नव वर्ष के
उपलक्ष्य में पिछले पचास सालों में जो कविताएँ लिखी गई
हैं उनमें समकालीन परिवेश और परिस्थतियों का सुंदर
प्रयोग देखने को मिलता है। यही नहीं वे आधुनिक विचारों
और मनःस्थितियों का भी सुंदर प्रतिनिधित्व करती हैं।
आज की नववर्ष रचनाएँ 1 जनवरी से शुरू होने वाले ईस्वी
संवत के लिए हैं न कि होली पर शुरू होने वाले विक्रम
संवत या दीवाली पर शुरू होने वाले शक संवत के विषय
में। ईस्वी नव वर्ष के विषय में लिखे जाने के कारण
विशेष अंतर यह है कि इसमें ऋतु या उत्सव का शृंगार
नहीं बल्कि दैनिक जीवन का आचरण दिखाई देता है। अधिकांश
कविताओं का स्वर मंगल कामनाओं के पारंपरिक स्वरूप जैसा
है तो भी आधुनिक युग की सच्चाई दिखाने वाली
प्रवृत्तियाँ साफ़ नज़र आती हैं।
वर्तमान समय में
कवि लगातार बुराइयों से जूझ रहा है और जब वह देखता है
कि उसकी लाख कोशिश के बाद भी दुनिया सुधर नहीं रही है
तो भी वह हिम्मत नहीं हारता है और दुनिया के
अच्छे-अच्छे लोगों को किसी न किसी तरह से बचा लेना
चाहता है। इसी संघर्ष में भयावह त्रासदी के बीच वह तीन
सौ पैंसठ दिन बिताता है। उसका सपना एक अच्छी दुनिया
बनाने का है यदि अच्छी दुनिया नहीं बन पाती है तो वह
भले लोगों के साथ कहीं और चले जाने में ही अपनी भलाई
समझता है-
मैं सारे स्वप्नों को गूँथ-गूँथकर
एक खूब लंबी नसैनी बनाऊँगा
और सारे भले लोगों को ऊपर चढ़ाकर
हटा लूँगा नसैनी
ऊपर किसी ग्रह पर बैठकर
ठेंगा दिखाऊँगा मैं सारे दुष्टों को
कर डालो, कर डालो जैसे करना हो नष्ट
इस दुनिया को
मैं वहीं उगाऊँगा हरी सब्ज़ियाँ और
तंदूर लगाऊँगा।
- राजेश जोशी
वर्तमान का संघर्ष
बुराइयों को दूर करने का ही संघर्ष नहीं है बल्कि
संसाधनों की छीना-झपटी का संघर्ष है। जो खा रहे हैं और
जिन्हें खाने को नहीं मिल पा रहा है उनके बीच का
संघर्ष है। आम आदमी इसे कब तक देखकर चुपचाप बैठा रहा
सकता है। उसे बहुत अधिक दबाया नहीं जा सकता। कवि भी इन
वास्तविकताओं को लिखे बिना बहुत दिनों तक नहीं रह
सकता-
अकेले तुम्हीं सब उड़ाओगे भाई
कि मेरी तरफ़ भी बढ़ाओगे भाई।
तुम्हीं पी रहे हो, तुम्हीं खा रहे हो
तुम्हीं बाँधकर भी लिए जा रहे हो
कहाँ का नियम है बताओगे भाई।
........
बहुत हो चुका अब नहीं मैं सहूँगा
कहूँगा, कहूँगा, कहूँगा, कहूँगा
कहाँ तक मुझे तुम दबाओगे भाई।
-कैलाश गौतम
जो मेहनतकश है वह
दुखी रहे, भूखा रहे और जो मेहनत न करे वह मौज मनाए, यह
विडंबना भी कविताओं में झाँकती हुई दिख जाती है-
चूल्हे की वर्षगाँठ मना रही भूख
कितने दिन कट गए धुआँ पीते
कितने ही बिना जले दिन बीते
रोटियों पर मानचित्र बना रही धूप।
चीखते सवाल मौन हो जाएँ
सिसकते रोते जवाब सो जाएँ
थपकी दे लोरियाँ सुना रही भूख।
चूल्हे की वर्षगाँठ मना रही भूख।
-रामानुज त्रिपाठी
मेहनत करने वाले की
मेहनत के फल से कोई अपना पेट भरने के लिए उसकी कमाई
छीन ले वहाँ तक तो ठीक है पर यहाँ तो कुछ और ही हो रहा
है और सब चुप हैं-
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी सेंकता है
एक तीसरा आदमी है
जो न रोटी बेलता है
न रोटी सेंकता है
सिर्फ़ रोटियों से खेलता है
मैं पूछता हूँ कि
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
धूमिल
इन्हीं सब
स्थितियों को देख-देखकर कवि नववर्ष की शुभकामनाएँ केवल
शहरों तक ही सीमित नहीं रखता, उसकी दृष्टि गाँव तक
जाती है। उसे गाँव का मजदूर, किसान, चूल्हा, चक्की और
तमाम लोकतव याद आते हैं जिनकी वजह से तथाकथित सभ्य
दुनिया के पेट को दाना मिल पाता है। फिर भला इन्हें
शुभकामनाएँ क्यों न दी जाएँ। इस्वी संवत को गांवों तक
पहुंचाने वाले कवियों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद
पहले कवि हैं। वे नव वर्ष मनाते समय जब शहर को
शुभकामना देते हैं, ग्रीटिंग कार्ड लिखते हैं तो
गांवों को याद करना नहीं भूलते। भारतीय इतिहास का यह
वह समय था जब गांव शहरों की ओर मुड़ रहे थे और शहरी
संस्कृति वहां तक पहुंचना शुरू हो गई थी। वे कहते हैं-
खेतों की मेडों पर
धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
जाते के गीतों को,
बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को,
बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
बीसवीं से
इक्कीसवीं सदी तक आते आते दुनिया ने अपना चोला तेज़ी
से बदला है। जहाँ पुरानी कविता में भोलापन और प्रकृति
से निकटता देखने को मिलती है वहीं नयी कविता में
औद्योगिक विकास और उसकी विभीषिका में पिसते ग़रीब
मजदूर का चित्रण मिलता है। महानगरीय निर्माण और विकास
के बिगुल के साथ खड़ी गरीबी की छोटी सिसकी का मुखर
शब्द सुना जा सकता है डा अशोक चक्रधर की इन पंक्तियों
में-
सोचते दिमाग़ों को
नापती निगाहों को
गारे सने हाथों को डामर सने पाँवों को
उन सबको जिन्होंने
सड़क इमारतें बनाई कमाल की
शुभकामनाएँ नये साल की
उनको जो पता नहीं
कब आए कब गए
फ्लाईओवर बनाते हुए दब गए
जिनके परिवारों को चिंता है
रोटी की दाल की
शुभकामनाएँ नये साल की
-अशोक चक्रधर
मजदूर वर्ग के
आंदोलन को चित्रित करने और उसका समर्थन करने वाली भी
कुछ कविताएँ नए साल के संदर्भ में मिलती हैं। उनकी
आवाज में आवाज़ मिला कर उनके विकास की कामना करने वाली
व शोषण के विरुद्ध खड़ी होने वाली इसी तरह की एक
आवाज़ है कृष्ण मोहन की आप कहते हैं-
नयनो में नव उत्साह लिए नंगों भिखमंगो की होली
शोषक जग के प्रति बोल रही कुछ-कुछ परिवर्तन सी बोली
मानव जीवन है परिवर्तन परिवर्तन है उत्कर्ष सखे!
आया है नूतन वर्ष सखे!
-कृष्ण मोहन
नववर्ष की खुशियाँ
अमीरों के घरों मे तो खूब जाती हैं पर ग़रीबो के छप्पर
में और ग़रीबी ही बढ़ा देती हैं। ग़रीबों को नये वर्ष
का अर्थ भी पता नहीं होता। उन्होंने तो सुना भर है कि
नया वर्ष हर साल आता है-
दादी कहती है
कि नया साल जब-जब आता है
महँगाई की फुटवॉल को
थोड़ा और फुला जाता है।
ग़रीबी की चादर में
एक पैबंद और लगाकर
भ्रष्टाचार का प्रमोशन कर जाता है।
-डॉ. जगदीश व्योम
कहते हैं कि ग़रीब
का बच्चा बचपन देखे बिना ही सयाना हो जाता है और वह
भूख की जुगाड़ का गुणाभाग बचपन में ही सीख लेता है।
यही उसकी विवशता है और भूख की यही अनिवार्य आवश्यकता
है-
वह बेच रहा था
नव-वर्ष के नये गुब्बारे,
खड़ा सड़क किनारे,
करता जीवन यापन-
इसी के सहारे।
उसी से पूछ लिया
इस उत्सव का अर्थ
वह बोला-
''साब, यह तो आप लोगों का
है खिलवाड,
करता है कोई मस्ती
और कोई कर रहा बस
पेट की भूख का जुगाड़!
-सुमन कुमार घई
आधुनिक युग की तेज़
भागदौड़ में कुछ नवीन प्रवृत्तियाँ आम आदमी के जीवन
में आई हैं जैसे निराशा, हिंसा घृणा। ऐसी अवस्था में
प्रेम और खुशियों की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा
महसूस की जाने लगी है। यही कारण है कि आज का कवि नये
साल का वर्णन करते हुए इन्हें याद रखता है।
काट निराशा का अँधियारा, नया एक संसार बसाएँ
हिंसा घृणा द्वेष भय त्यागें, स्नेह प्यार का दीप
जलाएँ
सबके घर आँगन में बरसे खुशियों की बरसात!
नया वर्ष लेकर आया है सुंदर नवल प्रभात
- गिरीशचंद्र श्रीवास्तव
जाति, धर्म और
भेदभाव जैसी भावनाओं का महत्त्व आधुनिक जीवन में
समाप्त हो चुका है। इन सब से विपरीत आधुनिक युग की एक
महान प्रवृत्ति 'समानता की भावना' के पक्ष में कवि
कहता है-
जाति-धर्म की खड़ी
शिलाएँ, गल-गल पिघल स्वयं बह जाएँ।
भेद-भाव की चिर प्राचीरें, एक-एक कर सब ढह जाएँ।
घृणा-द्वेष के मरुथल-मरुथल प्रणय-सुमन खिल उठें अभय हो
नया वर्ष शुभ मंगलमय हो!
- प्रेमचंद्र सक्सेना 'प्राणाधार'
नए साल पर नए
संकल्प लेने की परंपरा भले ही विदेशी हो लेकिन आज भारत
में उसकी लोकप्रियता खूब है। संकल्प लेना, उसको निभाना
या तोड़ देना यह सब व्यक्तिगत बातें हो सकती हैं पर
आमआदमी के जीवन में नए साल पर संकल्प लेने की बात का
याद आ जाना इस कविता में सुंदरता से व्यक्त हुआ है।
हर वर्ष नये वर्ष की सुबह
लेता हूँ नये संकल्प
नये वर्ष में बदल लूँगा स्वयं को
हो जाऊँगा और भी विनम्र
झुकने का अभ्यास करूँगा
लोगों से मिलूँगा अत्यधिक प्रेम से
मुझ में जो भरा है विष
पी जाऊँगा उसे, चेहरे पर
चिपका लूँगा स्थाई मुस्कान
व्यवहारिक आदमी की तरह।
- गोविंद माथुर
आम आदमी भी आज
सुबह-सुबह अख़बार की सुर्खियाँ पढ़ने के बाद अपनी
दिनचर्या शुरू करता है। लेकिन अख़बार के हर पन्ने पर
भय और आतंक ही दिखाई देता है। दुनिया इतनी भी ख़राब
अभी नहीं हुई है जितनी कि हम उसे प्रचारित कर रहे हैं।
अभी बहुत कुछ अच्छा भी है हमारे समाज में, हमारे
परिवेश में लेकिन हम तो बुराई देखने के ही अभ्यस्त हो
चुके हैं। अख़बारों ने भय का जो माहौल बना रखा है
वास्तव में वैसा है नहीं-
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारा दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा नहीं माना।
आज सबका यकीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया।
-कुँवर नारायण
यदि यही कार्य
अख़बार भी करने लगे तो कितना अच्छा हो। नववर्ष पर कवि
की यह भी आकांक्षा है। अख़बारों में बुरा कम लिखा जाए
और अच्छा अधिक रहे-
दस्तक दे रहा है अख़बार
मुस्करा रहा है पहली बार
आज उसके अंदर
बुरा कम अच्छा ज़्यादा है
ये सुबह तुम्हारी है
-प्रदीप मिश्रा
नये वर्ष को जिस
अंदाज़ में धूमधाम से मनाने का चलन चल पड़ा है वह
उपभोक्तवाद की देन है। जितना बड़ा आयोजन होगा, जितनी
चमक-दमक होगी उतना ही माल बिकेगा। इसलिए नववर्ष के
समारोहों को इस तरह प्रायोजित किया जाता है कि अमीर
आदमी जेब से पैसा निकालने के लिए उतावला हो उठे और आम
आदमी देखा-देखी खर्च करने को विवश हो जाए भले ही उसे
उधार लेना पड़े। उधार देने के लिए व्यापारी तैयार बैठे
हैं फिर देर किस बात की-
छुट्टियों का मौसम है, त्योहार की तैयारी है
रौशन हैं इमारतें, जैसे जन्नत पधारी है
खुश हैं ख़रीदार, और व्यस्त व्यापारी हैं
खुशहाल हैं दोनों, जबकि दोनों ही उधारी हैं
- राहुल उपाध्याय
महानगरीय व्यस्तता
ने सांसारिक समृद्धि और सुविधाएँ तो जुटाई हैं लेकिन
उदासी और अकेलेपन का ऐसा साम्राज्य भी ताना है कि
इंसान नये साल पर भी खुले दिल से खुश नहीं हो पाता।
लो!
फिर एक नया साल चला आया।
बासी गुलदस्ते-सा
फेंक दिया कल
पिछला साल
यादों के कूडेदान में।
डूब गया सूरज
फिर तीन सौ पैंसठ बार
चढ़ने उतरने को।
- संदीप जैन
आज का परिवेश ऐसा
है कि जहाँ देखो वहीं लोग परेशान हैं। उनके बीच कब,
कहाँ और क्या हादसा हो जाए किसी को कुछ पता नहीं।
आतंकवाद का दानव जगह-जगह अपना दाँव लगाए बैठा है-
हर तरफ़ बारूद का मौसम, कहाँ जाकर रहें,
आदमी भी हो गया है बम, कहाँ जाकर रहें।
गावँ में पहुँचे, वहाँ भी आग के चर्चे मिले
धूप के अख़बार, उठती धूल के पर्चे मिले
हर गली हर मोड़ पर, कुछ चोर या डाकू मिले
लाठियाँ उठती हुईं, चलते हुए चाकू मिले।
-डॉ. कुँअर बेचैन
ऐसे माहौल में
भविष्य का क्या पता, इसलिए क्यों न आज थोड़ी ख़ुशियों
के साथ कुछ पल गुज़ार लिए जाएँ-
तुम सच कहते हो-
कल किसी आतंकवादी बम से
आसमान फट पड़ेगा
तो मेरी फटी कमीज़ के तार-तार से
आसमाँ को भी सी दूँगा
पर आज मेरे दिल की नसें मत चिरने दो
यारों मुझे साल मुबारक कर लेने दो
-हरिहर झा
संसार से भय और
आतंक को तो हमें मिलकर दूर करना ही होगा। नये वर्ष के
साथ जो संकल्प हम कर रहे हैं उनमें आतंक को दूर करना
भी हमारा लक्ष्य है। यदि सब मिलकर यह संकल्प करें और
प्रयास करें तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा परिवेश आतंक
से मुक्त होकर शांति के दीप प्रज्ज्वलित कर सके-
दुनिया से आतंक मिटाएँ
सभी शांति के दीप जलाएँ
आतंक जग में जो फैलाते
उनके कहीं न मिले सहारा
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा
-शरद आलोक
इलेक्ट्रानिक
संसाधन आज के युग की रोज की ज़रूरतों में शामिल हैं।
ईमेल को विषय बनाकर लिखी गई सरदार तुकतुक की इस कविता
में व्यंग्य का चुटीला प्रदर्शन देखा जा सकता है।
'विश' तो मैं आपको पहली को भी कर सकता था
शुभ वचनों से आपका मन भर सकता था।
पर जानते हैं क्यों नहीं किया?
क्यों कि पहली को तो सभी अभिनंदन करते हैं।
आप का मेल बाक्स शुभकामनाओं से भरते हैं।
पर बेचारा मेल बाक्स इतना लोड कहाँ ले पाता है।
किसी का संदेश पहुँचाता है।
किसी का नहीं भी पहुँचाता है।
सरदार तुकतुक
कभी कभी आधुनिकता
से ऊब कर दूर प्रकृति की ओर पुनः उन्मुख होने की भावना
भी हमारे मन के किसी कोने से आकर अपनी बात कहलवा देती
है कि प्रकृति का भी अभिनंदन कर-
यह पिकनिक-पार्टी-हाय-हलो
तुझको क्या देगा
कुछ आगे की भी तैयारी कर।
नववर्ष की प्रातिभ नवप्रभा भी
उसका हर प्रभांश
हर पल हर जन से
क्षिति-जल-
पावक-गगन-समीरमय
अभिनंदन रही है माँग।
प्रकृति का भी अभिनंदन कर।
-विनोद कुमार
प्रकृति मुक्त हस्त
से खुशियाँ लुटाती रहे तभी मानव सुखी रह सकता है-
फूलों से शोभित पल छिन, राह कभी ना लगे कठिन
सुबह स्फूर्ति को लेकर आए, दिवस धूप से निखर नहाए
शामों को विश्राम सजाए, मित्रों को जलपान लुभाए
मनोकामनाएँ हो पूरी, नये साल का शुभ दुलार है
-पूर्णिमा वर्मन
हिंदी का वैश्वीकरण
होने से नये साल के प्रकृति चित्रण में विदेशी प्रकृति
का प्रभाव भी देखने को मिल रहा है-
सर्द रातों की एक हवा जागी
और बर्फ़ की चादर ओढ़
सुबह के दरवाज़े पर दस्तक दी उसने
उनींदी आँखों से, सुबह की अँगड़ाई में
भीगी ज़मीन से ज्यों फूटा एक नया कोंपल
नये जीवन और नयी उमंग
नयी खुशियों के संग
-मानोशी चैटर्जी
सुनामी और
विश्वशांति के प्रति चिंता कवियों की कविताओं का मुख्य
विषय रहा है। कवि का दृष्टिकोण बहुत व्यापक होना
चाहिए, उसके लिए तो समूची मानवता एक समान है। सब सुखी
रहें कवि तो यही कामना करता है अपनी कविता में। नववर्ष
की कविताओं में विश्वशांति की कामना कवि करते हुए
दिखते हैं-
सिंधु नहीं लाँघे मर्यादा जीवन को न सताए बाधा
रह जाए सत्कार्य न आधा नवल हर्ष शुभ हो।
हर अंतर से दूर भ्रांति हो हर आनन पर नव्य क्रांति हो
अब न हताहत विश्व-शांति हो नव संघर्ष शुभ हो
- प्रो हरिशंकर आदेश
कवि नववर्ष की
कविताओं में सुख-समृध्दि और मानव कल्याण की ही बात
नहीं करता है वह यह भी कामना करता है कि कवि विपरीत
समय में भी अपने कवि धर्म से विचलित न हों। भले ही कवि
सृजन न करे लेकिन ऐसा सृजन कदापि न करे जिससे लोकहित न
हो। कलम किसी और के इशारे पर न चले, कवि सम्मेलनों में
सस्ते मनोरंजन के लिए कविताएँ न लिखे, अमीरों और
राजनीति के तलुवे चाटने न पहुँच जाए। कलम जब भी उठे
ध्वंस के नहीं बल्कि सृजन के गान गाए-
कलम बिकने नहीं पाए, भले खामोश हो जाए
कलम जब-जब उठे तब-तब सृजन के गान ही गाए
कलम ज़िंदा रहे सबकी कलम हो साधना मेरी।
नये नव वर्ष तुम आओ तुम्हें शुभकामना मेरी!
-कमलेश भट्ट कमल
1 जनवरी 2007 |