सदियों
से हिंदुओं की आस्था का केंद्र चित्रकूट वही स्थान है,
जहाँ कभी भगवान श्रीराम ने देवी सीता और लक्ष्मणजी के साथ
अपने वनवास के साढ़े ग्यारह वर्ष बिताए थे। असल में कर्वी,
सीतापुर, कामता, खोही और नया गांव के आस-पास का वनक्षेत्र
चित्रकूट नाम से विख्यात है। चित्रकूट, चित्र और कूट
शब्दों के मेल से बना है। संस्कृत में चित्र का अर्थ है
अशोक और कूट का अर्थ है शिखर या चोटी। चूंकि इस वनक्षेत्र
में कभी अशोक के वृक्ष बहुतायत में मिलते थे, इसलिए इसका
नाम चित्रकूट पड़ा। चित्रकूट की महत्ता का वर्णन पुराणों
के प्रणेता वेद व्यास, आदिकवि कालिदास, संत तुलसीदास तथा
कविवर रहीम ने भी अपनी कृतियों में किया है।
जेहि पर विपदा परत है, सो आवत एहि देस
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस
ओरछा में राम राजा मध्य युग में लाए गए
किंतु इस बुंदेलखंड के चित्रकूट में वनवास की विपत्ति
काटने के लिए वे स्वयं पधारे। उनके वहाँ निवास से इस तीर्थ
राज की महिमा और भी बढ़ी। अपने समस्त वांग्मय की रचना करने
के उपरांत संत तुलसीदास की दृष्टि फिर फिर चित्रकूट की ओर
जाती है। विनय पत्रिका में वे लिखते हैं -
अब चित चेति
चित्रकूट ही चलु
भूमि बिलोकु राम पद अंकित बन बिलोकु रघुवर
विहार थलु
वर्तमान में यह स्थान उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले की कर्वी
तहसील तथा मध्य प्रदेश के सतना जिले की सीमा पर
झाँसी-मानिकपुर रेलवे मार्ग पर स्थित है। चित्रकूट का
मुख्य स्थल सीतापुर है जो कर्वी से आठ किलोमीटर की दूरी पर
है। चित्रकूट के प्रमुख दर्शनीय स्थल मध्य प्रदेश के सतना
जिले में ही स्थित हैं।
धार्मिक
महत्त्व
यों तो
चित्रकूट प्राचीनकाल से ही हमारे देश का सबसे प्रसिद्ध
धार्मिक सांस्कृतिक स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है लेकिन
श्रीरामचंद्र जी के साढ़े ग्यारह वर्ष तक यहाँ वनवास करने
से इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता। वनवास काल में राम ने सीता और
लक्ष्मण के साथ यहाँ इतनी लंबी अवधि तक निवास किया कि
चित्रकूट की पग पग भूमि राम, लक्ष्मण और सीता के चरणों से
अंकित है। राम ने चित्रकूट में साधनाकर शक्ति का संचय किया
एवं अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष का संकल्प किया-
निसिचर हीन करौं महि भुज उठाई प्रण कीन्ह। कामदगिरि जहाँ
भगवान राम ने विश्राम किया, जानकी कंड जहाँ जग जननी सीता
मंदाकिनी में नित्य स्नान पूजा करती थीं, स्फटिक शिला जहाँ
मंदाकिनी के किनारे एक विशाल शिला पर बैठे राम ने जयंत पर
बाण चलाया था, यहीं स्थित हैं।
यहाँ
सदियों से प्रवाहित मंदाकिनी नदी (जिसे पयस्वनी गंगा भी
कहा जाता है) का जल पवित्र तथा सभी पापों का नाश करने वाला
कहा जाता है। चित्रकूट में दीपावली एवं रामनवमी के
अवसर पर विराट मेले लगते हैं। जिनमें पाँच से दस लाख तक
तीर्थ यात्री भाग लेते हैं। उत्तरी भारत का इतना बड़ा
ग्रामीण मेला अन्यत्र कहीं नहीं लगता है। दीपावली के दिन
हज़ारों श्रद्धालु मंदाकिनी नदी में दीपदान करते हैं।
वनवास की अवधि समाप्त होने पर भगवान
श्रीराम का अयोध्या में जो राज्याभिषेक हुआ था उसकी याद
में चित्रकूट के लोग घी के दिये जलाकर मंदाकिनी में बाँस
की टट्टियों में रखकर प्रवाहित करते हैं और लाखों दीपों की
ज्योति से मंदाकिनी का प्रवाह प्रकाशित हो उठता है।
कामाद्गिरि पर्वत संभतः विश्व का पहला ऐसा पर्वत है जिसकी
वर्ष में लाखों तीर्थ यात्री परिक्रमा करते हैं। चित्रकूट
की महत्ता के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि
जो व्यक्ति चित्रकूट में रहकर मंदाकिनी का जल ग्रहण कर
भगवान श्रीरामचंद्र जी का जाप करता है, उसे सहज ही परम
सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
प्राकृतिक सौंदर्य
चित्रकूट की
तपोभूमि इतनी मनोहारी है कि यहाँ के पर्वतों की चोटियाँ
कामद्गिरि एवं मंदाकिनी का प्रवाह, सुंदर एवं आकर्षक वन
गुफ़ाएँ एवं कंदराएँ ऋषिमुनि कोल किरात सभी दर्शक का ध्यान
बरबस खींच लेते हैं। यह उल्लेखनीय है कि वनवासी राम को
महर्षि वाल्मीकि ने चित्रकूट निवास का परामर्ष दिया था।
उनके अवतार कार्य के लिए उपयुक्त क्षेत्र होने के अतिरिक्त
चित्रकूट की जलवायु एवं प्राकृतिक सौदर्य भी कुछ ऐसे हैं
कि राम लक्ष्मण और सीता वनवास की लंबी अवधि वहाँ काट सके। सती अनुसूया आश्रम विशालकाय पर्वत के
नीचे मंदाकिनी का शांत अविरल प्रवाह, एवं नाचते हुए मोरों
के झुंड चित्त को अनायास हर लेते हैं। प्राकृतिक सुषमा से
भरपूर हनुमान धारा, देवांगना एवं कोट तीर्थ सुरम्य दर्शनीय स्थल है। गुप्त गोदावरी में विशाल पर्वत
मालाओं के नीचे मीलों अंदर पोल है तथा बहुत ही सुंदर प्राकृतिक
रेखांकन है। अंदर के जल प्रपात में राम लक्ष्मण व जानकी के
स्नान कुंड हैं। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि उस समय
मंदाकिनी में कमल के पुष्प भी खिलते थे और नदी के दोनों
तटों पर घने वृक्ष थे। उस समय भी मंदाकिनी में स्नान करना
पुण्यदायक माना जाता है और चित्रकूट वास को शोक और
विपत्तिनाशक कहा जाता था। वाल्मीकि रामायण में स्वयं भगवान
राम कहते हैं कि चित्रकूट में वास करने के कारण उन्हें जरा
भी वनवास का कष्ट नहीं हुआ।
दर्शनीय
स्थल
चित्रकूट
के मुख्य देव कामतानाथ हैं जो कामदगिरि पर्वत पर विराजमान
हैं, जिनकी परिक्रमा और दर्शन करने से माना जाता है कि
व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इस पर्वत के
चारों ओर पक्का परिक्रमा मार्ग बना हुआ है। मार्ग के
किनारे-किनारे राम मुहल्ला, मुखारबिंद, साक्षी गोपाल,
भरत-मिलाप आदि कई देवालय बने हुए हैं। इसके दक्षिणी ओर एक
छोटी पहाड़ी पर लक्ष्मणजी का एक मंदिर भी है। कहा जाता है
कि वनवास में लक्ष्मण जी यहीं रहा करते थे। परिक्रमा मार्ग
में ही भरत मिलाप स्थित है। कहा जाता है कि यहीं भरत भगवान
श्री राम से मिलने आए थे। चित्रकूट का सर्वाधिक रम्य स्थल
मंदाकिनी नदी के पयस्वनी तट पर मध्य प्रदेश की सीमा में
स्थित जानकी कुंड है। कहा जाता है कि माता जानकी इसी कुंड
में स्नान किया करती थीं। इसके आगे एक विशालखंड है जिस पर
भगवान राम के चरणचिह्न अंकित हैं।
चित्रकूट
से दक्षिण में लगभग १५ किलोमीटर की दूरी पर सती अनुसुइया
तथा महर्षि अत्रि का आश्रम है। यहीं सती अनुसुइया और
महर्षि अत्रि के साथ-साथ दत्तात्रेय व दुर्वासा व चंद्रमा
आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं। कहा जाता है कि यहीं सती
अनुसुइया ने देवी सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था।
यहाँ से छह किलोमीटर दूर गुप्त गोदावरी नाम की एक
प्राकृतिक गुफा और जानकी कुंड है। यही पर गुफा से जलधारा
कुंड में गिरती है और वहीं लुप्त हो जाती है। इसलिए इसे
गुप्त गोदावरी कहा जाता है।
रामघाट
से पूर्व में स्थित एक पर्वतचोटी पर हनुमान जी की पवित्र
मूर्ति स्थापित है। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष के अंतिम
मंगलवार को यहाँ विशाल मेला लगता है। पर्वत के भीतर से ही
एक ऐसा झरना फूट पड़ा है जिससे जिसकी जलधारा हुनमान जी की
मूर्ति की बायीं भुजा पर गिरती है। यहाँ तक आने के लिए
करीब ३५० सीढ़ियों को पार करना होता है। इसी पर्वत पर सीता
रसोई व नरसिंह धारा भी देखने लायक हैं।
लोक
संस्कृति
मनौती के
बाद अपनी कामनाओं
की पूर्ति होने पर जब लोग पाँच किलोमीटर की प्रदक्षिणा लेटकर
करते हैं तब माताएँ मंगल गीत गाती हैं। कोल भील लोकगीत गाते
हैं एवं लोक नृत्य करते हैं। दीपावली के मेले में पैर में
घुँघरू बाँध मोर के पंख लगाए ढोलक मँजीरे की ताल पर अहिर
नृत्य देखते ही बनता है। अहिरों की सैकड़ों टोलियाँ अपने
अपने गाँव से नाच करती हुई आती हैं। चित्रकूट के मेले में
इस क्षेत्र की लोक कला एवं लोकगीत खुलकर मुखरित होते हैं।
ऐसा लगता है कि गोस्वामी तुलसीदास के समय तक यहाँ केवल
ऋषि-मुनि या कुछ वन्य जातियाँ ही बसी थीं। तुलसी के बाद ही
यहाँ मठों और मंदिरों का विकास हुआ। रामघाट के पास
मंदाकिनी नदी पर पक्के घाटों का निर्माण व परिक्रमा पथ
बनवाने में पन्ना नरेश अमान सिंह व श्रीहिंदूपत का काफी
योगदान रहा। बाद में कई और रियासतें भी इस काम के लिए आगे
आईं। सैकड़ों मठ-मंदिर व धर्मशालाएँ बनवाई गईं। यहाँ की
रमणीयता और पवित्रता के कारण ही महर्षि वाल्मीकि और मुनि
भारद्वाज ने श्रीराम को अपना वनवास काल यहीं बिताने की
सलाह दी थी। वाल्मीकि के समय में चित्रकूट आध्यात्मिक
साधना का केंद्र और ऋषियों का तपोवन था। उन्होंने स्वयं
चित्रकूट पर्वत को शुभ एवं कल्याणकारी माना और लिखा है। उस
समय यहाँ पर्याप्त मात्रा में कंदमूल, विभिन्न फल और शहद
आदि उपलब्ध था। तरह-तरह के पक्षियों के कलरव से यह
वन-क्षेत्र गूंजता रहता था। हरिण, शेर और हाथियों के झुंड
स्वच्छंद विचरण करते थे। जगह-जगह ऋषियों के आश्रम थे, जहाँ
वे तपस्या में लीन रहते थे। |