान्यता मिलने लगी है। स्पष्ट है भारतीयों ने इसी
के साथ सहज सुलभ भाव से अपनी भारतीय राष्ट्रीयता को विश्व में सम्मानित दर्जा
दिलवाने की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। प्रकटत: इसी परिप्रेक्ष्य में भारत
सरकार ने भी उन्हें मान्यता देने का उपक्रम शुरू किया है। नए वर्ष में पहली बार
भारत की राजधानी दिल्ली में 'प्रवासी भारतीय दिवस' नाम से एक आयोजन किया गया है
जिसमें हज़ारों भारतीयों को शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। क्या यह
मात्र एक एकत्रीकरण ही होगा जिसमें कुछ की उपलब्धियों को सम्मानित कर दिया जाएगा और
भाषण-संभाषणों का ऐसा सिलसिला रहेगा जो किसी निर्दिष्ट तक कभी नहीं पहुँचता किसी को
भी? या फिर इसमें सचमुच परस्पर महत्व के वर्तमान तथा भविष्य संबंधी विषयों पर
भारतवासियों और विदेशवासी भारतीयों के बीच किसी विशिष्ट वैचारिक आदान-प्रदान की
आधारशिला रखी जाएगी। इसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा करेगा विदेशवासी भारतीय समाज।
अनेक प्रश्न हैं विदेशवासी भारतीयों के मन में।
जिज्ञासा है यह जानने की कि उनके मूलदेश भारत के जनजीवन में सुधार की क्या गुंजाइश
है और उनके अनुभव की जमा-पूँजी का सफल सार्थक प्रयोग अपने हमवतनों के हित के लिए वे
कैसे कर सकते हैं? कैसे और प्रभावी ढंग से वे भारत की सेवा कर सकते हैं जिसके साथ
उनका अटूट सांस्कृतिक नाता बना ही रहने की संभावना है। ऐसे आयोजनों के प्रायोजित
कार्यक्रमों में कुछ खुले संवाद सत्रों से प्रवासी और भारतवासी भारतीयों के बीच
साझा महत्व की आकांक्षाओं, अपेक्षाओं के साथ-साथ सर्वत्र उभरती कुछ ऐसी समस्याओं पर
भी चर्चा होनी समीचीन होगी जिनके समाधानों का अभाव सबको खटकने लगा है। विदेशवासी
भारतीय अपने अनुभव से जान गए हैं और जान रहे हैं कि विदेशों में कुछ पाने के लिए
कितना कुछ खोना पड़ता है। उनके पारंपरिक जीवन मूल्यों पर बदलते परिवेश के प्रखर
प्रहारों का सामना वे मिल कर कैसे करें ताकि उनका वर्चस्व बना रहे।
भारत हो या विदेश, भारतीयों को भी पहले से अधिक
तेजी से बदलते परिवेश के ऐसे दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है जिनसे वे
चिंतित हैं। ये चिंताएँ परिवारों और वंश परंपरा के टूटने, संतानों के भटकने, परस्पर
स्नेह तथा आदर के स्थान पर चुनौती भरे स्वरों के उभरने और व्यवस्था पर अव्यवस्था के
हावी होने संबंधी हो सकती है या फिर मूल देश भारत में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के
कारण उनके मोहभंग से उनका संबंध हो सकता है। यदि उनका कोई भी समाधान संभव है तो ऐसे
अवसरों पर परस्पर वार्तालाप को शुरू करके लाभ हो सकता है। इसके अतिरिक्त
अंतर्राष्ट्रीय महत्व के भी कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनके साथ भारत और समस्त भारतीयों
के हित जुड़े हैं। वे भले ही राजनीतिक विषय है जैसे कश्मीर या भारत में होने
आतंकवादी हमले लेकिन उनका भारतीयों के मन और सामान्य जीवन पर हर कहीं असर पड़ता है।
इसलिए उनकी भी उपेक्षा न करते हुए मुखरित चर्चा के विषय उन्हें बनाया जाना चाहिए।
एक का अवश्यंभावी परिणाम है पारिवारिक-सामाजिक विखंडन का भय तो दूसरा वैश्विक
विभाजन एवं युद्ध की आशंकाओं को बल प्रदान करता है। अतएव असुरक्षा का कारण है।
वर्ष २००२ का अंत होने से पूर्व लंदन में एक
विशिष्ट आयोजन के तहत मैंने भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को गर्व से अपना सिर उठाते
देखा तो लगा जो शायद भारत आज कर पाने में कठिनाई महसूस करने लगा है उसके विदेशों
में बसे प्रतिनिधि कर गुज़रने का संकल्प लिए प्रतिबद्धता के साथ कार्यरत हैं।
यू.के.हिंदीं समिति के तत्वावधान में १५ दिसंबर को ब्रिटेन जन्मा चार सौ से अधिक
भारतवंशी बच्चों ने हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता में भाग लिया। अनेकों ने पुरस्कार
प्राप्त किए। मैंने उनके स्तर को देखा और मन ने हिलोर ली कि जब तक भारत के ऐसे बाल,
तरुण और युवा सांस्कृतिक ध्वज वाहक इस धरती पर कहीं भी हैं और इसी प्रकार खड़े किए
जाते रहेंगे, भारत विजय पथ पर निरंतर अग्रसर रहने की शक्ति का स्वत: निर्माण करता
चला जाएगा। यह उन लोगों के प्रतिबद्ध संकल्प का प्रतिफल है जो मात्र कहते ही नहीं
अपितु जो कहते हैं कर के दिखाते हैं।
नव वर्ष एक ऐसे नव संकल्प लेने की शक्ति और साहस
दे हमारे संकट सन्निकट इस विश्व को कि वह मानव समाज को मानवताहित के धरातल पर खड़ा
कर के सफलतापूर्वक उन बाधाओं से पार पा सके जो शांति और विकास के मार्ग में बाधा
बने हुए हैं। नव वर्ष का मेरा नव संकल्प मानवता को दानवता से बचाने और इसी दिशा में
निर्देशित करने के किसी भी वर्तमान और संभावित उपक्रम के साथ जुड़ा हुआ है।
१ जनवरी २००३ |