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रामकथा की
सांस्कृतिक यात्रा
- श्रीराम
परिहार
''नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा।'' सूरज रोज
उगता-डूबता रहा। पंचांग की तिथियाँ बदलती रहीं। समय
इतिहास बनता रहा। पगडंडियाँ-गड़वाट से सड़क और सड़क से
राजमार्गों की ठसक पाती रहीं। शब्द बदल-बदल कर अपनी
अर्थ यात्रा के पड़ावों पर कभी टेसू और कभी सेमल से
बातें करते रहे। जीवन टापरी, घर, मकान, भवन और राजभवन
की दालान में हँसता-रोता रहा। मनुष्य अपनी लघुत्तम
इकाई से समूह, दल, कटक, समाज और विश्वग्राम के सूत्र
लेकर रस्सी बँटता रहा। यात्रा पाँवों के धूल में निशान
से शुरू हुई और समय की शिला पर अमिट-पग-चिह्न छोड़ती
आकाशचुंबी होती रही। हृदय बढ़ा, फैला, अपने से बाहर आया
और ब्रह्मांडीय होता रहा। सांस्कृतिक आख्यान लिखे जाते
रहे। सूरज का आलोक, धूप, घाम, प्रकाश और फिर सोना,
होकर नर्मदा के जल में घुलता रहा। रामकथा की अमरकंठी
आदि कवि वाल्मीकि के मुख से निःसृत होकर नदी यात्रा पर
चल पड़ी। यह कथा जीवन और जीवन के वृहत्तर आयामों की
सहजता तथा सुंदरता हो गई।
रामायणं महाकाव्यं आदौ वाल्मीकिनाकृतम।
तन्मूलं सर्व काव्यानां इतिहास पुराणयो।।
तमसा नदी के तट की वनराजि शांत थी। हवा मंथर बह रही
थी। रोम को छूकर वह स्पर्श को शीतलता का स्वाद चखा रही
थी। फूलों की सुगंध-जमीन की सुवास से मिलकर साँसों के
जरिए भीतर जाकर गीत की सर्जन-प्रेरणा बनती जा रही थी।
वाल्मीकि तमसा तट पर शांत चित्त टहल रहे थे। एक वृक्ष
की डाल पर क्रौंच पक्षी का जोड़ा क्रीड़ा कर रहा था।
जीवन के सर्जन-क्षणों में रोम-रोम के समर्पण की
सार्थकता तलाश रहा था। सृष्टि सिमटकर उस बिंदु पर आ गई
थी, जहाँ से वह आरंभ होती है। सर्जन के एक कतरे में
सृष्टि के आदि-आरंभ के बीच के असंख्य उद्दाम उत्सव और
उल्लास आँखें खोलने लगे थे। महर्षि की स्निग्ध दृष्टि
सृष्टि के आदिम और सहज प्रवाह को देख रही थी। बहेलिया
का धनुष खिंचा, तीर चला। काममोहित क्रौंच युगल में से
नर क्रौंच टप से जमीन पर आ गिरा। क्रौंची की चीख ने
आरण्यक शांति को बेध दिया। रुदन की भयानकता ने
धरती-आकाश के तत्व-तत्व में सिहरन पैदा कर दी। पेड़ के
पत्ते टप-टप टपक पड़े।
तमसा के जल में पत्थर पड़ गया। वाल्मीकि के हृदय में
झकोल उठी और काल की पाल पर से उभला गई। आँखों से आँसू
टपक पड़े। मुख से करुणा की मंदाकिनी हुल्ल से बह निकली।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
(हे निषाद, तुझे शाश्वत काल तक कभी प्रतिष्ठा नहीं
मिलेगी, क्योंकि तूने इस काम-मोहित जोड़े में से एक की
हत्या कर दी है।)
आदि कवि की प्रथम काव्योक्ति का जीवों, मनुष्यों,
कवियों, मुनियों और देवों ने सोत्साह स्वागत किया। नभ
की नीलिमा धरती पर उतरकर क्रौंची की पीठ सहलाने लगी।
उसके गालों पर लुढ़कते आँसुओं को अँजुरी में झेलने लगी।
ब्रह्मा महर्षि वाल्मीकि का अभिनंदन करने स्वर्ग से आए
और बोले कि तुम्हारे मुख से छंद का आविर्भाव हुआ है।
तुम नारद से सुने हुए राम के चरित्र को इसी छंद में
श्लोकबद्ध करो। करुणा की धारा काव्य की केंद्रीय शक्ति
बनकर गतिमान हो उठी। वाल्मीकि अपने ही समय से आदि कवि
के पद पर आसीन कर दिए गए। उनका काव्य आदि काव्य के रूप
में समादृत हुआ। कविता की पहली पंक्ति कवि के निजत्व
से परे सबके पक्ष में खड़ी हो गई। परदुखकातरता वटवृक्ष
हो गई। महर्षि अयोध्या कांड से लेकर युद्धकांड तक की
कथा रच गए। राम वनगमन से अयोध्या प्रत्यागमन तक के
चरित को वाल्मीकि ने एक आख्यानक के रूप में सूत्रबद्ध
किया। यह काव्य अपने समय की उस संस्कृत भाषा में लिखा,
जो लोक-साहित्य या लोक-भाषा के करीब थी। वाल्मीकि ने
रामकथा को जनसाधारण के लिए लिखा :-
ऋषिणां च द्विजातीनां साधूनां च समागमे।
यथोपदेशं तत्वज्ञौ जगतुः सुसमाहितौ।।
और फिर रामकथा को पंख लग गए। क्रौंच की चीख की
आर्त्तता रुदन की मृसणता और बिछुड़न की एकांतता सीता के
दुख की मिठास तथा राम के बिछोह की सहनशीलता बन गई। एक
कथा विश्व-चेतना की अंतः शक्ति बन गई। यह न होता, यदि
वाल्मीकि पक्षी के पक्ष में नहीं बोलते। वाल्मीकि ने
दुख का विभाजन नहीं किया। दुख-सुख को उन्होंने
प्राणिमात्र की दृष्टि से देखा था। फिर विचारों का
विभाजन चाहे कोशिश करके हो भी जाए, भावों का ठीक नहीं।
भाव तो अखंड इकाई है। यह देश और संपूर्ण विश्व
मानव-भावों के आम्रकुंज में ही बैठे हैं। सावटी (अधिक)
जगह तो कमरे से बाहर निकलकर ही मिलेगी। क्षितिजों तक
दृष्टि की दौड़। कोयल की कुहक। तितलियों के पंखों के
रंग। जमीन की नरमाहट। ये सब तमसा तट पर ही संभव है।
रामकथा वनों में बैठकर लिखी गई। इसीलिए वह जन-जन के मन
और गाँव-नगर के घर-घर में रमी हुई है।
दो छोटे-छोटे सुंदर बालकों ने राम-कथा को गाया। जिंदगी
की करुणा को गाया। साहित्य के मर्म को गाया। आँसुओं के
बहने का मतलब समझाया। नदी के बहने की आवाज को
गुनगुनाया। सूरज के उगने का भेद बताया। नारी के दुख को
जीवन का संगीत दिया। पीड़ा को गान बनाया। वाल्मीकि
आश्रम की चहल-पहल ने जनपदों तक धमाल मचा दी। सीता की
गोद की किलकारियों ने दिशा-दिशा में रातरानी की महक भर
दी। छुटके बालकों की मासूम बोली में कथा की मंदानिकी
कल-कल बह चली। गाँव-गाँव ने दाँतों से होंठ काट लिए।
कथा जनमानस के भीतर पहुँची और रूखे कपोलों पर अश्रुधार
बनकर लुढ़क पड़ी। धरती पर जहाँ-जहाँ आँसू गिरे, कथा के
प्रसंग और-और आत्मीय बनते चले गए। लोगों ने पूछा -
बच्चों तुम्हारा नाम? कुश-लव! पिता? माता? सीता! किसके
पास रहते हो? महर्षि वाल्मीकि! कहाँ से आए? आश्रम से।
लोगों की भावना आदर और श्रद्धा में बदलती गई। रामकथा
जन-जन की अपनी कहानी हो गई। लोग राम और सीता के बड़े
दुखों में अपने छोटे-छोटे दुख डूबोने लगे। सपड़ने
(स्नान) के बाद की ताजगी मानों सबको मिल रही हो। जीवन
को समझने और जीने की अटूट ताकत लोक ने रामकथा से हासिल
की।
एक दिन अयोध्या के राजमहल के दरवाजे, इन्हीं नन्हें
मुखों से सीता की व्यथा-कथा सुनकर कराह उठे। सिंहासन
के गले की माला के कुम्हलाए फूलों के कान खड़े हो गए।
फिर सारी अयोध्या ने उन बालकों से कथा सुनी। राम,
महामानव के न जाने किस स्तर पर पहुँचकर फूट-फूटकर रो
पड़े। राम व्यक्ति न रहे। चित्त की सहज और सम स्थिति हो
गए। इतिहास पुरुष हो गए। पर सीता, इतिहास न हो सकी। और
न ही ऐतिहासिक नारी। वह काल की सीमा के परे रहने वाला
वर्तमान हो गई। जीवन का वह पवित्र भाव हो गई, जो
रात-विरात, दिन-अदिन कभी-कभार माँ की वत्सलता की
याद-सा बना रहता है। राम, चिरंतन सत्य हो गए। लव-कुश
दोनों की कथा गाते रहे। संघर्ष की जय-यात्रा सुनाते
रहे। कथा को प्रसंगानुसार बढ़ाते रहे। लोगों की
जिज्ञासा शांत करते रहे। परिणाम में बालकांड और
उत्तराकांड रचे गए। संपूर्ण रामचरित सामने आया। रामायण
के राम-सीता मनुष्य हैं। रामायण ईश्वरीय नहीं, मानव
काव्य है। सत्य शील और सौंदर्य अपने उदात्त स्वरूप में
कैसा होता है, इसकी प्रतीति राम में है।
रामकथा को लोक ने सर आँखों पर बिठा दिया। राम-सीता को
पलक की ओट में रख लिया। कारण कि लोक को सियाराम ने न
जाने कितने-कितने झंझावातों से निरुवारा। अनगिनत
मझधारों से उबारा। श्रद्धा का अतिरेक तथा भावों की
आदरांजलि ने राम को मानव से महामानव और फिर विष्णु के
अवतार रूप में सहज स्वीकार लिया। सीता ''जनकसुता
जग-जननी जानकी'' हो गई। कुछ जगह तर्क भोथरे हो जाते
हैं। हमारा श्रेय और प्रेय एक जीवित किवंदती चाहता है।
एक प्रामाणिक मिथक चाहता है। तब लोक-मानस अपने आदर्श
को यथार्थ और यथार्थ को आदर्श में उबड़-छाबड़ कर संतरे
का रस बना लेता है। फिर कपड़छान कर यथार्थ की खटास और
आदर्श की मीठास युक्त उस रस को पीकर निस्सीम सीमा पर
पहुँचना चाहता है। जहाँ सूरज उगता है। उगता सूरज उसे
प्रणामी मुद्रा में पाता है। सूरज आश्चर्य करता है कि
अरे! यह देख! यह देश तो मुझसे भी पहले जाग गया है।
जागकर ''सोऽहम् सोऽहम्'' उच्चार रहा है। सनातन चेतना
का स्वर ध्वनित कर रहा है। सूर्य निहाल हो जाता है। वह
नंगे पाँव पैदल-पैदल इस देश की धरती पर चलने लगता है।
रामकथा सूर्य के इसी गुनगुने ताप की कथा है। रोशनी का
आख्यान है।
ईसा पूर्व लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व उत्तर वैदिक काल
में वाल्मीकि रामायण के माध्यम से रामकथा जन-जन का
कंठहार बनी। इसके पूर्व वेदों में रामकथा विषयक पात्र
स्फुट और स्वतंत्र रूप में आए हैं। संपूर्ण भारतीय
साहित्य में विष्णु के दस अवतारों में से राम एक अवतार
मान लिए गए। बौद्धों ने बुद्ध को राम का अवतार स्वीकार
किया। जैन मत में राम आठवें बलदेव के रूप में
प्रतिष्ठित हुए। कवि मनीषा वाल्मीकि की प्रज्ञा से जुड़
गई। संस्कृत काव्य में रघुवंश, भट्टकाव्य, महावीरचरित,
उत्तररामचरितम्, प्रतिमा नाटक, जानकीहरण, कुंदमाला,
अनर्घराघव, बाल रामायण, हनुमन्नाटक, अध्यात्म रामायण,
अद्भुत रामायण, आनंद रामायण, कंब रामायण आदि अनेक
काव्य-कृतियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के
विभिन्न क्षेत्रों के कवियों पर रामकथा का कितना गहरा
प्रभाव पड़ा था। अन्य भारतीय भाषाओं तथा समय को समय-समय
पर पुकार लगाने वाली -भाषा-बोलियों ने रामकथा को
शब्द-शब्द के अग्निकोण से भर दिया। आक्षितिज नगाधिराज
से आसेतु सिंधु रामकथा की उज्ज्वलता ने विराट सनातन
संस्कृति को जन्म देकर दुहराया। प्रत्येक भारतीय भाषा
ने रामकथा की सरिता में बिना नाक, कान, आँख बंद किए
बुड़क से डुबकी लगाई और अपने स्वरूप को पहले से बेहतर
उजला और चटक पाया। रामकथा काव्य की सुंदर श्रेणी बन
गई। रामायण से लेकर रामचरितमानस तक एक केश का पुल बन
गया, जिस पर चलकर सतर्क एवं चतुर असफल हो गए और बेभान
तथा फक्कड़ लोग पार उतर गए। कितनी-कितनी काव्य कृतियाँ,
रामचंद्रिका, साकेत, संशय की एक रात, अग्निलीक और
प्रवादपर्व के क्रम में सटकर खड़ी है। तमिल रामायण,
तेलगू-द्विपाद रामायण, मलयालम रामचरितम् कन्नड़-तोरवे
रामायण, बँगला-कृतिवास रामायण, उड़िया-बलरामदास-रामायण,
मराठी-भावार्थ रामायण, कश्मीरी-रामवतारचरित,
पंजाबी-दिलशाद रामायण, गुजराती रामचरित, असमी-माधव
कंदली, उर्दू-रामायण खुश्तर, सिंधी-कोकिल कलरव, नेपाली
भानुभक्त को रामायण, सिंहली-सिंहली रामायण की सधन
पंक्ति भी सांस्कृतिक एकता की सुरभि के पराग-कण अपनी
हथेलियों पर धारे हुए हैं।
आदमी कहीं भी जाए, अपने संस्कारों को माँ के दूध की
याद की तरह साथ ले जाता है। भारतीय जीवन की विकास
यात्रा ने भी चौतरफा नजर दौड़ाई। भारतीय मन की
जल-यात्रा के साथ-साथ रामकथा भी सिंधु-संतरण करती रही।
भौगोलिक सीमाएँ न तो भारतीय दृष्टि को रास आई और न ही
भारतीय मिथक उनमें सिमटकर रहे। उनमें मनुष्य की ही बात
होती रही। जीव मात्र के कल्याण का ही भाव लहराता रहा।
पृथ्वी पर ही स्वर्ग बनाने का संदेश मिलता रहा।
''जात-पात पूछे नहीं कोई'' की अवधारणा ही मुख्य रही।
मनुष्य का विपदा में भी इसने साथ नहीं छोड़ा। और तो और
मनुष्य के सुख की उछाल में भी इसी की चमक विद्यमान
रही। प्रथम ई. शताब्दी से ही बौद्ध-धर्म प्रचारकों,
व्यापारिकों और मेहनत-मजदूरी करने वालों के साथ रामकथा
भी वृहत्तर भारत में पहुँची। उत्तर में तिब्बत, चीन,
खोतान, साईबेरिया, पूरब में हिंदेशिया, हिंदी-चीन,
कंबोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रह्मदेश, दक्षिण में
लंका, मारिशस, फिजी, गिनी, ट्रिनिडाड, केनिया, घाना,
युगांडा और पश्चिम में ईरान, मिश्र, फ्रांस, इंग्लैंड
में रामकथा आधारित साहित्य-कृतियों की रचना हुई।
रामकथा विश्व की मानव-एकता का स्नेहिल कच्चा धागा बन
गई। जो धागे हमारी कलाई में बँधकर मानवीय रिश्तों की
सुरक्षा का भान कराते हैं, उन्हें बँधे रहने देने में
क्या हर्ज है?
भवभूति के 'उत्तर-रामचरितम्' के आरंभ में राम और सीता
को अपने जीवन विषयक चित्रों का अवलोकन करते हुए दिखाया
गया है। भारतीय चित्रकला के समग्र विकास का सिंहवलोकन
करने पर पता चलता है कि उसमें रामायण और महाभारत के ही
दृश्यों की पुनरावृत्ति की गई है। लंदन स्थित
इंडिया-ऑफिस पुस्तकालय में एक सचित्र रामायण के कुछ
अंश मिलते हैं। राजपूत शैली (तेरहवीं शताब्दी से
उन्नीसवीं शताब्दी) तथा काँगड़ा शैली के चित्रों में
रामकथा के अनेक दृश्य अंकित हैं। जोधपुर, संग्रहालय
में लगभग सौ वर्ष पुराने इक्यानवें रामकथा विषयक
चित्रों का संग्रह है। जयपुर के पोथीखाने में रामायण
के फारसी अनुवाद की एक सौ छिहत्तर चित्रों और सुनहरे
वार्डर से सज्जित नयनाभिराम हस्तलिखित प्रति रखी है।
ए. कनिंघम के चित्र संग्रह से रामकथा संबंधी अनेक
चित्र उद्धृत हैं। वृहत्तर भारत में रामकथा मुखारित
हुई है। फनोम-पेन के मसी खमेर में कंबोज रामायण के
दृश्य दस वर्गों में हैं।
प्राचीन भारतीय स्थापत्य के उपलब्ध नमूनों पर रामायण
में वर्णित नगरों और प्रासादों की छाप है। रामकथा का
जीवन में गहरा प्रभाव रहा है। फलस्वरूप वह जीवन,
साहित्य, संस्कृति और कला के वृहत्तर आयामों में भी
परिलक्षित हुई है। भारत में रामायण और महाभारत, राम और
सीता, हनुमान, रावण, विष्णु और गरुड़, कृष्ण और राधा,
कौरव और पांडव, सर्वत्र मंदिरों में, भवनों में अलंकृत
काष्ठ कला में, ताँबे पीतल के घरेलू बर्तनों और
दीवारों पर चित्रित, अंकित या निर्मित हुए हैं। रामकथा
का मंदिर निर्माण अथवा पाषाण शिल्प में प्रचुर अंकन
मिलता है, जिसकी लंबी शृंखला है। कंबोडिया के ''टावर
ऑव द गोल्डन हार्न'' के सबसे ऊँचे प्रकोष्ठ की दीवारों
पर रामायण के दृश्यों का अंकन करने वाले सुंदर
उत्कीर्ण पट्ट पाए जाते हैं। ये दृश्य कला की दृष्टि
से निःसंदेह श्रेष्ठतर हैं।
अपने विकास में सहायक मुख्य और अवांतर कथाओं को मनुष्य
कला-कौशल में अंकित कर उसे पूँजी बना लेता है। वह
इतिहास तो होता ही है, उससे भी कहीं आगे वह बीते हुए
का सर्वोत्तम होता है। उससे प्रेरणा लेकर बढ़ना,
अंधानुकरण नहीं है, बल्कि परंपरा का वर्तमान संदभों
में विस्तार है। यह विस्तार चित्रकला, नृत्यकला,
संगीतकला, वास्तुकला, स्थापत्य-कला, लोक गीतों,
लोक-साहित्य और जीवन के बहुविध रूपों में स्थांतरित और
स्थापित होता है। रामकथा से जुड़े प्रसंग और चरित्र
जीवन के इन विविध पक्षों में नाना रूपों के साथ सहज ही
उभर-उभर आए हैं। रामकथा के सुपात्र लोक-व्यवहार में
जब-तब झकल-झलक जाते हैं। वह किसी कथा की अपराजेय
प्रांसगिकता का अकाट्य प्रमाण है। जाने कितने
ज्ञान-कर्म, शैव-वैष्णव, वाद-प्रतिवाद, मत-मतांतरों,
भक्तियोग की छोटी-छोटी धाराओं को रामकथा ने अपने साथ
मिलाकर एक मानवीय धारा कर लिया है। शिव राम को जपते
हैं और राम है कि शिव का अभिषेक कर रहे हैं। विदेश में
रहने वाला अप्रवासी भारतीय रामनवमी के दिन अपने देश को
याद करता है। अपने परिजनों को याद करता है। एकता का
तार देश-विदेश के व्यक्ति को जोड़ता है। रामकथा की
सांस्कृतिक यात्रा मंदाकिनी की तरह वेगवती होकर बह रही
है। अनवरत बह रही है।
रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चितचारु।
तुलसी सुभग स्नेह वन, सिय रघुवीर विहारु।
१ अप्रैल २०१९ |