दीपावली के अवसर पर
जैन रामायण में
राम की परिकल्पना
-योगेन्द्रनाथ शर्मा अरुण
पुराण और इतिहास की सीमाओं को लाँघकर 'राम' और उनकी
'रामकथा' जन-आस्था का केंद्र बन चुकी है यह एक
सर्वमान्य तथ्य है। निःसंदेह, राम का आदर्श चरित्र
देश-काल की सीमाओं को तोड़कर विश्व साहित्य को भी
प्रभावित करता रहा है। संस्कृत, पाली, प्राकृत,
अपभ्रंश तथा हिंदी क साथ-साथ असमिया, बंगला, उड़िया,
तमिल एवं कन्नड़ आदि भाषाओं के कवियों ने 'रामकथा' को
बहुत आदर एवं निष्ठा के साथ ग्रहण करके युगानुरूप
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। यह एक विलक्षण बात है
कि 'रामकथा' का विस्तार लोक रंजनकारिणी 'कृष्ण कथा' की
तुलना में कहीं अधिक हुआ है।
जैन धर्मावलंबी कवियों ने 'रामकथा' को अत्यंत आदर और
श्रद्धा के साथ ग्रहण करके धर्म एवं दर्शन के साथ-साथ
जैन समाज एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम
बनाया है। रामकथा के प्रसिद्ध अध्येता डॉ॰ कामिल
बुल्के ने लिखा है, "बौद्धों की भाँति जैनियों ने भी
रामकथा अपनायी है। अंतर यह है कि जैन कथा ग्रंथों में
हमें एक अत्यंत विस्तृत रामकथा साहित्य मिलता है।"
यह दुर्भाग्य ही है कि रामायण साहित्य में उपलब्ध
विपुल रामकथा साहित्य को शोधकर्ताओं और जिज्ञासुओं ने
अभी कम ही देखा-परखा है; जबकि आवश्यकता इस बात की है
कि संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि की 'रामायण' तथा महाकवि
तुलसीदास द्वारा प्रणीत 'रामचरितमानस' के बीच सशक्त
सेतु बनने और बनाने वाले प्राकृत-अपभ्रंश में रखे गये
विपुल 'रामकथा साहित्य' का अनुशीलन और प्रकाशन हो।
जैन रामकथा परंपरा
प्राकृत एवं अपभ्रंश में राम और कृष्ण के पावन
चरित्रों को जैन कवियों ने अपने प्रबंध काव्यों का
आधार बनाकर जैन धर्म एवं दर्शन की मान्यताओं की
अभिव्यक्ति सशक्त ढंग से की है। प्रबंध शैली में रचित
अपभ्रंश भाषा का बहुचर्चित महाकाव्य 'पउम चरिउ' महाकवि
स्वयंभू देव की रचना है, जो जैन मतावलंबी तथा 'यापनीय
संघ' से संबंधित थे।
जैन रामायण की परंपरा के पीछे जैन धर्म की एक विशिष्ट
अवधारणा मुख्य रूप से रही है जिसकी जानकारी अत्यंत
रोचक और ज्ञानवर्धक है। जैन धर्म में 'त्रिषष्ठी शलाका
पुरुष' अर्थात् तिरसठ शलाका पूज्यों का स्थान सर्वोच्च
है। इन त्रिषष्ठी यानी ६३ शलाका पुरुषों में २४
तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव तथा ९
प्रतिवासुदेव माने गये हैं। जैन धर्म की मान्यता के
अनुसार इन 'त्रिषष्ठी शलाका पुरुषों का अवतरण निरंतर
गतिमान सृष्टिचक्र की प्रत्येक 'उत्सर्पिणी' तथा
'अवसर्पिणी' में होता है। इनमें से प्रत्येक 'बलदेव'
का समकालिक एक 'वासुदेव' तथा उसका प्रतिद्वंद्वी एक
'प्रतिवासुदेव' होता है। 'वासुदेव' अपने बड़े भाई
'बलदेव' के साथ मिलकर 'प्रतिवासुदेव' से युद्ध करके
उसका वध करता है और इसी 'पाप कर्म' के कारण मृत्यु के
बाद 'वासुदेव' नरक में जाता है तथा अनुज के शोक में
दग्ध होकर 'बलदेव' जैन धर्म की 'दीक्षा' लेकर अंततः
मोक्ष प्राप्त करता है।
जैन धर्म की इस विलक्षण 'त्रिषष्ठी शलाका पुरुष'
परंपरा में 'राम' वर्तमान अवसर्पिणी के अंतर्गत आठवें
'बलदेव' के रूप में पूज्य शलाका पुरुष हैं और उनके साथ
इसी क्रम में 'लक्ष्मण' आठवें 'वासुदेव' तथा 'रावण'
आठवें 'प्रतिवासुदेव' के रूप में माने गये हैं। इस
प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म एवं संस्कृति में
'राम' को तीर्थंकरों तथा चक्रवर्तियों के साथ-साथ
सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
जैन रामायण में राम 'पद्म' हैं
अत्यंत रोचक तथ्य यह है कि साहित्य में 'रामकथा'
संस्कृत की परंपरानुसार 'रामायण' अथवा तुलसीदास की
भाँति 'रामचरित' के नाम से नहीं रची गयी, बल्कि 'राम'
का नाम जैन रामकथा काव्यों में 'पउम' अर्थात 'पद्म'
रखकर 'पउम चरिउ' (पद्म चरित) कहा गया है। 'त्रिषष्ठी
शलाका पुरुष' यानी ६३ पूज्य पुरुषों के क्रम में ही ९
वें 'बलदेव' के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
जैन साहित्य में रामकथा की दो धाराएँ प्राप्त होती
हैं। एक है महाकवि विमल सूरि प्रणीत 'पउम चरियं' की
समृद्ध परंपरा तथा दूसरी है गुणभद्र आचार्य द्वारा
रचित 'उत्तर पुराण' की परंपरा। वस्तुतः महाकवि विमल
सूरि की प्राकृत भाषा में रचित रामकथा परंपरा ही
आचार्य रविषेण के संस्कृत छायानुवाद 'पद्म चरितं' के
माध्यम से बढ़ती हुई महाकवि स्वयंभू देव तक 'पउम चरितं'
में मिलती है। इस परंपरा की प्रमुख रामकथा कृतियाँ इस
प्रकार हैं-
१. विमल सूरि प्रणीत 'पउम चरितं' तीसरी शती प्राकृत
भाषा
२. रविषेणाचार्य प्रणीत 'पउम चरितं' ६६० ईसवी संस्कृत
३ स्वयंभूदेव प्रणीत 'पउम चरितं' आठवीं शती अपभ्रंश
४. हेमचन्द्र प्रणीत 'जैन रामायण' बारहवीं शती संस्कृत
५ . जिनदास प्रणीत 'राम पुराण' पंद्रहवीं शती संस्कृत
६ . पद्मदेव प्रणीत 'राम चरितं' सोलहवीं शती संस्कृत
७. सोमसेन प्रणीत 'राम चरितं' सोलहवीं शती संस्कृत
'बलराम' तथा उनके साथ ९ वें वासुदेव हैं 'कृष्ण' और ९
वें प्रतिवासुदेव हैं 'जरासंध'!
आप जान ही चुके हैं कि ८ वें 'बलदेव' के रूप में
जैनियों ने 'राम' को प्रतिष्ठित करके 'लक्ष्मण को ८
वाँ वासुदेव तथा 'रावण' को ८ वाँ प्रतिवासुदेव माना
है।
बस! इसी महत्वपूर्ण क्रम के सम्यक् निर्वाह की दृष्टि
से और 'नाम साम्य' के कारण उत्पन्न संभावित गलतफहमी से
बचने के लिए जैन कवियों ने ८ वें 'बलदेव' राम का नाम
'पद्म' रख लिया और 'रामचरित' को 'पउम चरि' अर्थात
'पद्म चरित' कहा गया। वस्तुतः इस विशिष्ट परिवर्तन के
कारण ही 'जैन रामायण का रूप प्रचालित हिंदू रामकथा से
अलग है।
जैन रामायण में रावण-वध 'राम' के द्वारा नहीं होता
बल्कि 'वासुदेव' लक्ष्मण ही 'प्रतिवासुदेव' रावण का
युद्ध में वध करते हैं, जिस कारण मृत्यु के पश्चात
लक्ष्मण नरकगामी होते हैं और राम अपने अनुज की मृत्यु
के शोक में जैन धर्म की दीक्षा ले लेते हैं इस विलक्षण
परिवर्तन का ही यह परिणाम हुआ है कि मर्यादा
पुरुषोत्तम राम के 'शील-शक्ति-सौंदर्य' वाले जनप्रिय
स्वरूप से स्थान पर जैन रामकथा के नायक 'राम' के
चरित्र में केवल 'शील एवं सौंदर्य' की ही अभिव्यक्ति
कवियों द्वारा की गयी और शौर्य-पराक्रम का समावेश जैन
कवियों द्वारा राम के चरित्र में नहीं किया जा सका।
जैन मतावलंबी कवियों द्वारा संस्कृत, प्राकृत एवं
अपभ्रंश भाषाओं में लगभग पंद्रह सौ वर्षों तक निरंतर
'रामकथा' की रचना किया जाना सामान्य बात नहीं, बल्कि
जैन कवियों की विशेष देन ही मेरी दृष्टि में रही
पूर्वाग्रहों के कारण हम अधिक महत्व नहीं दे सके।
'अपभ्रंश के वाल्मीकि' कहे जाने वाले महाकवि स्वयंभू
देव द्वारा रचित महाकाव्य 'पउम चरिउ' का तो हमारे
महाकवि तुलसीदास द्वारा प्रणीत 'रामचरित मानस' पर
अत्यंत गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है, जिसे देखकर
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जोर देकर कहा है-"तुलसी
बाबा ने स्वयंभू की जैन रामायण जरूर देखी होगी।"
आश्चर्य तो यह है कि दोहा-चौपाई छंद की परंपरा जैन
कवियों की ही देन है और 'मानस' के अनेक प्रसंगों का तो
मूल स्रोत ही जैन रामायण 'पउम चरिउ' है।
जैन रामकथा के स्वरूप में मूलभूत परिवर्तन के कारण
'राम' के चरित्र में भी परिवर्तन दिखायी देता है, जिसे
जानना निश्चय ही रोचक और महत्वपूर्ण है। जैन रामायण
'पउम चरिउ' के अनुसार 'राम' दशरथ और उनकी पटरानी
'अपराजिता' के पुत्र हैं। जैन रामकथा काव्यों में
महाकवि तुलसीदास की तरह 'राम' को 'परब्रह्म' नहीं माना
गया, बल्कि जैन कवियों ने 'सहज मानवीय पात्र' मानकर
उनके चरित्र में सरलता, निष्कपटता, निर्भीकता और
सर्वोपरि आचरण की पवित्रता जैसे गुणों का समावेश कराया
है। वीर एवं पराक्रमी राम को अभिमान छू तक नहीं पाता,
बल्कि त्याग, विनम्रता, सौम्यता और पर दुःख कातरता
जैसे उदात्त जीवन मूल्यों से 'राम' का चरित्र अभिमंडित
है।
जैनत्व की प्रतिष्ठा
सच्चाई वास्तव में यही है कि जैन कवियों ने रामकथा के
माध्यम से 'जैनत्व' को प्रतिष्ठित किया है। जैन धर्म
के सर्वोच्च मान्य आदि तीर्थकर ऋषभ जिन में 'राम' की
दृढ़तम आस्था दिखाकर जैन रामकथाकारों ने सहज रूप से
आदिदेव ऋषभ देव के महत्व को ही अक्षुण्ण रखा है।
आदि कवि वाल्मीकि तथा महाकवि तुलसीदास की तरह जैन
रामायण 'पउम चरिउ' के महाकवि स्वयंभू देव ने 'ब्रह्म'
बनाकर 'राम' के चरित्र में अविश्वसनीयता अथवा अतिशय
आस्था का पुट नहीं दिया, बल्कि सहज मानवोचित उदात्त
गुणों और मानवीय दुर्बलताओं का चित्रण करके 'राम' को
जन-विश्वास की सीमा में रखा है। महाकवि स्वयंभू के
'राम' अपने भाई लक्ष्मण को मूर्छित देख अत्यंत भावुक
होकर कहते हैं-
"कहिं तहं कहि हउं कहिं पिययम,
कहिं जणोरि कहिं जणणु गउ !
हय विहि विच्छोउ करेप्पिणु
कवण मणोरह पुण्ण तउ!!"
अर्थात् 'हे भाई ! कहाँ, तुम, कहाँ मैं और कहाँ सीता?
कहाँ जननी और कहाँ जनक? इस भाग्य ने ऐसा बिछोह आखिर
किस मनोरथ की पूर्ति के लिए कराया है?'
वस्तुतः जैन धर्मावलंबी कवियों ने 'राम' के चरित्र में
जैनत्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा कराते हुए दश धर्म
लक्षणों, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच,
संयम, तप, आकिंचन्य, ब्रह्यचर्य आदि के साथ-साथ पंच
महाव्रतों एवं पंच अणुव्रतों आदि का समावेश करा दिया
है। इस विलक्षण जैन-रामकथा परंपरा को जानना और परखना
संभवतः इसलिए आवश्यक है कि हम जान सकें कि कैसे जैन
धर्म और दर्शन को कालजीवी बनाये रखने में रामकथा सहायक
हुई है।
२८
अक्तूबर २०१३ |