समकालीन कहानियों में भारत से
सुशांत सुप्रिय
की कहानी एक दिन अचानक
एक
शाम आप दफ़्तर से घर आते हैं- थके-माँदे। दरवाज़े पर लगा ताला
आपको मुँह चिढ़ा रहा है। सुमी कहाँ गई होगी- ज़हन में
ग़ुब्बारे-सा सवाल उभरता है। बिना बताए? और पुलक? आप का तीन
साल का आँखों का तारा? आप जेब में हाथ डाल कर चाभी निकालते
हैं। ताले की एक चाभी आपके पास भी रहती है। चाभी आज पत्थर-सी
भारी क्यों लग रही है? दरवाज़ा खोल कर आप भीतर आते हैं। वही
जाने-पहचाने कमरे हैं। लगता है जैसे अभी रसोई के नल में से
पानी गिरने की आवाज़ आएगी, बर्तन खड़केंगे और सुमी रसोई में से
साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई निकलेगी। कहेगी- बड़े थके
हुए लग रहे हो आज। हाँ, आज कई मीटिंग्स थीं- आप कहेंगे। तुम
हाथ-मुँह धो लो। मैं चाय बनाती हूँ- वह कहेगी। पुलक बेड-रूम के
फ़र्श पर पड़े आज के अख़बार पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ बना रहा
होगा। आप उसे गोद में उठा कर चूम लेंगे। मेरे पापा- कह कर वह
आपके गले में बाँहें डाल देगा। पर मकान आज सोया हुआ है। कहीं
कोई आवाज़ नहीं। रसोई का नल ख़ामोश है।
बर्तन बेसुध पड़े हैं। बेड-रूम में वीरानी छाई है।
आगे...
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मुक्ता का प्रेरक प्रसंग
श्रम का पुरस्कार
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डॉ. संजीव कुमार का दृष्टिकोण
तुलसी
का
रामराज
और
वर्तमान
में
उसकी
प्रासंगिकता
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महेशदत्त शर्मा का आलेख
शाश्वत राम हमारे
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ब्रज श्रीवास्तव का संस्मरण
पिता के साये में जीवन
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