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साहित्यिक निबंध

रामनवमी के अवसर पर

रोम रोम में बसने वाले राम
-डॉ. मनोहर भंडारी


राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानीं राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है। राम, महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, महामृत्युंजयी शिवजी के आराध्य हैं।  शिवजी काशी में मरते व्यक्ति को (मृत व्यक्ति को नहीं) राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र - शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है। सर्वदा कल्याणकारी शिव के हृदयाकाश में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं। श्रीराम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम हिंदुओं के आराध्य ईश हैं। दरअसल, राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है।

निर्गुण ब्रह्म बनाम सगुण नाम

यह एक अद्भुत सत्य है कि सगुण रूप में राम में समस्त मानवीय एवं दैवीय गुणों को प्रतिष्ठित करनेवाले महात्मा तुलसीदासजी भी राम को निराकार ब्रह्म का अवतार ही मानते हैं आचार्य केशवदास ने भी अपने महाकाव्य रामचंद्रिका में राम को निराकार, साकार और नराकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वे निर्गुण अवस्था में राम को साक्षात् ब्रह्म के रूप में स्वीकारते हैं। सुधारवादी, पाखंड व कर्मकांड विरोधी संत कबीर के आराध्य भी राम ही हैं। वे अपने राम को सर्वथा निर्गुण, व्यापक, विश्वोतीर्ण एवं विश्वमय ईश्वर मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी रमैनी में कहा है कि उनके राम दशरथ सुत नहीं हैं, उनके राम असीम हैं। ‘दशरथ कुल अवतरि नहीं आया, नहिं लंका के राव सताया।’ वास्तव में राम अनादि हैं, निराकार हैं, निर्गुण हैं, परंतु भक्तों के स्नेहवश तथा ब्रह्मादि देवताओं की प्रार्थना से वे दाशरथि राम बनना स्वीकारते हैं। निर्गुण और सगुण राम का यह महाभेद मनुष्य ही नहीं वरन् देवताओं के भी मन-मस्तिष्क में भ्रम और अविश्वास उत्पन्न कर देता है। माता पार्वती की इस उलझन का, ऐसे ही भ्रम का वैज्ञानिक तरीके से भेदन करते हुए शिवजी कहते हैं, जैसे जल और ओले में भेद नहीं है, दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण, निराकार और साकार एक ही हैं। श्रीरामचंद्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानंद स्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। प्रकाश के भंडार हैं, जीव, माया और जगत के स्वामी हैं। वे ही रघुकुल मणि श्री रामचंद्रजी मेरे स्वामी हैं। हे पार्वती ! जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे राम मंत्र देकर मुक्त कर देता हूँ वही मेरे स्वामी हैं। (बाल कांड: श्रीरामचरित मानस)

राम आखिर क्या हैं ?

वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। कबीरदासजी ने कहा है - आत्मा और राम एक है-
आतम राम अवर नहिं दूजा।

राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपाजप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं। इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है- सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।
मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।

राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है - रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है -  राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः

अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार मंत्रों का चयन ध्वनि विज्ञान को आधार मानकर किया गया है। वाक्शक्ति के मनोशारीरिक प्रभावों को हम रोज देखते हैं। द्रौपदी के व्यंग्यबाण से विनाश को प्राप्त हुई अठारह अक्षौहिणी सेना की कथा हम जानते ही हैं

लयबद्ध मधुर संगीत और शोर के क्रमशः सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के लिए किसी वैज्ञानिक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। भारतीय वैदिक मंत्रों का अध्ययन करने वाले पाश्चात्य वैज्ञानिक मानते हैं कि मंत्र जाप से उत्पन्न लयबद्ध ध्वनि तरंगें शरीर की समस्त क्रियाओं का नियमन करनेवाली अंतःस्रावी ग्रंथियों (इंडोक्राइन ग्लैंड्स) को प्रभावित करती हैं। ‘मिस्ट्री ऑव मंत्रास’ नामक पुस्तक में मुंबई के एक ख्यात चिकित्सालय में मंत्र दीक्षा द्वारा गंभीर रोगों से ग्रस्त रोगियों को रोगमुक्त करने के सफल प्रयोगों का विवरण दिया गया है। वास्तव में मंत्र जाप का स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर में अवस्थित क्रमशः ग्रंथियों एवं चक्रों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।        

मंत्रों की वैज्ञानिकता

ध्वनि के प्रभावों के मद्देनजर ही पुल पर से गुजरते समय सैनिकों को तालबद्ध होकर नहीं चलने दिया जाता है क्योंकि तालबद्ध गति के कंपन का आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) का यदि पुल की कंपन आवृत्ति से मिलान (मेच) हो जाए तो पुल भरभराकर टूट सकता है या मजबूत पुल में दरारें पैदा हो जाती हैं। राम जैसे शब्द मंत्र इसी ध्वनि  सिद्धांत के तहत मानव शरीर एवं वातावरण में सकारात्मक परिवर्तन करने में सक्षम होते हैं। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि रेडियो प्रसारण में ध्वनि तरंगों को विश्वव्यापी बनाने के लिए विद्युत चुंबकीय तरंगों में रूपांतरित कर दिया जाता है ताकि इसकी गति कुछ मीटर प्रति सेकंड से बढ़ाकर एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकंड हो जाए।

लेसर किरणें भी विद्युत-चुंबकीय तरंगे हैं। इन किरणों से एक फुट मोटी लोहे की चादर में आसानी से छिद्र किया जा सकता है और आँखों की सूक्ष्मतम शल्य चिकित्सा भी की जा सकती है। परंतु रेडियो प्रसारण या लेसर किरणें सिर्फ लक्ष्यभेदन ही करती हैं, रेडियो केंद्र या लेसर यंत्र पर इनका प्रभाव नहीं पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने बालकांड में इस वैज्ञानिक तथ्य को काव्यात्मक रूप देते हुए सुंदर व्याख्या की है-
राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार
तुलसी भीतर-बाहेर हूँ जो चाहसि उजियार। तुलसीदासजी कहते हैं कि ‘‘यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि दीपक को रख। ’’

निःसंदेह राम नाम का निरंतर जाप करते-करते ऐसा अवसर जीवन में संभव है जबकि मंत्र ‘कंपन’ (वाइब्रेशंस) और शरीरगत विभिन्न ग्रंथियों तथा सूक्ष्म चक्रों के कंपन की आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) का मिलान (मेच) हो जाए तो अचानक स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर में क्रांतिकारी सकारात्मक प्रभाव प्रकट हो जाए। आत्मा और परमात्मा के मध्य की दूरियाँ (भवसागर) अचानक समाप्त हो जाएँ महावीर की तरह ‘केवल्य ज्ञान’ (अल्टीमेट ट्रूथ) या महात्मा बुद्ध की तरह ‘महाबोधि’ का अवतरण संभव हो जाए।

कबीरदास जी के शब्दों में आत्मज्योति का प्रकाश उत्पन्न हो जाए, जो मोहिनी और ठगिनी माया के अंधकार को अचानक मिटा दे। प्रस्तुत पद में एक अन्य संत ने इसका वैज्ञानिक निरूपण बखूबी किया है- राम नाम जपते रहो जब लग घट में प्रान। कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान। यहाँ ‘कभी’ शब्द का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण और गूढ़ है। भगवान बहरा कदापि नहीं है। यह तो एक वैज्ञानिक कथन है, मंत्र जपते-जपते अचानक एक ऐसा समय आ सकता है कि राम-जाप के कंपन की आवृत्ति का मिलान हो जाए और आत्मा व परमात्मा के बीच की ठोस दीवार भरभराकर टूट जाए। आत्मा और परमात्मा के बीच ‘राम सेतु’ का निर्माण हो जाए। वस्तुतः मंत्र वैज्ञानिक घटना है, धार्मिक या महज काव्यगत तथ्य नहीं है।

राम रसायन

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर में जो भी घटित होता है वह सब ‘विद्युत रासायनिक जैव क्रियाओं’ के परिणामस्वरूप होता है। हमारे शरीर की समस्त ग्रंथियों से विभिन्न रस निरंतर निःस्रत होते हैं। न केवल ग्रंथियों वरन अरबों-खरबों सूक्ष्म कोशिकाओं में रस का विनिमय निरंतर होता रहता है। यह अद्भुत समानता है कि उपनिषदों में परमात्मा की व्याख्या इस तरह की गयी है- रसौ वै सः अर्थात् वह रस है। महात्मा तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में हनुमान जी के लिए कहा है- राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा।

यह सर्वज्ञात है कि हनुमान जी के पास राम रसायन था ही। इस राम के निर्गुण रस से महात्मा कबीरदासजी भी खूब परिचित थे। उन्होंने कहा- ‘पीबत राम रस लगी खुमार’।

राम रसायन के जरिये समाधि की खुमारी में डूबे कबीरदासजी ने कहा है-
‘कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गये ब्रह्म महेश
राम नाम ततसार है, सब काहू उपदेश।‘
सारे संसार को एक उपदेश दिया है और मैं वही कहता हूँ कि रामनाम ही वास्तव में सारवस्तु है।

राम है परम शरण

कबीरदासजी ने कहा है- ‘नहिं राम बिन ठाँव।’ आचार्य रजनीश ने कबीर के इस परम सत्य की सुंदर व्याख्या की है- राम यह वचन अनूठा है। इस वचन में सारे वेद, सारे उपनिषद, सारी गीताएँ समा जाती हैं। यह छोटा-सा वचन ‘आणविक शक्ति’ जैसा है। एक छोटे-से ‘अणु’ में इतनी विराट ऊर्जा है। वचन तो साफ है, राम के बिना और कोई ठिकाना नहीं, कोई शरण नहीं, राम के बिना और कोई उपाय नहीं यहाँ राम का अर्थ ‘परमात्मा’ है, ‘अल्लाह’ है, ‘गॉड’ है। यहाँ राम का अर्थ उस तत्व से है, जिसमें हम सब जी रहे हैं, जिसमें हम सब श्वास ले रहे हैं, जिसके होने में हमारा होना समन्वित है। राम की शरण जाने का अर्थ है, अपने को मिटाकर सर्व की शरण जाना। जिस दिन इसके आगे कोई मंजिल न रहे, उस दिन आपके जीवन में धन्यता उदय होगी। उसके पहले धन्यता का कोई उदय नहीं हो सकता है।

राम नाम की लूट है

भारतीय लोक जीवन में राम नाम की प्रभुसत्ता का विस्तार सहज देखा जा सकता हैं बच्चों के नाम में राम का सर्वाधिक प्रयोग इस तथ्य का अकाट्य प्रमाण है। अभिवादन के आदान-प्रदान में ‘राम-राम’, ‘जे रामजी की’, ‘जे सियाराम, ‘जै राम’ का उपयोग वास्तव में राम नाम के प्रति गहन लोक निष्ठा और श्रद्धा के प्रकटीकरण का माध्यम शताब्दियों से बना हुआ है। अभिवादन या बच्चों के नामों में राम के प्रयोगों का प्रयोजन यही रहा है कि बारंबार राम शब्द उच्चरित करने का सुअवसर सहज उपलब्ध रहे। इस बार-बार के जप से वातावरण और शरीर के भीतर सकारात्मक परिवर्तनों का धीमा निरंतर सिलसिला चलता रहे। तुलसीदासजी सहित अनेकानेक संतों ने कलियुग में नाम-संकीर्तन की महिमा का गुणगान किया है परंतु नाम और नामी के पारस्परिक संबंधों का खूबसूरती से वर्णन किया है तुलसीदासजी ने। यथा -‘समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी।’ अर्थात् समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किंतु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है। जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। नाम लेते ही प्रभु श्रीराम वहाँ आ जाते हैं। राम नाम के इस अद्भुत प्रभाव से परिचित कबीरदासजी ने मानव जाति को आह्वान स्वरूप कहा है-
‘लूटि सकै तो लूटियाँ राम नाम भंडार।
काल कंठ तै गहेगा रूँधे दसों दुवार।’ अर्थात् राम नाम का अक्षय भंडार यथाशक्ति लूट लो। जब काल तुम्हारे कंठ को दबोचेगा तब शरीर के दसों द्वार अवरुद्ध हो जाएँगें उस समय तुम चेतनाशून्य हो जाओगे और राम नाम का स्मरण कैसे कर सकोगे।

राम नाम सत्य है

राम नाम निर्विवाद रूप से सत्य है और यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि राम नाम के निरंतर जाप से सद्गति प्राप्त होती है। राम नाम की इस अद्भुत महिमा को श्रीरामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदासजी ने अनेक कथा प्रसंगों में प्रकट किया है।

भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर अनेक राक्षस राम के हाथों मृत्यु को प्राप्त होते हैं और राम उन्हें उदारतापूर्वक निजधाम का पुरस्कार दे देते हैं सुग्रीव का भाई बाली राम द्वारा अभयदान देने की बात पर कहता है- मुनिगण जन्म-जन्म में अनेक प्रकार के साधन करते रहते हैं फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता है। समूची राक्षसी सेना को रामजी ने निजधाम दिया है। आदिकवि महर्षि बाल्मीकि ने लिखा है- मृत्यु के समय ज्ञानी रावण राम से व्यंग्यपूर्वक कहता है- तुम तो मेरे जीते-जी लंका में पैर नहीं रख पाए। मैं तुम्हारे जीते-जी तुम्हारे सामने तुम्हारे धाम जा रहा हूँ।

रामलीला की व्यापकता

जीवनपर्यंत राम के आभा मंडल में बने रहने के लिए हमारे लोक जीवन में रामलीलाओं का युग-युगांतरों से समावेश किया गया है। लोकप्रियता और व्यापकता की दृष्टि से रामलीला का हमारे जनजीवन में विशिष्ट स्थान है। इस नाट्य रूप में एक समूचे समुदाय की धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति होती है। रामलीला में दर्शकों का जितना सहज एवं संपूर्ण सहयोग होता है उतना किसी और नाट्य में असंभव-सा है। रामचरितमानस में रामलीला की ऐतिहासिकता के स्पष्ट संकेत हैं। उत्तरकांड में काक भुशुंडजी कहते हैं-
’चरम देह द्विज के मैं पायी। सुर दुर्लभ पुराण श्रुति गायी।
खेलऊँ तहूँ बालकन्ह मीला। करऊँ सकल रघुनायक लीला।’

सांसारिक मायाजाल में और प्रपंच में लीन रहते हुए भी मरते समय राममय रहने के लिए नामस्मरण, रामकथा, राम के नाम का अभिवादन अपरिहार्य है। इनके बिना दाशरथि भाव संभव नहीं-
‘राम नाम कहि राम कहि राम राम कहि राम
तनु परिहरि रघुबर बिरह राउ गयऊ सुरधाम’ अर्थात-राम-राम कहकर, फिर राम-राम कहकर, फिर राम कहकर राजा दशरथ भगवान राम के विरह में शरीर त्यागकर सुरलोक को सिधार गये।

२२ अप्रैल २०१३

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