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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
रवींद्रनाथ भारतीय की कहानी— 'नव वर्ष : दो डायरियाँ समानांतर'


दो डायरियों के पन्ने फाड़ कर आपके सामने लाया हूँ। बुढ़ापे और बचपने में बस हमारी ही नज़र का फेर होता होगा, वरना फ़र्क है क्या? एक जगह ठिठके हुए से लोगों का अपने आस पास भागते दौड़ते लोगों को देखना। एक बस अभी चलना चाह ही रहा है, उछल कर असमान छू लेने का मन बनाए हुए है और दूसरा चल कर अपने हिस्से का दौड़ कर, अपने हिस्से का आसमान नाप कर ज़मीन तलाश रहा है, पथरीली नहीं, सपाट। दर्शक हैं दोनों ही, पवित्र, निर्लिप्त, निष्पक्ष दृष्टा....
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ये दोनों डायरियाँ बस पड़ी मिल गईं कहीं, किसी और फालतू कहानी से नहीं जोडूँगा इसे। हुआ बस इतना कि, कबाड़ में अख़बार बेचते हुए, कबाड़ी के ठेले पर किताबें कॉपियाँ उलट-पुलट करना, अब आदत-सा बन चुका है। तो ऐसे ही ये दो डायरियाँ हाथ लगीं घर पर,  इन्हें साथ उठा लाया, अब पढ़ रहा हूँ, आपके साथ ही।
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एक बस शायद इंग्लिश की कापी भर थी, उलट-पलट कर देखा तो, कुछ देवनागरी में लिखा-सा दिखा, वो भी पेन्सिल से, पढ़ने लगा तो पता चला कि डायरी लिखने के लिए, शायद इसकी, नन्हीं लेखिका भूल गई बहुत कुछ। ये नहीं जानती रही होगी कि मैं, आज इसे आपके सामने पटक तक मारूँगा, और नहीं तो क्या, पता होता तो सोच कर लिखा जाना ज़रूरी था कि, नववर्ष का आत्मकथ्य बन सकता है ये। एक क्रूर लेखक के लेखनी का भोजन। हाँ इस भाग को मैंने अपने हिसाब से बनाया बिगाड़ा भी है, नन्हीं लेखिका से क्षमा चाहता हूँ, पर वो शायद ही कभी पढ़ पाए इसे।

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