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मेरे एक मित्र हैं, वे नववर्ष की 
शुभकामना भेजने से नहीं चूकते। उनकी शुभकामना का कार्ड पाकर मुझे विदित होता है कि 
नववर्ष का आगमन हो चुका है, अन्यथा मुझे कुछ भी नया नहीं लगता। भैंस उसी तरह से 
गोबर करती है पूँछ उठाकर, गधा उसी तरह से धूल में लोटपोट कर रेंकता है, दिन पर दिन 
बुढियाता पड़ोसी अपने चिरंजीव को उसी तरह घिघियाता हुआ गरियाता है। पड़ोस में उसी 
तरह तू-तू-मैं-मैं वाले महाभारत के दृश्य प्रस्तुत होते हैं। ज़िंदाबाद, मुर्दाबाद, 
लाठी-गोली की सरकार नहीं चलेगी, हर ज़ोर-जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है, 
आदि नारे उसी तरह लगाए जाते हैं। अकाल, बाढ, बीमारी, महामारी, भुखमरी, बेकारी, 
मंत्रियों के भाषण, आश्वासन, नेताओं के दौरे सब उसी तरह यथावत। तोमर जी का कार्ड 
कुछ नया-सा लगता है। उन्होंने अपना अच्छा-ख़ासा भवन बना लिया है, बैंक बैलेंस भी 
है, बच्चों की शादी-ब्याह से निपट गए हैं और अब करने के लिए या कुछ सोचने के लिए 
उनके पास है ही क्या? सो कृपा करके नववर्ष की शुभकामना मित्रों को भेजते रहते हैं। 
मुझे उनका आभारी होना चाहिए। 
 इस वर्ष भी उनका कार्ड आया तो लगा कि नया वर्ष आ 
गया है और पुराना चला गया है। मैंने अपने कमरे की ओर दृष्टिपात किया-वही पुरानी खाट 
और उस पर फटी-सी मैली चादर, कई जगह से उखड़ा विपन्न सोफा, टूटी-फूटी कुर्सियाँ, 
सीलन से उभरती बदबू। एक वर्ष और बीता, कब होगा अपना मकान? बाहर निकल जा की धमकी, जो 
मकान-मालिक जब-तब देता रहता है, से कब मुक्ति मिलेगी?  दिन आते हैं, जाते हैं। काल का चक्र सतत चलता रहता 
है। और हम हैं कि जहाँ के तहाँ हैं। सरकार है कि हमें धकियाकर आगे बढ़ाना चाहती है, 
पर हम हैं कि हज़रते दाग जहाँ बैठ गए, बैठ गए, के अंदाज़ में टस से मस नहीं हो रहे 
हैं। सरकार कहती है-बच्चे कम पैदा करो। पर हम हैं कि विश्व में अपनी जनसंख्या का 
कीर्तिमान बनाने पर तुले हैं। ओलम्पिक में कीर्तिमान नहीं बना तो क्या हुआ, 
कीर्तिमान बनाने के और गुण तो हममें हैं ही। मसलन भ्रष्टाचार, घूसखोरी, बेईमानी, 
बलात्कार, हत्या, आतंक, बहुओं को जलाने का सत्कर्म, धोखा देने, झूठ बोलने में 
सिद्धहस्त, विश्वासघात में पारंगत, समय बर्बाद करने में महारथी।  हे गत वर्ष! मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ और 
आगत का साहस जुटाकर स्वागत करना चाहता हूँ, किंतु कर नहीं पा रहा हूँ। बहुत सारे 
लोग तो लगे हैं स्वागत में। आधी रात से ही बम-पटाखे फोड़ रहे हैं, चिल्ला-चिल्ला कर 
कान फोड़ स्वर में पॉप गा रहे हैं। दूरदर्शन वाले भी उछलकूद के दृश्य दिखा रहे हैं। 
वैसे ठंड है, पर उन तथाकथित कलाकारों के बदन पर कम ही कपड़े हैं। केवल कमर में 
बित्ताभर कपड़ा है, शायद नए वर्ष में वह भी न रहे।  स्वच्छ अन्न, स्वच्छ जल, स्वच्छ हवा हमारे लिए 
हानिकारक है। अत: वनों का विनाश कर, नदियों में गंदगी बहाकर, जोर-जोर से लाउडस्पीकर 
बजा-बजा कर प्रदूषण पर प्रदूषण पैदा करते रहने में हमें खुशी है। रोज़ाना समाचार 
पत्रों में आदमियों के खूनी संघर्ष की ख़बरें पढ़ने को मिलती ही रहती हैं। 
 हे गत वर्ष, तुम तो अनेक बहुओं को दहेज न लाने के 
कारण जलाकर मार डालने का दृश्य देख चले गये। पर मैं क्या करूं। पिछले साल की ही तो 
बात है, पटेल साहब के यहां ब्याह कर लाई गई बहू वसुधा। वसुधा में क्या कमी थी, मुझे 
नहीं मालूम। रूपवती और गुणवती तो वह थी ही। बाद में पता चला कि उसमें एक जबर्दस्त 
खामी थी, क्योंकि वह दहेज के साथ रंगीन टी.वी. नहीं लाई थी। उसके पति को अच्छी बीबी 
नहीं, टी.वी. की जरूरत थी। अत: उनमें आए दिन मारपीट और तकरार होने लगी।  हे भारतीय बाप, तू पुत्री को जन्म ही क्यों देता 
है। और देता है तो दहेज देने की सामर्थ्य क्यों नहीं रखता? पटेल की बहू वसुधा जलकर 
मर गई या जला डाली गई। जो भी हो एक शील सम्पन्न सुंदर बहू नि:शेष हो गई। मैं तो 
पत्नी जलाने वाले पतियों की प्रशंसा में एक महाकाव्य लिखना चाहता हूँ। बहू को जलाने 
के पुण्य से वंचित रहा तो इससे क्यों रहूँ। हे गत वर्ष, तुम्हें तो मालूम ही है कि अपने देश के कुछ गिने-चुने लोगों ने बहुत 
सारे रुपये स्विस बैंक में छिपाकर रखा है। उनका जीवन धन्य है, जिनका खाता स्विस 
बैंक में है। भारतीय बैंक विश्वसनीय नहीं हैं, क्योंकि इनमें जमा की गई रकम राष्ट्र 
के उपयोग में लाई जाती है। सच्चा धन वही है, जो राष्ट्रीय हित में नहीं लगता। मेरे 
जैसे अधिसंख्य बदनसीब हैं, जिनका रुपया स्विस बैंक में नहीं है। काश! मेरा भी खाता 
स्विस बैंक में होता तो मैं गर्व से कहता- हाँ है मेरा रुपया स्विस बैक में।
 हे गत वर्ष! स्मरणीय हो तुम। क्योंकि तुम्हारे काल 
में ही भारतीय इंजीनियरों का कमाल सामने आया। एक माली को इंजीनियर साहब के बंगले 
में गाडी स्वर्ण-राशि मिट्टी खोदते समय मिली। भारतीय इंजीनियर जो करे थोड़ा। रामायण 
काल में दक्ष इंजीनियर नल-नील ने हस्तकौशल से पानी पर पत्थर तैरा दिए थे। आज के 
इंजीनियर हस्तकौशल से मालामाल हो जाते हैं। भले कहीं पाठशाला गिरे और बच्चे दब कर 
मरें। लेकिन नल-नील थे कि नहीं? जब भगवान राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न है तो 
नल-नील कहाँ ठहरते हैं। भाई, मैं धुरंधर प्रगतिशील इतिहासविद नहीं हूँ कि बता दूँ 
कि दो सौ-पाँच सौ वर्ष पहले मेरे पूर्वज कौन थे। पर सरकारी पुराविदों एवं नेताओं को 
अपने पाँच-दस हज़ार वर्ष पुराने पूर्वजों की जानकारी है। मैं भूगर्भविज्ञानी भी 
नहीं कि कह सकूँ कि प्रकृति ने इतने सारे समुद्र होते हुए और कहीं क्यों नहीं 
रामसेतु जैसी रचना की।  हे गत वर्ष, अपनी शिक्षा-नीति एवं राजनीतिक 
उठा-पटक के कारण तुम अवश्य स्मरण किए जाओगे। शिक्षा-नीति में न तो शिक्षा है और न 
नीति। राष्ट्रीय शिक्षा की तो बात ही व्यर्थ है। इस देश में जब कोई काम नहीं रहता 
तो शिक्षा पर बहस चलती है। बुद्धिमान शिक्षा जैसे महत्वहीन विषय पर सिर क्यों 
खपाये?  राजनीतिक उठा-पटक तथा उखाड़-पछाड़ का सतत अभियान 
तो चलता ही रहता है, गत वर्ष भी चला। अब तो वह भी चला गया। देखें नए वर्ष में क्या 
नया होता है।  |