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प्रेरक-प्रसंग


श्रम का पुरस्कार
-मुक्ता
 


बहुत दिनों पहले की बात है, गिलहरी पूरी तरह काली हुआ करती थी। छोटी-छोटी झाड़ियों के बीच, घास के मैदानों में, ऊँचे बड़े पेड़ों पर रेंगती फिरती कूदती फाँदती लेकिन लोग उसे सुंदर प्राणी नहीं समझते थे। गिलहरी को गाँव के परिवारों के साथ रहना पसंद था लेकिन गाँव वाले उसे पसंद नहीं करते थे। वह घरों में पहुँच जाती तो बच्चे डर जाते और लोग उसे भगाने लगते।

गाँव में एक आश्रम था जिसमें साधू बाबा रहते थे। गिलहरी उनके पास रहने लगी। जो बाबा खाते वह गिलहरी खाती, जो वे यज्ञ हवन करते उसकी साक्षी बनती और जो वे जप मंत्र पढ़ते उसके पुण्य का लाभ उठाती। धीरे धीरे गिलहरी बीज, कंद और मूल खाने वाली साध्वी बन गई। कुछ समय बाद बाबा रामेश्वरम की तीर्थयात्रा पर निकले तो वह गिलहरी भी उनके साथ हो ली। रामेश्वरम के समुद्र तट पर बाबा ने जहाँ डेरा डाला वहीं किसी पेड़ पर एक कोटर में गिलहरी ने भी अपना घर बना लिया।

रामेश्वरम में थोड़ा ही समय बीता था कि राम और रावण का युद्ध छिड़ गया और राम जी ने सिंधु में सेतु निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। नल और नील के नेतृत्व में बन्दर और भालू समुद्र में पत्थर डालकर सेतु बनाने लगे। यह देखकर गिलहरी भी रेत के कण उठाकर समुद्र में डालने लगी। यह छोटा सा काम था लेकिन बड़े निर्माण में छोटे से छोटे काम का महत्व होता है, यह समझकर नल नील ने उसे टोका नहीं और वह अपना काम करती रही। भगवान राम भी उसे चुपचाप काम करते देखते। जिस दिन पुल का निर्माण पूरा हुआ, उस दिन, नन्हीं सी गिलहरी द्वारा प्रदर्शित उत्तरदायित्व, लगन और श्रम की भावना को पुरस्कृत करने के लिये भगवान राम ने उसे अपने हाथों में उठाया और आशीर्वाद से भरी अपनी अँगुलियों को उस पर फेरा।

आश्चर्य ! भगवान राम के हाथ और ऊँगलियों के निशान जहाँ लगे वहाँ का रंग भगवान की त्वचा जैसा साँवला हो गया और वह अत्यंत आकर्षक दिखाई देने लगी। कहते हैं तभी से गिलहरी की गणना सुंदर प्राणियों में होने लगी। गाँव के बच्चे उसे देखकर खुश हो जाते, उसे बगीचों से कोई नहीं भगाता और लोग उससे खूब प्रेम करते। गिलहरी को मिले इस वरदान से उसके आगे की संतति भी सुंदर हुई। अंत में जब सेतु निर्माण का इतिहास लिखा गया तब हर कवि और रचनाकार ने उस नन्हीं गिलहरी का उल्लेख अपनी रचना में किया।

२२ अप्रैल २०१३ . १ अप्रैल २०२०

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