१
समकालीन
कहानियों में नया साल
-राहुल देव
कहानियों में देश, काल और
परिस्थिति का बहुत बड़ा महत्त्व है।
नया साल दस्तक दे रहा है, तो समकालीन कहानियों के व्यापक परिदृश्य में
से कुछ कहानियाँ चुनकर, यह पड़ताल करना रुचिकर हो सकता है कि
कहानियों में देश, काल और
परिस्थिति के अनुसार नया
साल हर व्यक्ति के लिए अलग कैसे हो जाता है।
यूएसए से सुषम बेदी की कहानी ‘हवन
शेष उर्फ़ किरदारों के अवतार’ से शुरू करें तो यह
कहानी अमेरिका में एक भारतीय परिवार में नए वर्ष के
पहले दिन से शुरू होती है। इस कहानी की मुख्य पात्र
लेखिका स्वयं है जिसके अन्य पात्रों का चयन उसने अपने
आसपास के लोगों में से ही किया है। नववर्ष के उपलक्ष्य
में हवन के बहाने जब पूरा परिवार इकट्ठा होता है तब
कहानी की कथावस्तु पात्रों के कथोपकथनों के माध्यम से
जीवंत होती है। वह लेखिका पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते
हैं कि उसने अपनी कहानियों में उन्हें ऐसा लिखा-वैसा
लिखा। पात्रों के सजीव चरित्र-चित्रण कहानी के साथ
चलते हुए कहानी को रोचक बनाते हैं। उनकी आपसी नोकझोंक
को देखकर वह सोचती है कि शायद इनके दबे भीतर को ‘हवन’
में अभिव्यक्ति मिल गयी है। घर के भीतर उठा एक यह
तूफ़ान चलता है और घर के बाहर एक बर्फीला तूफ़ान चलता
है। दोनों ही तूफानों के सुखद खात्मे के साथ कहानी
नववर्ष का स्वागत करती हुई पूरी होती है।
भारत
से कथाकार संतोष गोयल की कहानी ‘कोना
झरी केतली’ की नायिका आरती अपनी घिसीपिटी दिनचर्या
के बोरियत भरे दिनों को बिताते-बिताते ऊब चुकी है। वह
बेसब्री से नववर्ष और उसमें होने वाली छुट्टियों का
इंतज़ार करती है। पिछले कई नववर्ष और छुट्टियों के
नक़्शे आरती के अंतर्पटल पर सुखद स्मृतियों के रूप में
अंकित होते हैं। घर की तमाम आपाधापी के बीच खुद को
एडजस्ट करते हुए वह हमेशा कोशिश करती रहती है कि वह एक
अच्छी गृहस्थिन के साथ अपने बच्चों के लिए एक अच्छी
माँ भी साबित हो सके। उसके मन की तमाम इच्छाएं और
बातें उसके अन्दर ही रहतीं थीं। उसके जीवन में एक अजीब
सा सन्नाटा व्याप्त था। हमेशा की तरह इस बार भी नए साल
की छुट्टियों के बहाने वह इस सन्नाटे को तोड़ना चाहती
थी। उसकी बेटी सुषमा और बेटा सागर बड़े हो रहे हैं।
सबकी अपनी अपनी समस्याएं रहतीं हैं, रिश्तों के तंतु
ढीले पड़ रहे होते हैं। कहानी इसके बाद घूमफिरकर पुनः
अपने प्रारंभिक कथ्य पर आ जाती है आखिर नया साल मेरे
लिए कुछ नया क्यों नहीं लाता ?
यूएसए से कहानीकार नीलम जैन की कहानी ‘अंतिम
यात्रा’ का देशकाल अमेरिका का है। यह न्यूयार्क
में निक यानि निकोलस नाम के टैक्सी ड्राईवर व एक बूढ़ी
स्त्री मैंरी जो कि नववर्ष की पूर्वसंध्या पर उसकी
टैक्सी की सवारी बनती है, की एक रात के घटनाक्रम की
कहानी है। वह निक से ‘होसपिस’ की तरफ चलने के लिए कहती
है। जब डाक्टर मौत का फ़ैसला सुना चुके होते हैं तो
'होसपिस' वह जगह है जहाँ ज़िंदगी के बचे दिन बिताने
जाया जाता है। मैरी निक को बताती है कि उसे कोई असाध्य
रोग है और आज वह जहाँ जा रही है उसे कोई जल्दी नहीं
है, पहुँचने की। वह नए साल की सुबह की इस अंतिम यात्रा
को भरपूर जीना चाहती है। इस यात्रा के दौरान वह अपने
अतीत के पन्नों को एक एक करके निक के सामने खोलती जाती
है। निक को भी एक नया ही अनुभव होता है। वह याद करती
है क्रिसमस की शाम और
जब
नए साल के जश्न के बाद अपनी सहेली व स्कूल के अन्य
साथियों के साथ पहली बार उसके साथी जॉन ने विवाह का
प्रस्ताव उसके सामने रखा था। बातों का दौर चला तो उसने
निक को बताया अपने मित्र, परिवार और अन्य लो
कैसे धीरे-धीरे उससे बिछड़ते चले गये। आज जब वह शहर की
इन गलियों से गुजरती है तो याद आते हैं उसे अपनी
सहेलियों के घर, उसे याद आते हैं अपने पुराने दिन,
पुरानीं बातें मानो नववर्ष के पहले इस एक रात की अंतिम
यात्रा में वह अपना पूरा जीवन जी लेना चाहती हो। निक
और मैरी में कुछ ही समय में एक गहरी पहचान बन जाती है।
वह सोचता है, यों तो वह बरसों से इन्हीं सड़कों पर
टैक्सी में घूमता रहा है, पर आज पहली बार उसने स्वयं
कोई अर्थपूर्ण यात्रा की है।
भारत से पावन की कहानी ‘सांता
नहीं चाहिए’ इस क्रम में थोड़ी-सी अलग है। यह कहानी
भारत में छोटे शहरों से महानगरों में आकर रहने वाली
कामकाजी लड़कियों की समस्याओं तथा एक ग़रीब बचपन का
नववर्ष कैसा होता है इस बात को भी को भी रेखांकित करती
है। कहानी ख़त्म होते साल के आख़िरी कुछ बचे-खुचे दिनों
के दरमियाँ शुरू होती है। क्रिसमस और नये साल के आगमन
के इन दिनों में बाजारों में बहुत रौनक होती है। कनाट
प्लेस के इनर सर्किल की जलती बुझती रोशनियों के बीच वह
उदास बैठी थी। हालांकि जब वह यहाँ आयी थी तब वह उदास
नहीं थी बहुत खुश थी। वह तो आज इस शाम को यादगार और
लम्बी ठण्डी रात को खूबसूरत बनाकर बिताने वाली थी।
लेकिन वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उसके बॉयफ्रेंड का फ़ोन
आता है कि वह किसी और के साथ है। इसके साथ ही वह अपनी
पिछली यादों और तमाम बातों में डूबकर खुद के
व्यक्तित्व के आत्मविश्लेषण में जुट जाती है। इस दौरान
वह अपने सामने एक नौ-दस साल की सांता क्लाज की कैप
बेचने वाली गन्दी सी लड़की सोना के क्रियाकलापों को
देखती है। इस पूरे घटनाक्रम को कहानीकार ने बड़ी
खूबसूरती से शब्दों में बयां किया है। वह अपनी तुलना
सोना से करती है, शायद उसके और सोना के
आने
वाले नववर्ष में कई समानताएँ हैं। वह सोना को अपने पास
बुलाकर पूछती है- “सोना, तुम जानती हो सान्ता क्लॉज
कौन है?’ उसके इस प्रश्न पर सोना जवाब देती है- “वो तो
सफेद दाढ़ी वाला बुढ्ढा है। उसकी बहुत लम्बी दाढ़ी है,
झक सफेद और वह घण्टी बजाता है। उसके पास लाल रंग का
बहुत बड़ा थैला है जिसमें से वह टाफियाँ चाकलेट निकालकर
अच्छे-अच्छे बच्चों को देता है। मैं या मेरा भाई
माँगते हैं तो हमें भगा देता है या फिर दुकान के भीतर
चला जाता है।“ बातचीत के दौरान सोना के चेहरे पर अजीब
सी वीरानी भरी मासूमियत छा जाती है जिसका सम्बन्ध शायद
उन अनेक इच्छाओं से था जो रोज जीवित होती हैं और रोज
मर जाती हैं। नायिका सोचती है कि बहुत से बहुत से लोग
उसके सम्पर्क में आये हैं लेकिन सब स्वार्थवश, जैसे वह
खुद उन लोगों के सम्पर्क में आई- स्वार्थवश। क्या इसी
तरह सांता क्लाज भी अपनी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करने
का भ्रम है। वह सोना को इधर-उधर की बातें कहकर बहलाती
है। सोना छोटी भले है मगर वह सब समझती है। जीवन संघर्ष
व कटु अनुभवों ने उसे समय से पहले ही परिपक्व कर दिया
है। वह कहती है- “पता नहीं, सब लोगों को इस टोपी के
दाम (तीस रुपये) ज्यादा क्यों लगते हैं? हो सकता है,
इसे मैं बेच रही हूँ इसलिए। अगर ये टोपी शीशे वाली बड़ी
दुकानों में रखी होती तो कोई इसकी कीमत को ज्यादा नहीं
कहता। वहाँ लोग इसे सौ रुपये में भी चुपचाप खरीद लेते।
इसलिए मेरा बापू सच कहता है, हमारी किस्मत खोटी है कि
हमें अपनी कीमत भी नहीं मिलती...।“ कहानी चलते हुए कई
प्रश्न छोड़ती जाती है आखिर नया साल कहानी के इन दो
पात्रों जैसे कुछ लोगों का भी तो होता है !
ठीक
कुछ इसी तरह के कथ्य की कहानी भारत से श्रवण कुमार
गोस्वामी की कहानी ‘बालेसर
का नया साल’ भी है।
.बालेसर’ एक ग़रीब रिक्शा चालक है वह उस तमाम आबादी
का प्रतिनिधित्व करता है जो रोज गड्ढा खोदते हैं और
रोज पानी पीते हैं, जिनके पास शिक्षा नहीं है
स्वास्थ्य नहीं है। परिवार चलाने और भरपेट भोजन को
पाने की चिंताएं करने में ही जिनका जीवन कट जाता है।
उसे तो यह तक नहीं पता कि गणतंत्र दिवस का मतलब क्या
होता है ? जब वह एक सवारी से पूछता है, “बाबू ई गनतंतर
दिवस का होता है ?” फिर नए साल के ठीक एक दिन पूर्व
भला वह कैसे समझ पाता कि आज बाज़ार में इतनी चहल-पहल
क्यों है ? आज उसका धंधा अच्छा चल रहा है। वह यह भी
सोचता है कि काश शायद रोज ही ऐसा हो। इस कहानी में
बालेसर के माध्यम से इस दिन घटने वाले कई ऐसे प्रसंगों
को लिया गया है जो उसके साथ सामान्य दिनों में भी घटित
होते रहते हैं। खैर चाहे जो हो आज बालेसर बहुत खुश है।
उसका मित्र बादल उसे बताता है कि आज नया साल है।
बालेसर मासूमियत से पूछता है, 'नया साल मनाने से का
होता है?'
'इ तो हमको भी टीक से मालूम नइ है। मगर हम सुने हैं कि
नया साल में खूब खुशी मनाने से, खूब नाचने-गाने और
मस्ती करने से साल का बाकी दिन भी खूब बढ़िया से गुजरता
है।‘
वह एक दूकान के सामने से गुज़रते हुए चलते हुए टीवी में
समाचारों में सुनता है कि नववर्ष पर किसी अभिनेत्री ने
‘सत्तर लाख के ठुमके’ लगाए। बालेसर सोच नहीं पाता कि
सत्तर लाख रुपिया आखिर कितना होता है। समाचारों में
नववर्ष पर और भी जगहों के प्रसंग आते हैं जिन्हें
सुनकर बालेसर हँसता है और सोचता है। अगले दिन उसकी
दिनचर्या पुनः उसी ढर्रे पर लौट आती है। कहानी अंत में
इस प्रश्न के साथ ख़त्म होती है जब लेखक पूछता है क्या
साल भर बालेसर जैसे लोगों की मड़ई में आज जैसा अँधेरा
ही फैला रहेगा ?
भारत
के ही कथाकार रवीन्द्रनाथ भारतीय की कहानी ‘नववर्ष:
दो डायरियां समानांतर’ सिक्के के दो पहलुओं की तरह
एक दूसरे से जुड़े हुए दो परिवारों के नए साल के उस एक
पहले दिन का आत्मकथ्य है। डायरी के ये दोनों पन्ने
समानांतर हैं, एक ही समय पर पुल के दो किनारों की नदी
पर अपने-अपने ढंग से समानांतर प्रतिक्रियाएँ करते हुए।
पहली डायरी का पहला पन्ना नवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक
लड़की ज्योत्स्ना का है जो कि उसके जीवन के प्रवाह का
सहज आख्यान है, “नया साल आने वाला है, नया साल नई
खुशियाँ लाता है", क्लास में जब सुना तो विश्वास नहीं
हुआ। अब तक कितने न्यू इयर आए हैं, और क्या, कितनी बार
मैंने खुद देखा है, सामने लोगों को नाचते हुए, उन्हीं
ऊँची इमारतों में। हम लोग तो ऐसे ही इतने खुश हैं।”
“नए साल पर खुशी मनाना मेरे लिए तो नया था। इसके पहले
तो कभी पापा हमें नहीं ले गए कहीं।“
“उस चमक दमक से दूर हमारी बस्ती में जिसके सामने वो
ऊँची इमारतें हैं, कितनी फीकी-सी है। पर मैं तो रहती
हूँ यहीं, प्रिन्स मम्मी और पापा भी। यही तो है वो जगह
जहाँ से गाँव से यहाँ आए मेरे पापा के आगे बढ़ने बड़ा
आदमी बनने के सपने शुरू हुए थे। चमक-दमक, कार, ये
घूमना-फिरना एक दिन की खुशी है और हमारी बस्ती हमेशा
साथ रहने वाली खुशी, पर हाँ ये त्योहार भी तो एक दिन
की खुशी ही तो हैं। पता नहीं पूछूँगी कभी किसी से कि
कौन-सी खुशी बड़ी है। मुझे तो लगता है कि खुशियाँ तो बस
खुशियाँ हैं, छोटी बड़ी कैसे? पता नहीं। वो १२ बजे घर
से ही देखा था अभी, कहीं पटाखे छूट रहे थे...कितनी चमक
थी। जैसे कितने सारे तारे एक साथ निकल आए थे ऊपर आसमान
में, गिरते हुए से, छिटक कर हर कहीं फैलते हुए से।“
डायरी का दूसरा पन्ना एक बूढ़े व्यक्ति का है जो शहर
में अपनी पत्नी नीता के साथ रहता है, उसके बच्चे विदेश
में सेटल हो गए हैं। नए साल पर अचानक वे सब इकट्ठा
होते हैं, मिलते हैं और कहानी में खुशियों तथा प्यार
के भावों का अलग संसार सामने आता है। कहानी के अंत में
पता लगता है कि डायरी के दोनों पन्ने किस तरह आपस में
जुड़े हुए हैं जब पता लगता है कि उस बूढ़े व्यक्ति का
कार ड्राईवर प्रकाश ही ज्योत्स्ना का पिता है। इस
प्रकार दोनों परिवारों की नववर्ष की खुशियाँ आपस में
जुड़ी हुई होती हैं, लेकिन अलग-अलग परिभाषा रखतीं हैं।
भारत
की ही कहानीकार प्रवीणा जोशी की कहानी ‘नया
सवेरा’ एड्स से पीड़ित सीमा नाम के एक महिला चरित्र
की कहानी है। सीमा के लिए नया साल बरसों से उसके जीवन
में नहीं आया था, जब समय के थपेड़ों ने उसे चेतनाशून्य
सा कर दिया था। आज पहली बार नववर्ष उसके लिए एक आशा की
किरण लेकर आया है। फ्लैशबैक में वह अपने बीते दिनों को
याद करती है। सीमा बगैर माँ-बाप की बच्ची थी और वह नए
साल का पहला दिन ही तो था जब उसकी शादी विजय के साथ
हुई थी। विजय को शराब की बुरी लत होती है और वह सीमा
को वेश्यावृत्ति के भयानक दलदल में डाल देता है। उसके
दुःख के कई प्रसंगों के साथ कहानी उसके वर्तमान नववर्ष
के सुखांत अंत की और बढ़ती है। जब एक एनजीओ के द्वारा
मंच पर यह घोषणा की जाती है कि- ‘सीमा का हम स्वागत
करते हैं नववर्ष के दिन...साथ ही आज हम सब मिल कर नए
साल के उपहार के रूप में एक नया कुटीर उद्योग शुरू
करने के लिये आपको एक राशि प्रदान करेंगे, जिससे आप
अपना जीवन यापन कर सकेंगी।‘
और इस तरह इस नए साल में सीमा अपने उजड़े जीवन में पहली
बार नए साल की रंग और खुश्बू के उत्साह को महसूस करती
है।
भारत की कथाकार शुभदा मिश्र की इस विषय पर लिखी गयी
कहानी ‘नववर्ष
शुभ हो !’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी प्रतीत होती है,
जिसमें मानवीय मन के संकेतों और पूर्वाग्रहों का अच्छा
चित्रण है। कहानी की कथावस्तु बहुत छोटी सी है- नीलू
और नितिन पति-पत्नी हैं नितिन के पिता- बाबू जी और
उनके घर में खुले एक कंपनी के ऑफिस के मेनेजर मेजर
सिंह जो कि सेना में अफसर रह चुका है, इन चार पात्रों
के इर्द-गिर्द कहानी का ताना-बाना बुना गया है। नितिन
के घर में फ़ोन नहीं है उसके बाबू जी अक्सर कंपनी के
ऑफिस के फ़ोन का प्रयोग करते हैं। नितिन की पत्नी नीलू
मेजर सिंह के
प्रति
पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहती हुई उसे भला-बुरा कहती
हुई अक्सर कोसती रहती है परन्तु मेजर सिंह कोई भी ऐसी
प्रतिक्रिया नहीं करते जिससे कोई अप्रिय स्थिति
उत्पन्न हो। धीरे-धीरे गलतफहमियों की दरारें टूटतीं
हैं और नए साल के दिन फ़ोन करने के बहाने नीलू की मेजर
सिंह से बात होती है। मेजर उसे शांत भाव से नववर्ष की
शुभकामनाएं, डायरी व कैलेंडर देते हैं। नीलू को
आश्चर्यमिश्रित लज्जा होती है। अपनी सोच से विपरीत
व्यवहार को देखकर नीलू की आँखें भर आतीं हैं और उसके
मुंह से इतना ही निकलता है, “नया साल शुभ हो मेजर !”
उसके बाद उसका परिवार वहाँ से बहुत दूर चला जाता है
परन्तु हर वर्ष नया साल आने पर नीलू के सामने मेजर का
मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने आने लगता है और उसके मुख
से अनायास ही निकल पड़ता है, नववर्ष शुभ हो मेजर तथा
उसे यह भी लगता है मानो मेजर भी जवाब में कह रहे हों,
शुक्रिया आपका भी !
भारत से डॉ सरस्वती माथुर की कहानी ‘पूर्वसंध्या’
की मुख्य चरित्र राधादेवी भारत में रहती हैं। वह
अमृतयान निकेतन नामक वृद्धाश्रम और स्वास्थ्य केंद्र
भी चलाती हैं। उनके बच्चे अमेरिका में रहते हैं। राधा
देवी को पढ़ने-लिखने का शौक है, वह कंप्यूटर भी चला
लेती हैं। वे धीरे-धीरे ही सही पर ज़माने की बदलती
चीज़ों को समय के साथ-साथ अपनाती रही
हैं।
अमृतयान निकेतन के सदस्यों के साथ राधादेवी आत्मीयता
महसूस करती हैं। बिलकुल तो नहीं पर यहाँ रहने वाले
लोगों का जीवन कुछ न कुछ उनसे मिलता ज़रूर है। वही
बच्चों का नीड़ से उड़ जाना और अपना दाना खोजने की
व्यस्तता के चलते माँ बाप से लगकर न रह पाना। जीवन का
यह समय सभी के पास आता है। जब माता पिता को बच्चों की
आवश्यकता होती है वे अपने बच्चों के लिए जीवन का हर पल
दाँव पर लगाए होते हैं। यही संसार का नियम है। स्वयं
वे अपने माता पिता की कितनी देखभाल कर पाई थीं? शायद
यहाँ पर काम करते हुए वे उसी कमी को पूरा करने की
कोशिश करती हैं। नए साल के ठीक एक दिन पहले अचानक उनका
पूरा परिवार उनके सामने उपस्थित होकर उन्हें
आश्चर्यचकित कर देता है और फिर सभी एक साथ मिलकर नए
साल का उत्सव मनाते हैं। लेखिका कहानी में कहती है कि,
‘बस एक यही पल तो होता है जब आदमी चाहता है कि कुछ
क्षणों के लिए समय ठहर जाये।’
यू.के. से कथाकार अचला शर्मा की कहानी ‘चौथी
ऋतु’ लिंडा नाम की एक अकेली व बूढ़ी अंग्रेज़ महिला
की दास्तान है
वह
क्रिसमस तथा नए साल के अवसर पर अपने आसपास के कुछ
लोगों को दावत पर बुलाती है। जिनके साथ वह अपने जीवन
की कुछ खट्टी-मीठी यादें बांटती है उसके द्वारा दी गयी
पार्टी में आये लोग भी आह्लादित होकर अपना दुःख दर्द
बांटते हैं। जब उन्हें पता लगता है कि उनके पड़ोस में
रहने वाली रोजमैरी नामक वृद्ध महिला की दुखद मृत्यु हो
गयी है तो एक पल के लिए उन सभी के भीतर भी भावी मौत का
एक डर भी व्याप्त हो जाता है। फिर बारह बजने के बाद
शैम्पेन की बोतल खुलती है और सब एक दूसरे से चीयर्स,
बुढ़ापे के नाम बोलते हुए नए साल की खुशियाँ मनाते हैं।
नार्वे में रहने वाले लेखक डॉ सुरेशचन्द्र शुक्ल शरद
आलोक की कहानी ‘आदर्श:
एक ढिंढोरा’ जहाँ अपने देश के मूल परिवेश से हमारी
मुलाक़ात करवाती है वहीं विदेश की आधुनिक महानगरीय
संस्कृति की पड़ताल भी करती है। इससे यह भी पता चलता
है कि पश्चिमी संस्कृति में क्रिसमस और नये साल का समय
प्रेम और विवाह जैसे महत्वपूर्ण निर्णय
लेने
में प्रमुख भूमिका निभाता है। कहानी क्रिसमस के अवसर
पर ओस्लो शहर के खूबसूरत सजावट वर्णन से शुरू होती है।
अपनी कहानी में वे लिखते हैं कि ‘नार्विजन लोग
खाते-पीते, मौज उड़ाते, युवा-जन नाचते-कूदते, बच्चों को
यह पर्व बहुत प्रिय होता है। प्रवासी लोग अपने-अपने
वतन से दूर न जाने किस-किस तरफ छुट्टियाँ व्यतीत करते।
घर के बाहर चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। आज टीवी वाडियो
घर-घर है। कोई प्रवासी घर पर टीवी देखता वीडियो पर
फिल्म देखता या देशीय मित्रों के साथ गप्पें मारता।‘
इस प्रकार शुरुवाती भूमिका के बाद कहानी अपने कथ्य पर
आती है, जिसमें नए साल से सम्बंधित कोई विशेष प्रसंग
तो नहीं आता लेकिन एक गंभीर समस्या- भारतीय
आप्रवासियों का स्थानीय महिलाओं से केवल भाषा सीखने और
नागरिकता प्राप्त करने के लिये विवाह करना और बाद में
उन्हें तलाक दे देना – को गंभीरता से उठाया गया है।
पोलैंड से हरजेन्द्र चौधरी की कहानी ‘लेज़र
शो’ इस विषय पर बहुत गर्भित और सार्थक कहानी बन
पड़ी है। यह कहानी
समय
के साथ लोगों की सोच और विकास के नए मानकों को मानवीय
संवेदना के साथ जोड़ती है। जहाँ पहले लोग बाज़ीगर और
उसकी लड़की का खेल देखते थे समय के साथ उनके मनोरंजन के
साधन बदलते चले गए। गाँव-कस्बे फैलकर शहर बन गए, भौतिक
संसाधनों ने चारों ओर अपने पैर फैला लिए। व्यस्तता
इतनी बढ़ गयी है कि एक दूसरे के लिए कहीं किसी के पास
समय ही नहीं। नववर्ष पर भी लोग अब बाज़ीगर का खेल नहीं
लेज़र शो देखते हैं, मैकडोनाल्डस की आइसक्रीम खाते हैं,
नाचते-गाते हैं। किसी को किसी और का दुःख नहीं दिखता
सब अपने-अपने में मगन हैं क्या यही हमारी प्रगति है ?
इस तरह की तमाम सारी मूलभूत बातों को कहानी में
कहानीकार ने बड़ी खूबसूरती से समेटा है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कोई भी कहानी किस समय
सन्दर्भ और देशकाल में लिखी जा रही है यह कहानीकार के
रचनाक्रम में उसकी समकालीनता को भी रेखांकित करता है।
कहानियों की यह विविधता और विशिष्टता ही उसे एकरस होने
से बचाती है और उसकी वैश्विकता और स्तरीयता को भी
निर्धारित करती है। अनेकता में एकता इस सूत्रतत्व के
साथ कथा लेखकों की इस एक रंग में बहुरंगी होने की
विशेषता से पाठक कहानी के नए भूगोल और संस्कृति से तो
परिचित होता ही है साथ ही वह यह भी महसूस करता है कि
विभिन्न देशों की भूगोल-इतिहास और संस्कृति भले ही
अलग-अलग हो लेकिन कथावस्तु व संवेदना के विषय कमोबेश
हर जगह एक ही है। कथाकार की कहानियां स्थानीयता के इस
सौन्दर्य को स्वतः ही बता देतीं हैं उसकी कहानियों की
कथा, पात्र व भाषा स्वयमेव ही उसके इस जमीनी
रचना-संघर्ष का बयान बन जाती है, जिनसे एक आम पाठक
जुड़ना चाहता है और इस तरह कहानीकार अपने
उद्देश्यपूर्ति में सफल हो पाने में सक्षम हो पाता है।
हालाँकि लेखक कथा कहने के अपने उद्देश्य में कहाँ तक
सफल हो पाया है यह उसकी स्वयं की लेखकीय प्रतिभा,
ज्ञान, अनुभव और समय के साथ-साथ रचना के पाठकों पर भी
निर्भर करता है।
३०
दिसंबर
२०१३ |