सूर के राम
डॉ. राजकुमार
सिंह
श्रीकृष्ण लीला के अमर गायक, भक्ति-भागीरथी तथा
संगीत-सरस्वती के साधक प्रज्ञा-चक्षु सूरदास ने
‘श्रीमद्भागवत’ के आधार पर सूरसागर की रचना कर
श्रीकृष्ण लीला के विविध पक्षों को प्रकाशित किया-
“उक्ति चीज अनुप्रास बरन अस्थित अति भारी।
बचन प्रीति निरबाह अर्थ, अद्भुत तुक धारी।
प्रतिबिंबित दिवि दृष्टि, हृदय हरि लीला भासी।
जनम करम गुन रूप, सबै रसना परकासी।”
कृष्ण चरित्र के अतिरिक्त ‘सूरसागर’ के नवम स्कन्ध में
राम कथा वर्णित है। यहाँ यह भी ध्यान दिला देना
अपेक्षित होगा कि नागरी प्रचारिणी सभा की खोज
रिर्पोटों से सूरदास के अनेक ग्रंथों का पता चला,
जिनमें एक ग्रंथ ‘रामजन्म’ भी है और जिसकी पद संख्या
९४० और विषय राम चरित्र वर्णन है। किन्तु ‘सूरसागर’ के
अतिरिक्त उनके अन्य ग्रंथों की प्रामाणिकता संदिग्ध
है। अतः ‘सूरसागर’ के आधार पर ही यहाँ सूर के राम के
रूप व व्यक्तित्व का निरूपण किया जायेगा।
सूर सागर में राम की उपस्थिति
‘सूरसागर’ के नवम् स्कन्ध में रामकथा के अतिरिक्त अन्य
अनेक स्फुट प्रसंग भी हैं, जिनका रामकथा से कोई सीधा
सम्बंध नहीं है, जैसे अम्बरीष कथा, राजा पुरुरवा का
वैराग्य, च्यवन ऋषि की कथा, हलधर विवाह, श्री
गंगा-विष्णु पादोदक स्तुति और परशुराम अवतार तथा
स्कन्ध के अन्त में कच-देवयानी कथा और
देवयानी-ययाति-विवाह वर्णन। इस स्कन्ध में कुल १७४ पद
हैं, जिनमें १५८ पदों में रामकथा है, जो मानस की भाँति
ही सात काण्डों (बालकाण्ड-१४ पद, किष्किन्धा काण्ड-५८
पद, सुन्दर काण्ड-३२ पद, लंका काण्ड-५८ पद और उत्तर
काण्ड-९ पद) में विभक्त हैं। सूरसागर की रामकथा के
सम्बंध में सूर-साहित्य के अध्येता डॉ० ब्रजेश्वर
वर्मा का विचार है- “वस्तुतः रामावतार की सम्पूर्ण
कथाक्रम व्यवस्थित ढंग से देना कवि का अभीष्ट नहीं जान
पड़ता। उसने तो रामकथा के मार्मिक स्थलों पर स्फुट पद
रचना सी की है, उन्हीं को क्रमिक रूप में रखकर
उपर्युक्त काण्ड विभाजन से पूरी कथा का एक ढाँचा तैयार
हो जाता है।”
पर सूरदास जब यह लिखते हैं कि-
“नृप सौं ज्यौं सुकदेव सुनायौ। सूरदास त्यौं ही कहि
गायौ।।
तो ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने रामकथा का गायन
क्रमबद्ध रूप से किया होगा। यह बात अवश्य है कि सूर का
रामचरित्र वर्णन अति संक्षिप्त है। सूर के यहाँ राम
कथा का वही स्थान है, जो तुलसी के यहाँ कृष्ण का।
सूर के राम-
‘सूरसागर’ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उसमें
वर्णित पात्र दो प्रकार के हैं-
१. अलौकिक पात्र २. लौकिक पात्र
यदि इन पात्रों का मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण किया जाय तो
भी इन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
१. सद्वृत्ति परक पात्र २. असद्वृत्ति परक पात्र
यहाँ यह उल्लेख कर देना अपेक्षित है कि समस्त लौकिक
पात्रों को असद्वृत्ति परक पात्र समझना भूल होगी।
लौकिक पात्रों में कुछ पात्र सद्गुण सम्पन्न हैं जैसे
दशरथ, नन्द, यशोदा आदि, कुछ सामान्य गुण सम्पन्न हैं
जैसे- सुदामा, गोप, मन्दोदरी आदि पर कुछ बिल्कुल असद्
या खल पात्र हैं जैसे- कंस, रावण, शूर्पणखा आदि। यह
कहने की आवश्यकता नहीं है कि सूर के राम सद्वृत्तिपरक
अलौकिक राम हैं। ब्रह्म तत्व अचिन्त्य है, इसीलिए
वेदों ने उसे ‘नेति नेति’ कहकर छोड़ दिया है।
अवतार रूप में-
वास्तव में उस चिन्मयानन्द, सर्वानुभव स्वरूप, कल्याण
स्वरूप, ऐश्वर्य माधुर्य लीला वारिधि, सगुण मंगल
विग्रह का वर्णन विवेचन करना कठिन है। एकान्त प्रेम
साधना द्वारा ही वह अनुभव गम्य हो सकता है। सूरदास ऐसे
ही एकान्त साधक हैं, जिन्होंने उस अखण्ड, अनादि,
अनन्त, अमोघ, शक्तिवान्, अविनाशी ब्रह्म को ‘राम’ में
वर्णित किया है। महाकवि सूरदास ने उस ब्रह्म को रावण
और कुम्भकरण के कल्याणार्थ अवतरित कराया है। वह
सच्चिदानन्द परमात्मा समय-समय पर आवश्यकतानुसार अवतरित
होता है। सूर के राम ने भी अवतार लिया है, इस भूतल में
प्रकट हुए हैं और सबको दर्शन देकर पीड़ा का हरण किया
है-
“रघुकुल-कुमुद-चंद चिंतामनि, प्रकटे भूतल महियाँ।
आये ओप देन रघुकुल कौं, आनन्द निधि सब कहियाँ।।
-सूरसागर ९/ १६, पृ०-१९३
“रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर।
देस देस तैं टीका आयौ, रतन-कनक-मनि हीर।।” -सूरसागर ९/
१८, पृ०-१९२
“त्रिदस-नृपति, रिषि व्योम-विमाननि देखत रह्यौ न धीर।
त्रिभुवननाथ दयाल दरस दै, हरी सबनि की पीर।।”-सूरसागर
९/ १६, पृ०-१९२
कुछ आलोचकों के अनुसार ‘सूरसागर’ में राम मूल दृष्टि
के अनुरूप नहीं हैं। फिर भी सूर के राम अन्तर्यामी
हैं, त्रिभुवनपति हैं, त्रिभुवननाथ हैं, करुणामय हैं,
कृपानिधान हैं, कृपानिधि हैं, प्रभु हैं, जगदीश हैं,
कमलापति हैं, पतित-उद्धारक हैं, मुक्ति-धर्म-धाम हैं,
सृष्टि के सृजन, पालन एवं संहारकर्ता हैं, और इन सब
रूपों में वे दशरथ नन्दन हैं।
वीर रस में-
सूरसागर में
सूरदास ने रामरूप का चित्रण मुख्यरूप से वीर रूप में ही किया
है। अन्य रूप जैसे- मुनि रूप, राजा रूप आदि गौण हैं। इन रूपों
में राम का चित्रण मात्र दो-एक स्थलों पर है, जैसे- कैकेयी के
द्वारा राम वनगमन का वरदान माँगे जाने पर महाराज दशरथ पश्चाताप
कर रहे हैं-
“फिर-फिर नृपति चलावत बात।
कहु री! सुमति कहा तोहि पलटी, प्रान जिवन कैसे वन जात।
ह्वै विरक्त, सिर जटा धर, मृग-चर्म भस्म सब गात।।”
राम के मुनि रूप का चित्रण मृग का पीछा करते हुए दिखाया गया
है, पर वह भी वीर संवलित-
“राम धनुष अरु सायक साधो।
सिय हित मृग पाछे उठि धाये, बलकल बसन फटे दृढ़ बाँधो।
इन्दु बदन, राजीव नयन पर, सीस जटा सिव सम सिर बाधो।।
राजा रूप में-
इस प्रकार
राजा रूप का चित्रण भी सूरसागर में नहीं है। कहीं-कहीं नृप रूप
का संकेत अवश्य किया गया है। मंदोदरी रावण से कहती है-
“वे लखि आये राम रजा।
जल के निकट आइ ठाढ़े भए, दीसति विमल ध्वजा।”
राम के वनवास के बाद भरत उनके आने की खबर पाते हैं कि भूप
रामपुर के निकट आ गए हैं-
जब सुन्यौ भरत पुर निकट भूप, तब रची नगर रचना अनूप।
सूरदास लिखते हैं कि महाराज रघुवीर धीर से विनती सुनाने का
मुझे अवसर नहीं मिलता। ब्रह्म, रुद्र, मुनिगण, सभा व
सेनापतियों की भीड़ सदैव लगी रहती है। सूरदास ने राम को मुख्य
रूप से वीर रूप में ही चित्रित किया है। बालकाण्ड में राम जन्म
के अवसर पर मागध (भाट का पेशा करने वाली एक जाति), बन्दी
(चारण) और सूत(भाट) रणधीर राम को चिरजीवी होने का आशीर्वाद
देते हैं।
बाल रूप में-
राम की
बाल-क्रीड़ाओं में सूरदास ने केवल शर क्रीड़ा का वर्णन किया है।
राम जब कनकमय आंगन में खेलते हैं, तो उनके हाथ में धनुषवाण
सुशोभित होते हैं। राजीवलोचन राम, अति सुकुमार सुन्दर राम अपने
भाइयों के साथ धनुष वाण लेकर ही खेलते हैं। धनुष भंग के अवसर
पर तो राम का वीर रूप में होना स्वाभाविक ही है। राम वनगमन के
समय पुर बंधुओं को वीर बटाऊ के रूप में दिखलाई पड़ते हैं-
किहिं धौं के तुम वीर बटाऊ, कौन तुम्हारौ गाऊँ।
सीता वियोग में विलाप करते राम धनुधारी राम ही हैं-
रघुपति कहि प्रिय नाम पुकारत।
हाथ धनुष लीन्हें कटि भाथा, चकित भए दिसि बिदिस निहारत।
विनयशील पर स्वाभिमानी-
सूर के राम
का व्यक्तित्व परम उत्साही है, अति विनयशील पर स्वाभिमानी भी
है, अवसर पड़ने पर सात्विक क्रोध का धारक है, अति अनुरागी और
अपने प्रण का निर्वाह करने वाला शरणागत वत्सल है। सूरसागर में
परशुराम को जनक नगरी से विदा होने पर मिलते हैं और क्रोधित
होने पर पूछते हैं कि यह कठिन पिनाक किसने तोड़ा है? राम हाथ
जोड़कर उत्तर देते हैं पर-
क्रोधवन्त कछु सुन्यौ नहीं, लीयौ सायक धनुष चढ़ाई।
फिर भी राम-
तबहूँ रघुपति क्रोध न कीन्हों, धनुष न बान सँभार्यौ।
पर वही राम लंकाकाण्ड में लक्ष्मण की मूर्च्छा समाप्त होने पर
स्वाभिमान पूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं-
दूसरे कर बान न लैहौं।
सुनि सुग्रीव प्रतिज्ञा मेरी, एकहिं बान असुर सब ढैहौं।
राम सिन्धु तट पर कुश-साथरी बिछाकर तीन दिन तक बैठे रहे। सागर
ने एक नहीं सुनी, तब राम क्रोधित होकर सागर को सोखने के लिए
अग्निबाण धारण करते हैं।
अनुराग-प्रिय व्यक्तित्व-
राम
अनुराग-प्रिय व्यक्तित्व के धारक हैं। भाई लक्ष्मण आदि के
प्रति पत्नी सीता के प्रति उनके सुन्दर अनुराग का प्रकाशन
‘सूरसागर’ में किया गया है।
विभीषण रावण से त्रषित होकर राम की शरण में आता है। शरणागत
वत्सल राम प्रतिज्ञा करते हैं-
तबहिं नगर अयोध्या जैहौं।
एक बात सुनि निस्चय मेरी, राज विभीषन दैहौं।
सुग्रीव के शरण आने पर राम उसके शत्रु बालि का वध कर उसे
किष्किंधा का राजा बनाते हैं। अहल्योद्धार और शबरी उद्धार की
कथाएँ भी उनकी भक्त वत्सलता की ही प्रमाण हैं। निश्चय ही सूर
के आराध्य देव श्रीकृष्ण हैं; पर उन्होंने राम के चरित्र का
निरूपण भी भक्ति भाव और बड़े मनोयोग से किया है। यह सर्वविदित
ही है कि सूर की रामकथा ‘भागवत’ के आधार पर वर्णित है पर
‘भागवत’ की रामकथा से सूर की रामकथा न केवल विस्तृत ही है;
बल्कि उसमें अत्यधिक भाव गाम्भीर्य भी है। सूर के राम लीला रूप
में दशरथ नन्दन हैं, पर ‘नर’ नहीं। सूर संकेत करते हैं कि सागर
को राम के नर होने का धोखा होता है-
सागर गरब धर्यौ उर भीतर, रघुपति नर करि जान्यौ। और धृष्टता कर
बैठता है, पर कुछ क्षण में उसे बोध होता है तब वह गिड़गिड़ाकर
राम की शरण में आता है।
इस प्रकार कृष्ण भक्त सूरदास भारत के पुरुषोत्तम राम को अनेक
रूपों में चित्रित करते हे उनके प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति
प्रदर्शित करते हैं।
११
अप्रैल
२०११ |